उपेक्षाभाव से मैं यह भी लिख सकता था – डिसिप्लिनाचार्यों का वीपन! डिसिप्लिन (decipline) और वीप (weep) अंग्रेजी से और शब्दविन्यास हिन्दी से लेते हुये। पर शायद वह संप्रेषण में ज्यादा अटपटा हो जाता। लेकिन, मान्यवर, वह होता मूल भावना के ज्यादा करीब।
हिन्दी में इतने साल में थोड़े से ब्लॉग बने हैं। वो भी धकेल-धकाल कर चलते हैं। पाठक हैं नहीं। आपस में ही टिपेर-टिपेर कर काम चला रहे हैं। पर भाषाई मानकीकरण की झण्डाबरदारी घणी कर लेते हैं सुधीजन!
ब्लॉगर यहां प्रयोग करने बैठा है। अगर मैं कागज पर छपने वाला साहित्यकार होता तो यह ब्लॉग न लिखता। तब मैं अपनी रचना/कर्म क्षेत्र से इतर कुछ और करता। शायद कुम्हार से चाक चलाना सीख कुछ पॉटरी बनाता। अभी तो मेरे लिये मालगाड़ी परिचालन से रिलीज का मध्यम है ब्लॉग।
लिहाजा हमसे लेक्सिकॉन या ग्रामर के अनुशासन की अपेक्षा करना ज्यादती है। पाणिनी की विरासत के लिये अन्य विद्वत लोगों की पूरी जमात है। वे भाषा के मानक के सलीब ढोयेंगे।
एक शिशु नये शब्द सीखता है। उस प्रक्रिया में नये स्वर/बोली/शब्द घड़ता है। मां-बाप ताली बजा प्रमुदित होते हैं। पर यही बालक थोड़ा बड़ा होता है तो उसपर भाषा/मातृभाषा के अनुशासन को लादना चालू कर देते हैं। उसकी सारी रचनाधर्मिता हर लेते हैं। सरकारी बाबू बनाने लायक अनुशासन चलाते हैं और विलाप करते हैं कि वह आइंस्टीन क्यौं न बना!
अपनी लेखनी तो किर्रू लेवल की है। पर ई-स्वामी (क्या नाम है जी इनका?) ने मस्त पोस्ट लिखी है: सहित्य वो बासी चिठ्ठा है जो कागज पर प्रकाशित किया जाता है। आप तो वहीं पढ़िये। बाकी राम राम।
कहां जा रहे हैं? टिप्पणी ठेलते जाइये!

हम तो मटके देखकर ठंडा पानी पीने चले आये थे, लेकिन मटकों का तो जिक्र (उल्लेख) ही नहीं हुआ| अगर ब्लागलेखन विषय आधारित न हो तो माइक्रोवेवीय ही होता है, दो ठो चित्र चेंपे, १ गाना सुनवाया दो शायरी लिखी और बन गयी एक पोस्ट| सबकी अपनी मजबूरियाँ हैं और शौक हैं, इसीलिये तो हम ब्लॉग माध्यम को एकदम खुल्ला खुल्ला रखना चाहते हैं| जिसको जो लिखना है लिखे, जिसको जो पढना हो पढ़े,सविताभाभी से लेकर मैथली शरण गुप्त की कविताओं सरीखा सब कुछ होना चाहिए, जिसे जो चुनना होगा चुन लेगा| नियम थोपकर आप इस माध्यम का कुछ भला नहीं कर सकते|
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थोक के भाव से टिप्पडी ठेल देते हैं टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी टिप्पडी वीनस केसरी
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डिसिप्लिनाचार्यों , एक और नए शब्द का आविष्कार . कृपया अपने द्वारा रचित शब्दों की सूचि बनाये और प्रकाशित करे हम लोगो के लिए . खासकर हम यूपोरियन को
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धन्यवाद! :)बालसुब्रमण्यम जी से सहमत. नये शब्द गढना चाहिये लेकिन मात्र नये शब्द गढने के लिये नहीं, उतना ही जिम्मा उचित पुराने शब्दों को दोबारा प्रयोग करना शुरु करने का भी है. अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद के समय, कई बार जो शब्द अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश में नही मिलते वे अंग्रेजी-संस्कृत शब्दकोश में मिल जाते हैं. चूंकि लोग अंग्रेजी से चक्कर में संस्कृत से विमुख हुए, पठन-पाठन से विमुख हुए कई ऐसे शब्द जो बहुत सटीक थे उनसे भी विमुख हो बैठे उन्हें उर्दू से उठाने लगे, फ़ारसी से उठाने लगे – इन भाषाओं से भी प्रेम है, एक प्रक्रिया का जिक्र मात्र कर रहा हूं.
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मैं तो मध्यमार्गी बनना चाहूंगा।
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विद्वान पुरूष जिंदगी भर सीखता है।-Zakir Ali ‘Rajnish’ { Secretary-TSALIIM & SBAI }
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शब्दार्थ बताने के लिए धन्यवाद ज्ञान जी। :)
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@ अमित जी –किर्रू शब्द मनोहरश्याम जोशी जी की पुस्तक कक्काजी कहिन में आया है। उसका ब्लॉगीय समानार्थी शब्द होगा – चिरकुट!
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हिन्दी को कोई कितना ही टंबा (इस डोगरी शब्द का हिंदी समानार्थी सूझ नहीं रहा है, अंग्रेज़ी= support) लगा ले कुछ नहीं होने वाला. आम लोग जैसा चाहेंगे इसे वैसे ही बोलेंगे और, लिखेंगे भी. भाषाओं के अलमबरदारों के चलते आज तक कोई फ़र्क़ पड़ा है कभी (!) अलबत्ता इसी के सहारे उनका हुक्का-पानी और चूल्हा-चौका चलता रहता है. मैं तो उन्हें उनके हाल पर ही छोड़ देता आया हूं.लो जी, एक ताज़ा इलेक्ट्रानिक टिप्पणी (पेपर पर बासी हो जाती):-)
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आजकल डिसिप्लिनाचार्यों की विपन्नता है क्योंकि छडी हाथ में लेना प्रोहिबिटेड माना जाता है। ऐसे में आप निर्भीक होकर अडिसिप्लिन फ़ालो करें…कोई डर नहीं, स्वस्थ होगा हिंदुस्तान:)
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