कई दशकों पुराने रीडर्स डाइजेस्ट के अंक पड़े हैं मेरे पास। अभी भी बहुत आकर्षण है इस पत्रिका का। कुछ दिन पहले इसका नया कलेक्टर्स एडीशन आया था। पचहत्तर रुपये का। उसे खरीदने को पैसे निकालते कोई कष्ट नहीं हुआ। यह पत्रिका सन १९२२ के फरवरी महीने (८८ साल पहले) से निकल रही है।
मैं लम्बा चलने वाले ब्लॉग की कल्पना करता हूं तो मुझे रीडर्स डाइजेस्ट के तत्व जरूरी नजर आते हैं।
अठ्ठासी साल! मानसिक हलचल आठ साल भी चल पायेगी क्या?
इक्कीस भाषाओं और पचास संस्करणों में छपने वाला यह डाइजेस्ट इतना महत्वपूर्ण क्यों है मेरे लिये। और यह भी कि इसका हिन्दी संस्करण "सर्वोत्तम" बन्द क्यों हो गया? पता नहीं आपने इस बारे में सोचा या नहीं; मैं हिन्दी ब्लॉगरी की वर्तमान दशा को देख इस बारे में सोच रहा हूं।
स्टेफन कोवी की भाषा उधार लें तो यह कहा जा सकता है कि रीडर्स डाइजेस्ट करेक्टर एथिक्स (character ethics) की पत्रिका है, पर्सनालिटी एथिक्स (personality ethics) की नहीं। इसका वैल्यू सिस्टम एण्ड्योरिंग (enduring – लम्बा चलने वाला, शाश्वत) हैं। यह लेखन या साहित्य की पत्रिका नहीं है। यह फैशन-ट्रेण्ड्स की पत्रिका नहीं है। यह किसी विषय में स्पेशेलाइजेशन की भी पत्रिका नहीं है। पर यह मानवीय मूल्यों की पत्रिका है। बहुत कम ही ऐसा होता है जब हम इसमें छपे किसी फीचर-लेख-फिलर से असहमत होते हों। और शायद ही कभी वह बोझिल लगता हो। मैं लम्बा चलने वाले ब्लॉग की कल्पना करता हूं तो मुझे रीडर्स डाइजेस्ट के तत्व जरूरी नजर आते हैं।
बहुत से ब्लॉग या ब्लॉगर पर्सनालिटी एथिक्स पर चलते नजर आते हैं। उनका सोशलाइजेशन कम समय में ज्यादा से ज्यादा फालोअर्स, ज्यादा से ज्यादा टिप्पणी, ज्यादा चमकते टेम्प्लेट, ज्यादा सेनसेशनलिज्म, २०-२० मैच की मानसिकता पर निर्भर है। बहुत जल्दी वे मित्र और शत्रु बनाते हैं। ब्लॉगिंग को अपनी अभिव्यक्ति का कम, अपनी सफलता का माध्यम अधिक बनाना चाहते हैं। लिहाजा गली स्तर की राजनीति की श्रृंखला व्यापक होती जाती है। उस प्रवृत्ति का अनुसरण व्यर्थ है। पर कौन मानेगा!
बहुत सी पोस्टें देखी हैं जिनमें में व्यक्ति की गरिमा का ख्याल नहीं रखा गया। इस संदर्भ में चर्चा वाले मंचों का बहुत दुरुपयोग किया गया है। इसी लिये मेरा विचार था कि ये मंच खत्म होने चाहियें। मगर वे तो कुकुरमुत्ते की तरह प्रॉलीफरेट कर रहे हैं। असल में कोई आचार संहिता बन ही नहीं सकती। ब्लॉगिंग उस तरह का माध्यम है ही नहीं। और सामुहिक बुद्धिमत्ता (collective wisdom) नाम की चीज कहीं है?!
रीडर्स डाइजेस्ट का हिन्दी संस्करण "सर्वोत्तम" चल नहीं पाया। उसके पीछे मेरा मानना यह है कि हिन्दीजगत में एण्ड्योरिंग वैल्यूज (शाश्वत मूल्यों) की कद्र नहीं है। आजकल का हिन्दी साहित्य भी वह नहीं करता। पता नही कैसी कुण्ठा, कैसी उग्रता दिखाता है वह। हिन्दी ब्लॉगरी भी वही दर्शाती है। सामान्य ब्लॉगर अपने परिवेश में शाश्वत मूल्यों का प्रकटन भी देख सकता है और उसे अपनी पोस्ट में उकेर सकता है; अन्यथा वह विभिन्न प्रकार की सड़ांध भी महसूस कर वमन कर सकता है। च्वाइस उसकी है। और इसके लिये एक्स्ट्राऑर्डिनरी ब्लॉगर होने की जरूरत नहीं है।
क्या भविष्य में अच्छी रीडर्स-डाइजेस्टीय सामग्री मिलेगी ब्लॉगों पर?! और क्या केवल वैसी ब्लॉग पोस्टों की चर्चा का काम करेगा कोई डोमेन?
चर्चायन (अनूप शुक्ल और अभय तिवारी लाठी ले पीछे न पड़ें कि यह शब्द शब्दकोशानुकूल नही है) –
कल मुझे दो पोस्टें अच्छी लगीं। पहली थी प्रमोद सिंह अजदक की – ज़रा सा जापान। मैं ज के नीचे बिन्दी लगा दे रहा हूं – शायद वही सही हिन्दी हो।
और दूसरी थी – “अदा” जी की चिठ्ठाचर्चा आरती । जब मैं नया नया ब्लॉगर था तो मेरे मन में भी ऐसा आया करता था। पर मैं इतना प्रतिभावान नहीं था कि इतनी बढ़िया गेय पोस्ट बना सकूं। ऑफकोर्स, डोमेन स्क्वैटिंग मुझे स्तरीय चीज नहीं लगती और ऐसा मैने वहां टिप्पणी में कहा भी है।

लिखने वाले सर्वोत्तम के समय भी थे और अभी ब्लॉग्गिंग के समय भी है. पढ़ने वाले का टोटा तब भी रहा होगा और अब भी है.बगैर रीडरशिप के किसी पत्रिका का प्रकाशन संभव नहीं होता. लेकिन ब्लॉग लेखन का खर्चा लगभग ना के बराबर है तो यहाँ तो उम्मीद बरकार है.टिप्पणियां और फोलोवार्स बढाने की बजाय ब्लॉग लेखक ट्राफिक/ पाठक बढ़ाने की सोचें तो बात बने.
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यह पत्रिका मुझे भी अच्छी लगती है. कभी कभार पढ़ लेता हूँ. हिन्दी वाली पढ़ता था, क्योंकि वह मेरी भाषा में थी अतः समझने में आसानी होती थी. शाश्वत मूल्यों की कद्र नहीं है, यह सत्य हो सकता है मगर लगता है आपने कठोर बात लिख दी है. ब्लॉग की भाषा प्रवाहमय व आम आदमी की भाषा होनी चाहिए, इस पर कायम हूँ.
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ब्लॉग व्यक्तिगत अभिव्यक्ति का माध्यम है जबकि पत्रिका में बहुत से लोग जुड़ते हैं और अपना सहयोग देते हैं…पत्रिका जैसी विविधता ब्लॉग में ढूँढना समझदारी नहीं है…जहाँ तक खेमों की बात है वो समाज में कहाँ नहीं हैं…ब्लॉग में भी है तो क्या गलत है…अब बात रीडर्स डाइजेस्ट की, ये सही है इतने वर्षों तक किसी पत्रिका का चलना किसी अजूबे से कम नहीं…पत्रिका बंद होने का कारण सिर्फ उसमें छपने वाली सामग्री ही नहीं होती बहुत से कारण होते हैं…धर्मयुग के बंद होने का कारण कम से कम प्रकाशन की सामग्री का स्तर तो नहीं ही था. सर्वोतम के बंद होने का कारण शायद आयातित सामग्री थी जो भारतीय भाषा में आरोपित लगती थी.सरस नहीं थी.ब्लॉग और ब्लोगर को देखने का नजरिया बिलकुल अलग होना चाहिए ये विधा और इसके सृजक अलग हैं.नीरज
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जब से जीवन में कदम रखा, हमेशा रीडर्स डाइजेस्ट को घर में पाया। यह मेरे जन्म के कई साल पहले से और आज तक चली आती है। यह दूसरी जगहों के सर्वोत्तम लेखों को अपनी पत्रिका में डालती है। इसीलिये इतनी अच्छी है। मैंने इसका हिन्दी संस्करण भी लिया पर उसके लेख अनुवाद से ऊपर नहीं निकल पाये। मूल लेखन का आभाव लगा। अनुवाद का स्तर अच्छा नहीं था इसलिये बन्द कर दिया। मैं माफी चाहूंगा कि मुझे आपकी यह बात ठीक नहीं लगती कि यह पर्सनालिटी एथिक्स (personality ethics) की पत्रिका नहीं है। जहां तक मैं समझता हूं यह करेक्टर एथिक्स (character ethics) के द्वारा पर्सनालिटी एथिक्स का निर्माण करती है। इसीलिये यह इतने दिनो से चली आ रही है।
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बहुत दिनों तक नवोदित समाचार चैनलों में सेन्सेशनल सुनने के बाद, दूरदर्शन का समाचार सर्वोत्तम लगता है । आधे घंटे में सारा समाचार । शायद यही ब्लॉगजगत में भी होगा । चटपटापन शाश्वत मूल्य नहीं दे सकता । गरिमा बनाये रखनी होगी ।
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ज्ञान जी,हिन्दी ब्लॉग में मूल रूप से कुछ खास गिरावट नहीं हुयी है|एक किस्सा याद आया, सरस्वती विद्या मंदिर में हमारे आचार्यजी (जी हाँ हम आर आर एस के स्कूल के पढ़े और लोग हमें कम्यूनिस्ट कहते हैं, ;-)) कक्षा में प्रथम/द्वितीय/तृतीय आने का फार्मूला बताया करते थे| एक बार एक विद्यार्थी ने उनसे पूछा कि अगर सभी इसी फार्मूले को इस्तेमाल करें तो? आचार्य जी ने कहा कि उनकी बात को परीक्षा तक केवल तीन विद्यार्थी ही याद रख पायेंगे और वो ही प्रथम/द्वितीय/तृतीय आयेंगे|सैकड़ों हिन्दी ब्लाग्स में चंद ही रेत पर अपने निशान छोड़ पायेंगे ये एक सत्य है लेकिन इससे भी बड़ा सत्य यह है कि ये सब अपनी नैचुरल प्रकृति से होगा| हिन्दी ब्लागिंग के प्रारम्भिक दौर में उपजे व्यक्तिगत संबंधो/टिप्पणियों ने उसके कंटेंट को प्रभावित किया कि नहीं, शायद आगे ये प्रश्न भी उठे| प्रत्यक्षा नाम की एक ब्लॉगर ने एक बार लिखा था कि पोपुलिस्ट और क्लासिकिल लेखन में फर्क था है और रहेगा | लेकिन इसके बावजूद हमारा फ्री स्पीच में अगाध विशवास है, जिसको जो लिखना हो लिखे गन्दा, संदा अश्लील श्लील सब….My right to offend you is more important than protecting the offended.जैसे ग्रुप हिन्दी ब्लागिंग के शुरू में बने, वैसे ही गुट नए ब्लागरों के भी बनेंगे| इसके अतिरिक्त कुछ बाते पीरियाडिक रूप से बार बार भी देखने को मिलेंगी…उदाहरण के तौर पर इन्टरनेट के पुराने प्रयोगकर्ता स्पैम और होक्स ईमेल का फर्क समझते हैं और उसकी तरफ ध्यान नहीं देते, वहीँ नए प्रयोगकर्ता के लिए नाइजीरिया से मिली लाटरी की ईमेल ब्लॉग पोस्ट का मसाला होता है या फिर सनसनीखेज गुप्त रहस्य का खुलासा |चिटठा चर्चा के मंच में लोगों ने अपना समय दिया, जमकर मेहनत की और लोगों का समर्थन भी मिला लेकिन जैसे जैसे चिट्ठों की संख्या बढ़ेगी चिटठा चर्चा सस्टेनेबल नहीं है, लोग इसमें भाई भतीजावाद देखेंगे और संभव है ऐसा हो भी क्योंकि चर्चा करने वाले भी हम आप जैसे ही हैं| हो सकता है जो कुछ हो रहा हो वो नैचुरल प्रकृति से हो रहा हो…;-)इसके अलावा तकलीफ होती है लोगों से जो हिन्दी ब्लॉग जगत को साफ़ सुधरा रखने की कोशिश में दुबले होते रहते हैं, ये प्रकृति विरुद्ध है, ये प्रयास सफल नहीं हो सकते ब्लॉग जैसे मुक्त क्षेत्र में…पीरियड
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चर्चायन शब्द बढ़िया है ज्ञान भाई; ऐसे शब्दों के लिए तो हम आप के क़ायल हैं। 'लाठी लेकर' तो तब पीछे पड़ते हैं जब आप पहले से मौजूद शब्द का अनर्थ कर रहे हों :)
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शत-प्रतिशत सहमत हूँ आपसे…!अपनी कमजोरियां भी निरख पा रहा हूँ. ..!अंदाज हमेशा की तरह ज्ञानयुक्त..ज्ञानमय..!
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यह सच है कि रीडर्स डाइजेस्ट करेक्टर एथिक्स की पत्रिका रही है हमेशा से….जब भी कि आर्थिक तौर पर इस पत्रिका की हालत अच्छी नहीं है फिर भी इसने कभी भी अपने चारित्रिक मापदंड से समझौता नहीं किया …जहाँ तक आपका सुझाव किसी भी ब्लॉग को लम्बी रेस का घोडा बनने के लिए रीडर्स डाइजेस्ट के गुणों को आत्मसात करने की बात है….तो ज़रूर किया जाना चाहिए कम से कम करेक्टर एथिक्स की बात तो होनी ही चाहिए…वैसे भी ब्लॉग व्यक्ति विशेष की विशेषताओं और दुर्गुणों को परिलक्षित कर ही देता हैं…..ज़रुरत है बस उसे देखने की….और पहचानने की…बहुत से ऐसे ब्लॉग हैं जो अपनी मौलिकता और गुणवत्ता बनाये हुए हैं…साथ ही किसी भी चारित्रिक मापदंड में खरे उतरने की सानी रखते हैं…जहाँ तक इनका लम्बे चलने का प्रश्न है….तो कुछ कालजयी रचनाएँ उभर कर आ ही रहीं हैं इन ब्लागों में और ये रहेंगी ही रहेंगी…. आपका ह्रदय से आभार कि आपने मेरा मान बढ़ाया…आशा हैं मेरी इस धृष्टता को लोगों ने दिल पे नहीं लिया होगा…आपतो जानते ही हैं…कि जब माँ बच्चों कि तरफ ध्यान नहीं देती तो बच्चे कैसे अपनी ओर ध्यान खींचते हैं….हम भी छोटे हैं…उम्र, अनुभव और ब्लॉग्गिंग में…आपलोगों का वरदहस्त चाहिए ही चाहिए हमें…चाहे आप कैसे भी रखें सर पर स्वेक्षा से या फिर तंग आकर…एक बार फिर आभार व्यक्त करती हूँ..धन्यवाद…
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चर्चायन (अनूप शुक्ल और अभय तिवारी लाठी ले पीछे न पड़ें कि यह शब्द शब्दकोशानुकूल नही है) यह पढ़ने के बाद कुछ कहना आपके आभासी डर को सच साबित करना होगा।
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