रट्टाफिकेशन या रोट लर्निंग (rote learning) का इस्तेमाल काफी किया है मैने। और शायद आज की कट-थ्रोट स्पर्धा के जमाने में, जहां एक दो नम्बर से वारे न्यारे हो जाते हैं, यह उत्तरोत्तर बढ़ता गया है। याद रखने के लिये मेमोरी स्ट्रिंग्स बनाने और नेमोनिक्स (mnemonics) का प्रयोग बहुत किया है। नॉलेज (knowledge) की स्पैलिंग “कनऊ-लदगये” से याद रहा करती थी।
रट्टाफिकेशन को बहुत भला-बुरा कहा जाता है। यह कहा जाता है कि रचनात्मक सोच या सीख को यह ब्लॉक करती है। मुझे ऐसा कुछ नहीं लगा, कम से कम व्यक्तिगत स्तर पर।
वैदिक ऋचाओं का पाठ रट्टाफिकेशन के जरीये ही होता था। वेदपाठी ब्राह्मणों को दादुर ध्वनि (मेंढ़क की टर्र-टर्र) कर वेदपाठ करते बताया गया है। मुझे नहीं मालुम कि आदिशंकर ने ऋचायें कैसे याद की होंगी। वे तो विलक्षण मेधा वाले थे। पर बचपन में संस्कृत के श्लोक और हिन्दी की कवितायें तो रट्टाफिकेशन से ही मैने (औसत इण्टेलिजेंस वाले जीव ने) याद की थीं। और उस समय जो याद हुआ, सो हुआ। अब तो याद रखने को बहुत जहमत करनी पड़ती है।
रट्टाफिकेशन की निन्दा करने वाले लोग अगर यह कहें कि उन्होंने रोट लर्निंग नहीं की है; तो मुझे विश्वास नहीं होगा। बल्कि, अब कभी कभी याद करने के लिये रट्टाफिकेशन पर वापस जाने का मन करता है। परीक्षा पास करने का दबाव नहीं है, कम्प्यूटर और कागज-कलम सर्वथा उपलब्ध है, इस लिये रटना नहीं पड़ता। लेकिन न रटने से लगता है कि मेमोरी का एक हिस्सा कमजोर होता जा रहा है।
आप हैं रट्टाफिकेशन के पक्ष में वोट देने वाले?
आप मुझे हर बात में रट्टा लगाने का पक्षधर न मानें। जहां संकल्पना या सिद्धान्त समझने की बात है, वहां आप रट कर काम नहीं चला सकते। पर उसके अलावा लर्निंग में बहुत कुछ है जो याद रखने पर निर्भर है। वहां रटन काम की चीज है।
पर आपके रट्टाफिकेशन का अगर री-कॉल या बारम्बार दोहराव नहीं है तो शायद आप बहुत समय तक याद न रख पायें। मसलन १३-१९ तक के पहाड़े कैल्क्यूलेटर देव की अनुकम्पा के कारण मुझे याद नहीं आते!

पढ़ाई में कई बार /विषय विशेष में rattafication भी जरुरी है..परिभाषाएं…इतिहास में संवत–काल–विज्ञानं मेंजंतुओं और वनस्पतियों का classification ,spellings–वर्ड meaning..एटक–के लिए रटना ही जरुरी है .गाने -कविता भी तो बार बार दोहराए बिना कहाँ याद होती हैं.अरे–पहाडे!वो तो बिना रटे कहाँ याद हुए कभी!
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सरजी रट्टाफिकेशन के सिद्धांत बाकी और जगह चलें, तो चलें, इस खाकसार ने एकाऊंटिंग के सवालों में चलाये हैं जी। कक्षा 13 की एकाउंटिंग में इनवेस्टमैंट नामक टापिक तब समझ ना आया करै था। पिछले दस सालों के सवाल देखकर यह समझ में आया कि एक खास तरह का सवाल उन्ही आंकड़ों के साथ तीन बार पूछा गया है। सवाल को मय आंकड़ों समेत घोंट लिया जी। वोईच की वोईच सवाल फिर आ लिया। बगैर समझे, जी उतार दिया , विशेष योग्यता आ गयी एकाउटिंग में। बंदा संकल्प वाला हो, तो रट्टाफिकेशन से गणित तक में विशेष योग्यता हासिल कर सकता है।
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……सही कहा आपने…..कई बातों/डाटा को बार बार दुहराने /रटने से वे दिमाग में स्थाई रूप से दर्ज हो जाती है.
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एक और टिप्पणी ! मुझे तो यह भी लगता है कि उम्र का एक काल खंड-बचपन और किशोरावस्था के अस पास तक ही रटने के लिए पीक अवधि होती है फिर यह क्षमता उत्तरोत्तर ह्रासोन्मुख हो जाती है -मुझे बचपन के कुछ श्लोक ,वाक्यांश आज भी शब्दशः याद है भले ही उनके अर्थ बाद में समझ में आए हो और जब वे समझ में आए तो मानों मेमरी और भी रीइन्फ़ोर्स हो गयी ! अतः इस क्षमता के बड़े उपयोग हो सकते हैं ! इस कुदरती क्षमता को कूडे में फेक देना बहुत नासमझी लगती है मुझे ! मगर अब कई शिक्षाविद् इसके ख़िलाफ़ ब्रेन वाश में लगे हैं ! मैं ख़ुद उसका शिकार हुआ ! ऐसी बातों के चक्कर में थोड़ी राहत मिल जाने से मैंने १० वीं के बाद रटना छोड़ दिया और अब पछतावा होता है -अब तो कुछ याद ही नही होता ! मगर अब पछताए होत क्या ,,,,,,,
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@ उन्मुक्त जी ! इस मुद्दे पर मुझे केवल इतना ही कहना है उन्मुक्त जी कि रटने की क्षमता कई अन्य मानवीय गुण -क्षमताओं की ही भाति एक मानवीय विशिष्टि है -इसे उपेक्षित कर देना उचित नही है -हाँ इस क्षमता का दुरुपयोग मात्र परीक्षाओं को पास करने में ही न हो यह सुनिश्चित करना होगा ! आज हजारो वर्ष पहले की वाचिक परम्परा का जो कुछ भी ज्ञान बचा और सुरक्षित रह सका है उसमें तोतारटंत मानवीय क्षमता की भी बड़ी भूमिका है ! अब इसका विवेकपूर्ण सदुपयोग कैसे हूँ इसे तय किया जा सकता है -मैंने तो आधुनिक शिक्षाविदों के भ्रमित दावों के चलते अपनी और बच्चों की भी इस क्षमता को एक तरह से विनष्ट ही कर डाला है अतः अब यह चाहता हूँ कि इसमुद्दे पर कोई अतिवादी दृष्टिकोण न अपनाया जाय -गंभीर मंथन हो !
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रट्टाफिकेशन भाई हमे स्कूल मे ओर घर मै इसी ढंग से पढने को कहा जाता था, लेकिन हम भी नही पढे इस ढंग से,एक बार जो ध्यान से सुन लिया वो याद हो गया, एक बार जो आंखो के आगे से गुजर गया, वो याद हो गया, लेकिन जब डर हो या रट्टाफिकेशन तो कुछ भी याद नही होता था, इस लिये बच्चो को सारा दिन रट्टाफिकेशन के स्थान पर जितना वो अजादी से पढे काफ़ी है,क्योकि इस रट्टाफिकेशन के बाद फ़िर याद ना होने पर जुताफिकेशन ओर पता नही कोन कोन सा फ़िकेशन शुरु हो जाता है, ओर बच्चा डर के मारे कुछ नही याद रखता, ओर फ़िर वो तारा जमीन का बन जाता है, ना बाबा नाधन्यवाद बहुत सुंदर ओर काम की चर्चा के लिये
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स्कूल के जमाने मे तो खूब रट्टाफिकेशन किया है पर अब तो ऐसी कोई जरुरत नही पड़ती है । :)
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रट्टाफिकेशन की निन्दा करने वाले लोग अगर यह कहें कि उन्होंने रोट लर्निंग नहीं की है; तो मुझे विश्वास नहीं होगा।चाहे आप विश्वास न करें लेकिन अपने विषय में तो यही कहूँगा कि बचपन से लेकर आजतक, मुझसे कभी रट्टे नहीं मारे गए, इस मामले में फिसड्डी रहा हूँ। कह सकते हैं कि इस खामी के कारण भुगता भी है जब स्कूल कॉलेज में कोई सहपाठी रट्टे मार पाने के कारण अधिक अंक ले जाता था, ईर्ष्या भी होती थी कि कमबख्त रट्टे मार नंबर ले गया, लेकिन मन को सांत्वना दे लेता था कि वह २ दिन बाद भूल जाएगा लेकिन मैंने समझा है अच्छे से तो मुझे देर तक याद रहेगा! :)
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याद रखना है तो बार बार दोहराएं. इससे बात दिमाग की स्थाई स्मृति में दर्ज हो जाती है. इस रटा सिद्धांत का उपयोग हर उम्र व काम के लिए किया जा सकता….करना चाहिए…गलत क्या है इसमें.
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ज्ञान जी, क्षमा करेंगे मैं आपकी बात से सहमत नहीं हूं। रट्टाफिकेशन अधिकतर लोगों के लिये ठीक होता है पर यह कह देना कि यह सारे कार्यों के उचित है, सही नहीं है। यह उन लोगों के लिये ठीक नहीं है जो कि मूल कार्य करते हैं या जीवन में कुछ नया करते हैं। अधिकतर लोगों को मूल कार्य करने की क्षमता नहीं होती – शायद यह केवल १% या फिर उससे कम लोगों में होती है। हमारी शिक्षा प्रणाली भी मूल कार्य करने को बढ़ावा नहीं देती है यही कारण है कि रट्टाफिकेशन अपने देश में सफल है यही कारण है कि अपने देश में शोद्ध ऊंचे स्तर का नहीं हैं न ही हम मूल रूप से सोच पाते हैं न ही नया कर पाते हैं। इंजीनियरिंग में खास तौर से रट्टफिकेशन का महत्व है पर विशुद्ध (pure) विज्ञान विषयों में ऊंचे स्तर का काम के लिये अनुचित है। मेरे पुत्र ने आईआईटी कानपुर से इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त की है। वह अक्सर वहां की शिक्षा प्रणाली की निन्दा करता है। शायद यह बाते भारत के सारे इंजीनियरिंग विद्यालयों में सच हो। उसके मुताबिक यहां पर पढ़ाई में वही अच्छे नम्बर ला सकता है जो रट सके पर यह कोई जरूरी नहीं कि ऐसे व्यक्ति जीवन में सफल होंगे या नाम कमायेंगे। वह अपनी बात पर बल देने के लिये वहां से निकलने वाली पत्रिका को दिखाता है। जिसमें जिन लड़कों ने प्रवेश करते समय प्रथम या द्वितीय स्थान प्राप्त किया या आईआईटी कानपुर में राष्ट्रपति के मेडल को जीता उन्हें कभी भी २५ साल बाद वहां का सर्वश्रेष्ट पुरातन क्षात्र का पुरुस्कार नहीं मिला। मेरे साथ बहुत अच्छे पढ़ने में बहुत से अच्छे लोग थे वे रट्टाफिकेसन के कारण अच्छे नम्बर लाते थे। वे सारे सिविल सर्विस के उच्च पद पर हैं पर यह कह देना कि वे सफल हैं शायद ठीक न होगा।शायद सबसे बेहतरीन छोटी विज्ञान कहानियां की पुस्तक The Nine tomorrows है जिसमें आइज़ेक एसीमोव की नौ कहानियां हैं। इसकी पहली कहानी मुझे Profession है। यह मुझे बहुत अच्छी लगती है। इसे आपने नहीं पढ़ा तो पढ़ कर देखें आपको यह सोचने पर मजबूर करेगी। हो सकता है कि आप मेरी विचारधारा के हो जायें। मैं कोशिश करूंगा कि इसकी पुस्तक समीक्षा अपने चिट्ठे पर करुं।
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