पिछली पर्यावरण वाली पोस्ट – "सादा जीवन और गर्म होती धरती" में मैने आशंका जताई थी कि अमरीकी स्तर का विकास और मध्य वर्ग में उपभोक्ता बनने की ललक पर्यावरण की समस्यायें पैदा कर देगी। यह कहना, अमेरिकन मानस को गैर जिम्मेदार बताना नहीं था। यह केवल स्पष्ट करना था कि पूरा विश्व विकसित हो कर अमरीका नहीं बन सकता। अगर बना तो ऊर्जा और पर्यावरण के गम्भीर संकट खड़े हो जायेंगे, जो खड़े भी होने लगे हैं।
दुनियां भर के शहर अमरीकन एफ्लुयेंजा (affluenza – सम्पन्नता का रोग) से ग्रसित हो रहे हैं, और यह सबसे बड़ा संक्रामक रोग है। यह थॉमस फ्रीडमान का कथन है।
आज के दिन में दो अमरीका हैं – एक उत्तर-अमरीका में और एक योरोप में। विकसित देशों में नये अमेरिका खड़े हो रहे हैं। अगले बीस साल में ८ अमेरिका हो जायेंगे।
“कोई देश अपनी विकास की मशीन बन्द नहीं कर सकता – यह पोलिटिकल आत्महत्या होगी। चुंकि कोई अकेला आत्महत्या नहीं करना चाहता, सब मिल कर सामुहिक आत्महत्या को तैयार हैं।” – नन्दन नीलेकनी।
प्रति व्यक्ति उपभोग की दर अगर कीनिया में १ है तो चीन में ३ और अमेरिका में ३२। जब चीन और भारत और मध्य पूर्व और ये और वो भी ३२ के उपभोक्ता स्तर आ जायेंगे तो ऊर्जा का प्रयोग कितना हो जायेगा?! और सारा CO2 उत्सर्जन – जो वातावरण में इस समय २८० पीपीएम से बढ़ कर ३८४ पर है, कहां जा कर रुकेगा?
भारत में अभी असुर की तरह ईंधन खाने वाली बड़ी कारें, व्यापक वातानुकूलन, भोजन में शाकाहार की बजाय मांस का अधिकाधिक प्रयोग (जिससे अन्न उपजाने की जरूरत कई गुना बढ़ जायेगी) और राज्य द्वारा सोशल सिक्यूरिटी देने के खर्चे जैसी चीजें नहीं हैं। पर यह सब आने वाला है।
अमेरिका की सम्पन्नता धरती झेल पाई। पर उस सम्पन्नता को पूरी धरती पर फैलाना (भले ही लोगों मे अमेरिका के स्तर की उद्यमिता और वातावरण के प्रति सेंसिटिविटी हो जाये), बिना विकास के मॉडल में बदलाव के करना सामुहिक आत्महत्या होगा!
ओह! हिन्दी में पर्यावरण को समर्पित एक ब्लॉग क्यों नहीं है? वैसे पाठक रिस्पॉन्स को देखते हुये कह सकते हैं कि यह विषय बड़ा बोरिंग (उबासी
) सा लगता है हिन्दी पाठक को!

) सा लगता है हिन्दी पाठक को!
समस्या यही है कि यदि सभी अमेरिकन होना चाहेंगे तो ऊर्जा, शहर इत्यादि की अपार आवश्यकता पड़ेगी साथ ही साथ पर्यावरण की हवा निकल जायेगी । सभी पुस्तक अवश्य पढ़ें, आँखें खुली रह जायेंगी । भारतीय अमेरिकनों से हमारी संस्कृति का जो होगा वह दिखायी ही पड़ रहा है, प्रकृति का जो होगा वह देखने के लिये शेष न बचेंगे सब ।
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आपका चिंतन सही है ,एक ज्वलंत मुद्दे पर आप ने पुनः ध्यान आक्रिस्ट किया है .समस्या यह है की इन विषयों पर या खास तौर पर इस विषय पर लोंगों में अभी भी बहुत उदासीनता है ,लोग पता नहीं कब चेतेंगे ,संभवतः तब जब बहुत देर हो जाये . हमारी आबादी के अन्पुपात में कुछ चंद लोग ही इस विषय पर चिंतन शील हैं जो कि भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है .
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नंदन नीलकेनी का कथन सत्य से मुँह चुराता दिख रहा है। जिस हाराकिरी की वह बात कर रहे हैं उसमें यह स्वीकारोक्ति है कि कुछ गलत अवश्य हो रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि यह अव्यवस्था जिन्होंने उत्पन्न की है चाहे वह अर्थ जगत के लोग हों या विज्ञान के, हाराकिरी वह नहीं करनें जा रहे। हाराकिरी के लिए तैयार रहनें के लिए, आने वाली उस पीढ़ी से कहा जा रहा है जो भविष्य में जन्म लेनें वाली है। माँ-बाप के पापों का फल संतानों को भुगतना पड़्ता है, क्या यह कहावत सिद्ध होंने जा रही है?
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खुद से पार पाये तो पर्यावरण की सो्चे.. हम अपने में इतने व्यस्त है कि खबर नहीं कितनी co2 छोडॆ जा रहे हैं.. वैसे ज्ञान जी मैं अपने आस पास एक सुक्ष्म परिवर्तन महसुस कर रहा हूँ इन दिनों… लोग सोचने लगे है… जागरुक हो रहे हैं..बच्चों को इस बारें में सिखाना समझाना बहुत जरुरी है.. अगर हम स्कुल में (घर से उम्मीद नहीं, अगर घर वालों को पता होता तो समस्या ही क्या थी) ये समझा पाये तो अगले १०-२० सालों में जो पीढ़ी आयेगी वो unaware नहीं होगी… मैं देखता हूँ अपनी बिल्ड़ीग में बच्चे लिफ्ट के बटन दबा कर उसे उपर निचे भेजने का खेल करते है.. उन्हे शायद नहीं पता कि अन्जाने में वो कितना नुकसान पहुँचा रहे है.. ऐसी छोटी छोटी बातें ही अगर सीखा दी जाये तो बहुत बड़ी उपलब्धी होगी..
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अमरीकी सभ्यता युरोपिय नस्ल के लोगोँ से बसायी हुई होने के साथ युरोप के सँस्कार त्याग कर अपनी अलग पह्चान बना कर सामाजिक एक्सपेरिमेन्ट और गलतिया करते हुए यहाँ आ पहुचा है जहाँ से चीन के सर्वाधिक शक्तिशली पद पर आसीन होने से आतँकित है पर भारतीय सभ्यता मेँ ऐसा तत्त्व है जो शाश्वत है – गँगा जी बहती रहेँ – जब तक मैँ न दर्शन कर लूँ :) – और सदा सदा के लिये – यही शुभेच्छा है ………— लावण्या
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अमेरिकन माडल इतना ग्लेमर में डूबा है कि कई सभ्यताएं नष्ट और भ्रष्ट हो रही है इसे अपना कर . और यह खुद भी
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@ पर्यावरण – यह विषय बड़ा बोरिंग (उबासी ) सा लगता हैमेरा तो मानना है कि यह बहुत मौजूं किस्म का विषय है। पर्यावरण के नाम पर गोष्ठीयाँ आयोजित होती हैं, बडे बडे विद्वान बडी बडी बातें करते हैं, वक्तागणों के आने जाने पर हजारों रूपये के पेट्रोल फूंके जाते है, बिसलेरी की बोतलें खोली जाती है ( बोतलों में पानी ही हो, यह जरूरी नहीं….अंगुर का रिश्तेदार भी हो सकता है ) , हरे भरे बगिया के ताजा ताजा हार पहनाये जाते है, फूल पत्तियों से गेट सजाये जाते हैं, प्लास्टिक कोटेड कागज की प्लेंटें रखी जाती है, उनमें समोसे रखे जाते हैं….. समोसे धन्नूराम के यहां से आते हैं – प्लास्टिक की बडी बडी थैलियों मे….इतनी बडी की आदमी को अंदर बिठा कर लाया जा सके…..और जब सब खा पीकर पर्यावरण पर बोल बाल कर मुंह पोंछते चल देते हैं तो पीछे रह जाती है वहां पर प्लास्टिक कोटेड पेपर प्लेट, प्लास्टिक गिलास, बिसलेरी बोतले, और समोसे वाली थैली :) अब पर्यावरण के नाम पर इससे ज्यादा मौजूं दृश्य की कल्पना करना दुर्लभ है :)
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अमेरिका की संपन्नता को अगर जनरल मोटर्स के दिवालिया होने से जोड़ कर देखें तो ..?? पर्यावरण के बारे में लोगों की सोच कुछ इस तरह की है .. मस्त रहो मस्ती में आग लगे चाहे बस्ती में .. उनका मकान बस्ती के आखिरी कोने में है .. आग पहुँचने में अभी देर है..
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पर्यावरण चिंतन जायज है आपका ! गंगा रह जायेगीं -मेरी एक विज्ञान कथा कहती है -पर कैसे वह आपको कहानी में मिलेगा ! पर वह कहानी क्रौंच वध में न होकर कहीं और है !
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हर एक पंक्ति वस्तुतः खड़ी है । सच है कि "अमेरिका की सम्पन्नता धरती झेल पाई। पर उस सम्पन्नता को पूरी धरती पर फैलाना (भले ही लोगों मे अमेरिका के स्तर की उद्यमिता और वातावरण के प्रति सेंसिटिविटी हो जाये), बिना विकास के मॉडल में बदलाव के करना सामुहिक आत्महत्या होगा!" धन्यवाद ।
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