धनबाद से सड़क मार्ग से चास-बोकारो जाते सड़क पर मैने चालीस पचास लोग साइकल पर कोयला ढोते देखा। ये लोग महुदा मोड़ से दिखना प्रारम्भ हो गये थे। हर साइकल पर तीन-चार क्विण्टल कोयला लदा रहा होगा। अवैध कोयला खनन का यह कोयला बाजार और छोटी फैक्टरियों में जाता है।
कत्रासगढ़ के पास कोयला खदान से अवैध कोयला उठाते हैं ये लोग। सीसीएल के स्टाफ को कार्ड पर कोयला घरेलू प्रयोग के लिये मिलता है। कुछ उसका अंश होता है। इसके अलावा कुछ कोयला सिक्यूरिटी फोर्स वाले को दूसरी तरफ झांकने का शुल्क अदाकर अवैध खनन से निकाला जाता है। निकालने के बाद यह कोयला खुले में जला कर उसका धुआं करने का तत्व निकाला जाता है। उसके बाद बचने वाले “फोड़” को बेचने निकलते हैं ये लोग। निकालने/फोड़ बनाने वाले ही रातोंरात कत्रास से चास/बोकारो (३३-३४ किलोमीटर) तक साइकल पर ढो कर लाते हैं। एक साइकल के माल पर ४००-५०० रुपया कमाते होंगे ये बन्दे। उसमें से पुलीस का भी हिस्सा होता होगा।
कवि चच्चा बनारसी बेकार ही नहीं कहते – देस जरे कि बुताये पिया, हरसाये हिया तुम होऊ दरोगा! कोयला से त जरबै करे देस! और दरोगाइन तो तब्बौ तरावट में ही रहेंगी! ये बेचारे अवैध कोयला ढोने वाले तो फिर भी चोरकट ही माने जायेंगे। और दुर्घटनाओं में मरेंगे भी यही।
मैं यह सूचनायें कार के चालक भोला और विवेक के चपरासी कम असिस्टेण्ट पिण्टू से ले रहा था और मेरी पत्नीजी मेरे द्वारा उनके रास्ते में लिये जा रहे “इण्टरव्यू” पर कुढ़ सी रही थीं। ब्लॉगरी यही पर्सोना बदलती है – यह आपको जिज्ञासु बनाती है। आपको पोस्ट जो ठेलनी होती है! अगर मैं ब्लॉग न लिख रहा होता तो इस जगह से बारबार गुजर जाता – बिना कुछ जाने/पता किये।
हिन्दी तो मती सिखाओ जी पर लौटानी:
पावरप्वॉइण्ट के अंग्रेजी या हिन्दी में होने का मुद्दा कोई बड़ी बात नहीं है। बात हिन्दी के नाम पर “अपर हैण्ड” रखने और मीन-मेख निकालने की वृत्ति की है।
हिन्दी साहित्य के “एलीट” की बात मैं नहीं कर रहा था। बात अफसरी के अंग्रेजीदां अभिजात्य की भी नहीं कर रहा – मैं उसका अंग नहीं हूं! ये दोनो वर्ग अधिकांश आम जन से नहीं जुड़े तो इस हिन्दी-ब्लॉग से क्या जुड़ेंगे। (अभिजात्यता तो अपने को शिखर पर रखती है, मिक्स-अप होने का खतरा नहीं लेती।) बात हिन्दी का एनविल (anvil – कूट या बेस) ले कर की जा रही ब्लॉगिंग की है।
आप में से बहुतों ने प्रवीण पाण्डेय की टिप्पणी नहीं पढ़ी होगी। आप से अनुरोध है कि वह पढ़ें। और वहां वापस न जाना चाहें तो यह अंश देखें:
… एसएमएस व ईमेल में हम हिन्दीप्रेमी कई वर्षों तक हिन्दी रोमन वर्तनी में लिखकर अपना प्रेम दिखाते रहे। अभी सारे मोबाइल हिन्दी को सपोर्ट नहीं करते हैं अतः देवनागरी में संदेश भेजने से उसका ब्लाक्स के रूप में दिखने का खतरा बढ़ जाता है।
अभी तक के लेख में अंग्रेजी के कई शब्द ऐसे थे जिनका चाह कर भी हिन्दी अनुवाद नहीं कर पाया। यही संकट शायद हमारे अन्दर का भी है। अति टेक्निकल क्षेत्र में यदि अंग्रेजी के शब्दों को यथावत देवनागरी में लिखूँ तो वह कईयों को अपराध लगेगा पर विचारों को लिखना तो पड़ेगा ही।
शायद यही कारण रहा होगा अंग्रेजी में पावर प्वाइण्ट देने का। उसमें भी यदि किसी को मीन मेख निकालने का उत्साह हो तो उसे और भी उत्साह दिखाना होगा उन ब्लागरों को नमन करने के लिये जो इण्टरनेट को अपनी मेहनत के हल से जोत कर हिन्दी उत्थान में एक नया अध्याय लिख रहे हैं।
जनता इण्टरनेट और ब्लाग की है और जिस भाषा का प्रयोग विचारों के सम्प्रेषण के लिये आवश्यक हो, समुचित उपयोग करें और उससे सबको लाभान्वित होने दें। जैसे भारतीय संस्कृति ने कईयों को अपने हृदय में धारण कर लिया है उसी प्रकार हिन्दी भी इतनी अक्षम नहीं है कि कुछ अंग्रेजी के शब्दों से अपना अस्तित्व खो देगी । मेरा यह विश्वास है कि इन्टरनेट में हिन्दी के स्वरूप में संवर्धन ही होगा।
(तुलसीदास को बहुत गरियाया गया था संस्कृत छोड़कर अवधी में लिखने के लिये। जनता की भाषा क्या है, हर घर में रखी रामचरितमानस इसका उत्तर है।)
आप सहमत हों या नहीं, प्रवीण जी की स्तरीय टिप्पणी की प्रशंसा तो बनती ही है!



पर्सोना बदल ही रहा है अभी तक! सही है। कोयले की फ़ुटकर चोरी से भी परिचित करा दिये। हिंदी के बारे में बहुत कुछ लिख गया अब और का लिखें! :)
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प्रवीण जी की टिप्पणी निश्चित स्तरीय है, यह हमने तब भी कहा था, जब वो टिपियाये थे. :)आश्चर्य यह है कि इस बार आपने सारे केल्कूलेशन के बाद भी लोगों को देख फूटा बेचने की नहीं ठानी..नौकरी से रिटायरमेन्ट पर/// शायद वो बेल बेचने वाला बूढा अभी भी हाबी है.
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आपका भी मानसिक हलचल दन से कहाँ से कहाँ पहुँच जाती है -कोयला से हा हिन्दी तक ! मुद्दे दोनों ही गंभीर हैं ! और दोनों की ही “दलाली ” में हाथ काले ( अपयश ) होने ही हैं !
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.. और प्रवीण पांडेयजी की टिप्पणी सही लगी .. बहुत प्रोग्रामों में हिन्दी लिखने की असुविधा भी हमें अंग्रेजी लिखने को मजबूर करती है।
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चोरी के कोयले ढोने के बावजूद इतनी मेहनत कर ये मजदूरी से खास अधिक नहीं कमा पाते .. फिर भी लगे हुए हैं .. जबकि इस क्षेत्र के कोयला माफिया की रईसी की तो पूछे ही मत।
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जिस देश में सांसद चोरी कर रहे हों और उच्चतम व निम्नतम आय में लाखों गुना का अंतर हो वहाँ इस तरह की चोरियों को अनैतिकता की श्रेणी में रखें तो भी उस का क्रम बहुत नीचे आएगा।प्रवीण की बात सही है। लोग व्यर्थ ही तकनीकी शब्दों के लिए नए शब्द गढ़ने और फिर उन्हें प्रचलित बनाने की मशक्कत कर रहे हैं। सायकिल और रेल क्या हिन्दी के शब्द हैं। लोग ऐसे शब्दों को स्वतः ही अपना लेती है। निर्मित शब्द शब्द कोषों में बन्द रह जाते है। जिसे आगे बढ़ना है वह बढ़ जाता है।
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हमने तो सुन रखा है कि कोयला खनन का पूरा उद्योग ही माफ़िया और ठेकेदारों के हाथ में है। लूट खसोट के उन पहाड़ों की तुलना में ये साइकिल छाप कंकड़-पत्थर भला क्या चुरा पाएंगे? आपने इनकी जो प्रोफाइल दिखायी है उससे तो इनपर तरस ही आती है। बेचारे…।
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विण्डोस विस्टा के अधिकृत साफ्टवेयर में हिन्दी का पूरा प्रबन्ध है। एक दिन एम.एस.वर्ड़ को, हिन्दी इंटरफेस पर क्रियाशील करनें के बाद जो दुर्गति हुई थी दिल ही जानता है। हिन्दी के निर्दशक (commands) को झेलना बहुत उबाऊ लगा। तात्पर्य यह कि क्या शुद्ध हिन्दी या हिन्दुस्तानी में तकनीक का प्रयोग सहज है। मुझे लगता है कि धीरे-धीरे ही हम अभ्यस्त हो पाएँगे। यह तकनीकी के बदलाव का संक्रमण काल है। आपको और आपके आलेख के कुछ शब्दों से आहत लोगों को इस विवाद को यहीं विराम देंना चाहिये। वस्तुतः भाषा जातीय स्वाभिमान से गहरा समबन्ध रखती है यह समझनें की बात है। वैसे, जैसे ब्लाग को चिट्ठा कहा जानें लगा है, पावर प्वाइंट को ‘शक्तिमान’ कहनें लगिये क्या फर्क पड़ता है।जहाँ तक कोयला चोरी की बात है गरीब को नज़रंदाज कर देना चाहिये क्योंकि सूरजदेव सिंह जैसे कोलमाफिया तो अब नेता होते हैं जिनका आप कुछ नहीं कर सकते। कोयला चोरी करानें में रेलवे का बहुत बड़ा योगदान रहा है। अभी भी जहाँ कोयले से रेल चल रही है वहाँ आउटर से पहले गाड़ी खड़ी कर कोयला गिराना खूब होता है।
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बहुत काम के साथ शान की सवारी है सायकिल, एक चल के तो देखिये मजा आ जायेगा।
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जहाँ बात बात पर कुछ ना कुछ जुगाड हो जाये वह भारत देश है मेरा !यहाँ कोयला बिकते देखा हाये रे ! क्या कहेँ ~~प्रवीण भाई की टीप्पणी बढिया लगी थी और है भी – – लावण्या
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