कल कुछ विष्णुकान्त शास्त्री जी की चुनी हुई रचनायें में से पढ़ा और उस पर मेरी अपनी कलम खास लिख नहीं सकी – शायद सोच लुंज-पुंज है। अन्तिम मत बना नहीं पाया हूं। पर विषय उथल-पुथल पैदा करने वाला प्रतीत होता है।
लिहाजा मैं आचार्य विष्णुकांत शास्त्री के पुस्तक के कुछ अंश उद्धृत कर रहा हूं -
पहला अंश –
…. महात्मा गांधी उस मृग मरीचिका (मुस्लिम तुष्टीकरण) में कितनी दूर तक गये थे, आज उसकी कल्पना कर के छाती दहल जाती है। महात्मा गांधी मेरे परम श्रद्धेय हैं, मैं उनको अपने महान पुरुषों में से एक मानता हूं, लेकिन आप लोगों में कितनों को मालुम है कि खिलाफत के मित्रों ने जब अफगानिस्तान के अमीर को आमंत्रित करने की योजना बनाई कि अफगानिस्तान का अमीर यहां आ कर हिन्दुस्तान पर शासन करे तो महात्मा गांधी ने उसका भी समर्थन किया। यह एक ऐसी ऐतिहासिक सच्चाई है, जिसको दबाने की चेष्ठा की जाती है, लेकिन दबाई नहीं जा सकती।
दूसरा अंश –
डा. अम्बेडकर ने उस समय कहा था कि कोई भी स्वस्थ मस्तिष्क का व्यक्ति हिन्दू-मुस्लिम एकता के नाम पर उतनी दूर तक नहीं उतर सकता जितनी दूर तक महात्मा गांधी उतर गये थे। मौलाना मुहम्मद अली को कांग्रेस का प्रधान बनाया गया, राष्ट्रपति बनाया गया। मद्रास में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था। मंच पर वन्देमातरम का गान हुआ। मौलाना मुहम्मद अली उठकर चले गये। “वन्देमातरम मुस्लिम विरोधी है, इस लिये मैं वन्देमातरम बोलने में शामिल नहीं होऊगा।” यह उस मौलाना मुहम्मद अली ने कहा जिसको महात्मा गांधी ने कांग्रेस का राष्ट्रपति बनाया। उसी मौलाना मुहम्मद अली ने कहा कि नीच से नीच, पतित से पतित मुसलमान महात्मा गांधी से मेरे लिये श्रेष्ठ है। आप कल्पना कीजिये कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के नाम पर क्या हो रहा था।
तीसरा अंश –
जो मुस्लिम नेतृत्व अपेक्षाकृत राष्ट्रीय था, अपेक्षाकृत आधुनिक था, उसकी महात्मा गांधी ने उपेक्षा की। आम लोगों को यह मालूम होना चाहिये कि बैरिस्टर जिन्ना एक समय के बहुत बड़े राष्ट्रवादी मुसलमान थे। वे लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के सहयोगी थे और उन्होंने खिलाफत आन्दोलन का विरोध किया था परन्तु मौलाना मुहम्मद अली, शौकत अली जैसे कट्टर, बिल्कुल दकियानूसी नेताओं को महात्मा गांधी के द्वारा ऊपर खड़ा कर दिया गया एवं जिन्ना को और ऐसे ही दूसरे नेताओं को पीछे कर दिया गया।
बापू मेरे लिये महान हैं और देवतुल्य। और कोई छोटे-मोटे देवता नहीं, ईश्वरीय। पर हिंदू धर्म में यही बड़ाई है कि आप देवता को भी प्रश्न कर सकते हैं। ईश्वर के प्रति भी शंका रख कर ईश्वर को बेहतर उद्घाटित कर सकते हैं।
बापू के बारे में यह कुछ समझ नहीं आता। उनके बहुत से कार्य सामान्य बुद्धि की पकड़ में नहीं आते।
पुस्तक : “विष्णुकान्त शास्त्री – चुनी हुई रचनायें”; खण्ड – २। पृष्ठ ३२४-३२५। प्रकाशक – श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय, कोलकाता।

ऊपर धीरू सिंह जी और विवेक जी ने सब कुछ कह दिया
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आचार्य विष्णकांत शास्त्री देश के महान विचारको में से एक रहे है। गांधी विषयक चर्चा होना आवाश्यक है, आज के दौर हम जब कानून बदल गया है कि लड़की/लड़का अपनी मर्जी से शादी कर सकता है तो हम गांधी ”देश का पापा” आँखे मूँद कर क्यो माने। गांधी के कृत्यो की समीक्षा आवाश्यक है।
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गाँधीजी की सभा में मुस्लिम आते थे, मगर अंत में रघुपति राघव…शुरू होने से पहले उठ कर चले जाते थे. इस बात से कोई इनकार करे तो वह झूठ बोलता है और नारायण भाई जैसे सच्चे गाँधीवादी जो झूठ नहीं बोल सकते वे इस बात का जिक्र करेंगे नहीं. मैंने चश्मा लगा कर ही इतिहास पढ़ा है. भारत नाम का चश्मा.
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इंसान एक चश्मे हजार टिप्पणियों से जाहिर होता है किसके पास कैसा चश्मा है खाकिर हमर भी चश्मा नोटिस करें!१९२२ में तो खैर आजादी की सोचना अभी दूर था कोई एक नेता १९४७ में किसी और देश के शासक के हाथ में भारत का नेतृत्व देने का पक्षधर था जो हमारे चश्मे का नंबर जान सकें उन्हें पता होगा इशारा किसकी ओर है वैसे चश्मा हटा देन तो विवेक भाई की बात का समर्थन हम भी करते हैं
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निश्चित रूप से गांधीजी महान व्यक्तित्व थे,परन्तु उनके कुछ कार्य व्यवहार ऐसे अवश्य थे जिन्हें किसी कीमत पर सही नही कहा जा सकता.क्योंकि उनके दूरगामी प्रभाव ऐसे निकले जिसने आज भी दो देशों को अस्थिर किया हुआ है और आज हम इस त्रासदी को झेलने को विवश हैं…बहुत से लोग विष्णुकांत जी को हिंदूवादी/संघवादी मान उनकी बातों को खारिज कर सकते हैं,पर इससे इनकार नही किया जा सकता की यदि उन्होंने नेहरू मोह छोड़ दिया होता तो आज हिन्दुस्तान पकिस्तान अलग न होते और यूँ दोनों में हरवक्त ठनी न होती. आख़िर क्या फर्क पड़ जाता अगर जिन्ना को ही प्रधान मंत्री बना दिया जाता.वस्तुतः मोतीलाल नेहरू के आर्थिक सहयोग का प्रतिदान (जवाहरलाल नेहरू को प्रधानमंत्री बनाकर )चुकाने की तीव्र लालसा ने गांधीजी को देशहित के लिए सोचने नही दिया.
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श्री विष्णुकांत शास्त्री के विचार जानकर अच्छा लगा। मैंने उनके केवल व्याख्यान और आध्यात्मिक प्रवचन पढे हैं। वे नीर-क्षीर-विवेक आलोचना करते थे। उनके मन में राग-द्वेष के लिए कोई स्थान नहीं था। उनको पढना एक अदभुत आनंद को प्राप्त करना हैं।
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शास्त्रीजी ने जो कहा है वह एक ऐतिहासिक सच्चाई है. आँखे चुराने से क्या होगा? गाँधीजी महानतम नेता थे. मगर उनके प्रति अहोभाव क्यों? गाँधीजी से शुरू हुआ तुष्टिकरण आज और भी आगे निकल गया है. देश ने भुगता है, देश भुगतेगा. आपको (यहाँ हर एक को) कट्टरपंथी कहलवाने की परवाह किये बीना इसका विरोध करना चाहिए. देश से बड़ा कोई नहीं. यहाँ शास्त्रीजी को चश्मा लगा बता कर गाँधीजी की भूल से नजरे फेरने की कोशिश की है. तो क्या जिस चश्मे को पहरने की बात की है वह चश्मा पहने कोई व्यक्ति जिन्ना की प्रशंसा कर सकता है?
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विवेक सिंह और प्रवीण शर्मा की बातों से पूरी तरह सहमत।
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गाँधीजी महान थे।इसमें कोई संदेह नहीं।महापुरुष भी गलती करते हैं लेकिन जानबूझकर नहीं।
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विवेक जी और प्रवीण जी बातों से पूर्ण सहमति।
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