ब्लॉगिंग सामाजिकता संवर्धन का औजार है। दूसरों के साथ जुड़ने का अन्तिम लक्ष्य मूल्यों पर आर्धारित नेतृत्व विकास है।
क्या होता है यह? संजीत त्रिपाठी मुझसे बारबार पूछते रहे हैं कि ब्लॉगिंग ने मुझमें क्या बदलाव किये। और मैं यह सोच पाया हूं कि एक बेहद अंतर्मुखी नौकरशाह से कुछ ओपनिंग अप हुई है।
हम एक दो-आयामी स्थिति की कल्पना करें। उसमें y-axis आत्मविकास की है और x-axis सामाजिकता की है। आत्मविकास और सामाजिकता के विभिन्न संयोगों से हम व्यक्तियों को मोटे तौर चार प्रकार के समूहों में बांट सकते हैं। यह चित्र में स्पष्ट होगा –
सामाजिकता के निम्नस्तर और आत्मविकास के भी निम्न स्तर पर होते हैं क्रूर तानाशाह। अंतर्मुखी-अलग-थलग नौकरशाह होते हैं, जिनका आत्मविकास तो होता है पर सामाजिकता में वे कमजोर होते हैं। स्ट्रीट-स्मार्ट चालबाज सामाजिकता में दक्ष होते हैं, पर उनका आत्मविकास पर्याप्त नहीं होता। उनकी नैतिकता संदिग्ध होती है।
सबसे बेहतर होते हैं जिनका आत्मविकास भी पर्याप्त होता है और जो सामाजिकता में भी उच्च कोटि के होते हैं। ये मास-लीडर्स होते हैं। महात्मा गांधी, गुरु नानक, गौतम बुद्ध — अनेक दैदीप्यमान सितारे इसके उदाहरण हैं।
मैं अपने में परिवर्तन को बैंगनी (पर्पल) रंग की तीर की तरह की लकीर से दर्शाऊंगा। मानो एक अलग-थलग नौकरशाह अपने आत्मविकास और सामाजिकता में छोटे छोटे कदम लेता हुआ अपने को कम-अलग-थलग नौकरशाह में बदलने को सन्नध हो। मगर हो अभी अलग-थलग नौकरशाह ही।
ब्लॉगिंग के क्षेत्र में, सामाजिकता के प्रयोग के कारण क्रूर तानाशाह तो शायद ही कोई दिखे। चल ही न पायेगा यहां। पर स्ट्रीट स्मार्ट बहुत से दिख सकते हैं। नैतिक नेतृत्व के उदाहरण अवश्य दिख जायेंगे इक्का-दुक्का। अधिकांश अलग-थलग नौकरशाह की गोल के लोग होंगे – अपनी नैतिकता और सामाजिकता से जूझते हुये!
यह मेरी मौलिक सोच पर आर्धारित नहीं है। यह देबाशीष चटर्जी की पुस्तक Light the Fire in Your Heart के एक अंश से प्रेरित है।
रिटायर्ड विदेश सेवा के अधिकारी ने ७९ वर्ष की उम्र में प्रीत विहार, दिल्ली में अपने आप को गोली मार कर आत्महत्या कर ली है। अधिकारी ने लम्बी बीमारी और अकेलेपन को कारण बताया है आत्महत्या का। उनकी पत्नी स्पेन में थीं और बच्चे आस्ट्रेलिया और अमीरात में।
क्या वे ब्लॉगर होते तो आत्महत्या के चांस कम होते?!

@ Gyan ji-Sorry for taking too much space.
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@ Anup Shukla-Sucide is a genetic disease.Nothing to do with blogging or painting or anything.But yes, Blogging helps in combating stress .
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@ Vani- I partly agree with you that it provides a vent, but remember , it is increasing the dependency also. Consequently inducing anxiety and depression.
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Boredom is fatal !Blogging helps in killing your boredom up to certain extent but its not an absolute cure."Something is better than nothing"Smiles.
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क्या वे ब्लॉगर होते तो आत्महत्या के चांस कम होते?मेरी समझ में ऐसा कतई नहीं है। आत्महत्या की प्रवृत्ति का कोई गणित नहीं होता। मन का अवसाद और नकारात्मक भावनायें कब जोर मार जायें कुछ नहीं कहा जा सकता। हेमिग्वे जैसे मजबूत कलेजे वाले ने आत्महत्या कर ली थी। क्या सिर्फ़ इसलिये कि वह ब्लॉगर नहीं था। झटके से ब्लॉग बन्द करने की घोषणा करना भी तो इसी अवसाद घराने की अभिव्यक्ति है। आजकल तमाम लोग कर रहे भी हैं। यहां भी दो कम से कम दो लोग (आप स्वयं और समीरलाल) भी ब्लॉग बन्द करने का पुण्यकाम कर ही चुके हैं एकाधिक बार।आत्महत्या करने वाला अगर ब्लॉगर रहा होता तो यह भी तो कर सकता है कि पहले वो ब्लॉग बन्द करता फ़िर जिन्दगी की दुकान।देबाशीष की किताब के बहाने आपने अपनी जो स्थिति बताई उससे लगता है कि आपकी अभिव्यक्ति इस किताब को पढ़कर कमतर हो गयी है। इससे सहज ढंग से आप तब यह बात अभिव्यक्त कर चुके हैं जब आपने यह किताब पढ़ी नहीं थी। देबाशीष की किताब के निष्कर्ष आपने यहां धर दिये जैसे हम पूरी किताब बांच ही रखे हैं। यह समझाऊ कम उलझाऊ ज्यादा है। आप अपने आप को जबरियन शुष्क, असामाजिक और न जाने क्या-क्या बता-बता कर बोर क्यों करते हैं। अपने दफ़्तर की फ़ाइल उठाकर अपने ब्लॉग पर काहे धर देते हैं। वैसे इंशाअल्लाह आपकी दफ़्तर की इमेज भी इत्ती चौपट नहीं है। यह मेरे आदमियों(दोस्तों) ने बताया जो आपके दफ़्तर में काम करते हैं।
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ब्लॉगर होता तो आत्महत्या नहीं करता …सटीक विवेचन …ब्लॉगिंग मन की भड़ास को निकलने का अवसर प्रदान करती है …सबके साथ होकर भी सबसे अलग …किसी को बुरा लगा तो ज्यादा से ज्यादा क्या कर लेगा ….लिखेगा ही तो … !!
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एक लंबे समय के बाद आप आत्मचिंतन के मोड मे लौटे हैं, भले ही देबाशीष चटर्जी के बहाने,बहाने कोई भी हो मूल भाव होने चाहिए, जैसा कि आप स्वीकार कर रहे हैं कि "एक बेहद अंतर्मुखी नौकरशाह से कुछ ओपनिंग अप हुई है। "तो यह तो एक सकारात्मक बात हुई न।बाकी अफसरशाही अगर फ़ौरन ही खुल जाए आमजन से तो बात ही क्या।आखिर में जो सवाल आपने पूछा है कि " क्या वे ब्लॉगर होते तो आत्महत्या के चांस कम होते?तो इसका जवाब मै अपने दिमाग के हिसाब से यही दे सकता हूं कि हां कम होते उनके आत्महत्या के चांस। क्योंकि अगर वे ब्लॉगिंग कर रहे होते तो लोगों से संवाद का एक माध्यम होता उनके पास। और शायद यही संवाद उन्हे समझाता कि वे जो कदम उठाने जा रहे हैं वो कितना सही है और कितना गलत।चलती रहे यह बदलाव की प्रक्रिया।शुभकामनाएं कहने के लिए बहुत छोटा हूं लेकिन फिर भी………
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सही मुद्दे पर चिन्तन किया है। ब्लॉगर होते तो सायद वे इतना अकेला ना महसूस करते।घुघूती बासूती
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interesting analysis, provokes thought process
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ब्लोगिंग आत्म विकास में सहायक होता है…यह मैंने भी स्पष्ट अनुभव किया है….क्योंकि रचना पढने लिखने के साथ साथ यहाँ जो इंस्टेंट प्रतिक्रिया देने और लेने का अवसर मिलता है,एक प्रकार से वह उस मानसिक वातावरण का श्रृजन करता है जिसके तहत लगता है एक चौपाल पर बैठे हम किसी विषय पर एक दुसरे की राय ले और दे रहे हैं…निश्चित रूप से मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है भले लाख कोई यह बात माने न माने…विचारों के आदान प्रदान का अवसर यदि व्यक्ति नहीं पाता तो उसके द्वारा अकेलापन महसूस करना और कभी कभी इससे ऊब गंभीर कदम उठा लेना स्वाभाविक है…इसलिए कहा जा सकता है की व्यक्ति यदि ब्लोगर होता तो एकाकीपन से ऊब आत्महत्या न करता…
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