अरुण अरोड़ा ने एक मक्खी-मारक प्रोग्राम का लिंक दिया। आप भी ट्राई करें।
मैं सामान्यत: अंगूठा चूसा (पढ़ें सॉलिटायर खेलना) करता था। पर यह ट्राई किया तो बहुत देर तक एक भी मक्खी न मरी। फिर फ्लाई स्वेटर का एंगल सेट हो गया तो मरने लगीं। कई मक्खियां मार पाया। अन्तत: मक्खी मारने की हिंसाबात ने इस प्रोग्राम पर जाना रोका।
लेकिन यह लगा कि यह चिरकुट इण्टरनेट-गेम पोस्ट ठेलक तो हो ही सकता है।
आप जब मक्खी मारते हैं तो एक ऐसे वर्ग की कल्पना करते हैं, जो आपको अप्रिय हो। और एक मक्खी मारने पर लगता है कि एक *** को ढ़ेर कर दिया।
उस दिन मैं एक महिला पत्रकार की पोस्ट पढ़ रहा था। भारत की नौकरशाही सबसे भ्रष्ट! इस महावाक्य से कोई असहमति जता नहीं सकता। अब किसी जागरूक पत्रकार को यह मक्खी-मारक खेल खेलना हो इण्टरनेट पर तो मक्खी = नौकरशाह होगा। तीस मारते ही सेंस ऑफ सेटिस्फेक्शन आयेगा कि बड़े *** (नौकरशाहों) को मार लिया।
आप अगर किसी बिरादरी के प्रति खुन्दकीयता पर अपनी ऊर्जा न्योछावर करना चाहते हैं तो यह मक्खी मारक प्रोग्राम आपके बड़े काम का है। मैं यह इस लिये कह रहा हूं कि यह हिन्दी ब्लॉगजगत इस तरह की खुन्दकीयता का बहुत बड़ा डिसीपेटर है। यह बहुत से लोगों को लूनॉटिक बनने से बचा रहा है और बहुत से लूनॉटिक्स को चिन्हित करने में मदद कर रहा है।
अत: आप बस डिफाइन कर लें कि *** कौन जाति/वर्ग/समूह है, जिसपर आप वास्तविक जगत में ढेला नहीं चला सकते पर वर्चुअल जगत में ढेले से मारना चाहते हैं। और फिर हचक कर यह खेल खेलें। बस किसी व्यक्ति या जीव विशेष को आप *** नहीं बना सकते। आपको कई मक्खियां मारनी हैं। मसलन मैं *** को फुरसतिया, आलोक पुराणिक या समीरलाल डिफाइन नहीं कर सकता! ये एक व्यक्ति हैं, वर्ग नहीं। और इनके प्रति वर्चुअल नहीं, व्यक्तिगत स्नेह है।
मक्खियां = नौकरशाह/पत्रकार/वकील/ब्लॉगर/हिन्दी ब्लॉगर/चिरकुट ब्लॉगर — कुछ भी सेट कर लें।
आप किसे सेट करने जा रहे हैं?

आपने किसको मारा? वैसे आजकल ओफ़िसो मे punchbags होते है जो stress-buster का काम करते है॥ आपको किसी पर गुस्सा आ रहा है, तो बस कल्पना किजिये और दीजिए दन-दना-दन…..
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अपने को यह खेल पसंद नहीं आया, मक्खी मारने में मज़ा नहीं और यह समझ ही नहीं आया कि मक्खियों के रूप में किनको देखें! :D
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मख्खी मारना तो आदिकाल से चला आ रहा मुहावरा है, जिसका आज नही कोई तोड़ नहीं, तभी तो जनाब ओबामा भी एक मख्खी मार कर खुद की मर्दानगी दिखा ही गए………………..सुन्दर सकारात्मक व्यंगात्मक लेख पर हार्दिक आभार.चन्द्र मोहन गुप्त
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आप Minesweeper खेलिए (अगर आप अभी न खेलते हों तो) – आपको जरूर पसंद आएगा!
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मख्खी मारने का भी वक्त निकाल लिया? वाह , स्कोर कितना हुआ
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आगे पढना छोडकर मक्खी मारने चला गया थापूरी तीस मारकर आया हुं।नमस्कार
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सुझाव दो हैं,१. मक्खी मारक प्रोग्राम की बजाय ’पंचिग बैग’ को प्राथमिकता देनी चाहिये । इस बारे में मैं रंजन जी से सहमत हूँ ।२. खुन्दक को वर्ग विशेष से संकुचित कर व्यक्ति विशेष के स्तर पर ले आना चाहिये । कारण निम्न हैं,१. आहत तो व्यक्ति ही करते हैं वर्ग नहीं । प्रयास कर वर्गीय खुन्दक का कारण खोजते खोजते व्यक्ति विशेष पर लायें । आप यदि अधिक प्रबुद्ध हैं तो वस्तु विशेष पर भी ला सकते हैं । इससे मानसिक प्रदूषण व विचारों के बहकने की सम्भावना कम होती है ।२. ’पंचिग बैग’ पर एक निश्चित चित्र लगाया जा सकता है । ’पंचिग बैग’ में भी वर्ग विशेष का चित्र कैसे बनायेंगे ? ३. एक वर्ग विशेष को मक्खी में रूप में देख पाने की कल्पनाशीलता होती तो गीता ज्ञान का आवाह्न कर खुन्दकीय मानसिकता से ऊपर उठ गये होते ।४. यथार्थ के आसपास रहने के लिये और अधिक क्रोध शान्त करने के लिये ’पंचिग बैग’ को जब चाहे तब पिटाई कर सकते हैं । खुन्दकीय पीड़ा के शान्त करने के लिये पिटाई करने से अधिक सन्तोषप्रद यज्ञ नहीं है ।५. यदि इण्टरनेट नहीं आ रहा है तो क्या आप अन्दर का उमड़ता क्रोध का गुबार जब्त कर लेंगे ? तो ऐसे आलम्बन क्यों रखे जायें ।६. ’पंचिग बैग’ के माध्यम से व्यायाम भी होगा । शरीर की थकान से आपको नींद जल्दी आयेगी और दुःस्वप्न भी नहीं आयेंगे ।७. ’वर्चुअल जीव हत्या’ न करने कारण ’वर्चुअल मनेका गाँधी’ का भी भय नहीं रहेगा । आपने इस पोस्ट के बहाने ’स्ट्रेस मैनेजमेन्ट’ एक नयी चर्चा खोल दी है । सब कुछ पूर्व व्यवस्थित और क्रमवार तरीके से चल रहा है ।
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यह तो विचित्र किन्तु सत्य पोस्ट है , अपना लक्ष्य वर्ग निश्चित करिये और माखी समझ के मारिये .वाह -मजेदार -कठिन और उत्क्रिस्ट .
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मजेदार प्रविष्टि । रोचकता और मारक अभिव्यक्ति दोनों का मिला जुला स्वरूप । बेमतलब की बात पर मतलब की पोस्ट । धन्यवाद ।
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हम हिंसाबात नही करेंगे जी।
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