पिछली तीन पोस्टों में सबकी टिप्पणियों पर सज्ञान प्रतिटिप्पणियाँ देकर आज जब विचारों को विश्राम दिया और दर्पण में अपना व्यक्तित्व निहारा तो कुछ धुँधले काले धब्बे, जो पहले नहीं दिखते थे, दिखायी पड़ने लगे।
कुछ दिन हुये एक चर्चित अंग्रेजी फिल्म देखी थी, “मैट्रिक्स“।
मानवता खतरे में है (भविष्य में !)। वर्तमान का नायक नियो(नया) एक कम्प्यूटर मनीषी है(ब्लॉगर ?, नहीं)। मार्फियस(स्वप्न देवता, रोमन) दुष्टों से जूझ रहा है और उसके अनुसार एक महान व्यक्ति ही उन्हें इन विषम परिस्थितिओं से उबार सकता है। दुष्ट मायावी आव्यूह (मैट्रिक्स) के माध्यम से मानव सभ्यता को सदा के लिये दास बनाकर रखना चाहते हैं। अन्ततः खोज नियो पर समाप्त होती है क्योंकि मार्फियस उसके अन्दर छिपी महानता को देख लेता है। भौतिकी नियमों को तोड़ मरोड़ नियो को सुपरह्यूमन बनाया गया। सुखान्त।
नियो की जगह स्वयं को रखिये और आवाह्न कीजिये स्वप्न देवता का, जो आपके अन्दर वह तत्व ढूढ़ लेगा जिससे मानवता की रक्षा व उत्थान होगा। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को ढूढ़ा था।
फिल्म में तो काल्पनिक मैट्रिक्स चित्रित कर ढेरों एकेडमी एवार्ड बटोर कर ले गये डायरेक्टर साहेब।
मेरी मैट्रिक्स वास्तविक है और एवार्ड है महानता।
नीचे बनी मैट्रिक्स में झाँक कर देखिये, आप कहाँ दिखायी पड़ते हैं और कैसे दिखायी पड़ते हैं। मैंने अपना प्रतिबिम्ब देखा जिसे मैट्रिक्स के कई कोनों में बिखरा पाया। टूटे हुये काँच के तरह। छवि चमकती पर टूटी। ज्ञान में क्रोध, सम्पत्ति का मोह, त्याग में मद, यश में मत्सर। शक्ति और सौन्दर्य सपाट। मेरे व्यक्तित्व के टूटे काँच सबको चुभते आये हैं, मुझे भी। छटपटाहट है मेरे हृदय में नियो की तरह इस मैट्रिक्स से बाहर आने की। मेरी चतुरता हार जाती है। मेरे स्वप्नों का देवता कब आयेगा जो महानता के लिये मेरी अकुलाहट पहचानेगा और मेरे लिये प्रकृति के नियम तोड़-मरोड़ देगा।
क्या आप इस मैट्रिक्स में बने रहना चाहते हैं? बहुत महान तो इससे बाहर निकल चुके हैं। जो निकले नहीं जानकर भी, उन्होने ही मानवता का रक्त इतिहास के पन्नों पर छलकाया है। क्या आप उनका साथ देना चाहेंगे? यदि नहीं तो आप भी अपने मार्फियस को बुलाईये।
सम्पत्ति | शक्ति | यश | सौन्दर्य | ज्ञान | त्याग | |
काम | रोमन राज्य | वुड्स | नित्यानन्द(नये) | |||
क्रोध | ||||||
लोभ | इनरॉन | बाली | ललित मोदी | थरूर | ||
मोह | कैकेयी | |||||
मद | हिटलर, रावण | |||||
मत्सर | दुर्योधन | हिरण्याकश्यप | कई अखाड़े |
मैं इतिहास का छात्र नहीं रहा हूँ अतः मस्तिष्क पर अधिक जोर नहीं डाल पाया। पर इस मैट्रिक्स को पूरा भरने का प्रयास किया है उन व्यक्तित्वों से जो यदि प्रयास करते तो इन दोषों से बाहर आकर महानता की अग्रिम पंक्ति में खड़े होते। हर आकर्षण के साथ कोई न कोई दोष नैसर्गिक है। जैसे सम्पत्ति-लोभ, शक्ति-मद, यश-काम/मत्सर, सौन्दर्य-काम, ज्ञान-क्रोध, त्याग-मत्सर। वहाँ पर आपको लोग बहुतायत में मिल जायेंगे।
आपकी महानता जिन भी बॉक्सों में बन्द है, उसे बाहर निकालिये । लोग कब से आपकी बाट जोह रहे हैं।
उन पर विश्वास कीजिए जो महानता को खोज रहे हैं, उन पर संदेह कीजिए जो इसे खोज / पा लेने का दावा करते हैं।
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तलाश हमेशा क़ाबिले-यक़ींओती है मगर दावे अक्सर क़ाबिले-ग़ौर। सिर्फ़ महानता की ही बात नहीं है।
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हिमांशु जी का उत्तर तो क़ाबिले-यक़ीं है । यही पर यकीं हो गया, अब तलाश की ज़रूरत नहीं ।
मेरे दावे को केवल क़ाबिले-ग़ौर न समझा जाये, यक़ीं किया जाये ।
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waah kaabil-e-taareef khayal.. 🙂
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प्यास लगती है (महानता की) चलो रेत निचोड़ी जाए,
अपने हिस्से में समन्द (महानता) नहीं आने वाला।
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मनोज जी, रेत निचोड़ने का ज़ज्बा हो तो समुन्दर को भी ठिकाना दिख जाता है ।
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इस मैट्रिक्स मे बैठने की कोशिश करता हू.. सम्पत्ति –शक्ति– यश– सौन्दर्य– ज्ञान– कुछ भी नही है इनमे से..
त्याग – लेकिन किस चीज़ का..
हाँ, दोष सारे है.. फ़िर तो इस बक्से के बाहर बिना महान बने ही बैठना होगा…
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सबसे पहला गुण जो ज़रूरी है – किसी भी उत्कर्ष की उपलब्धि के लिए, वह है अपनी क्षमताओं को पहचानना। यह पहचानना कि मेरा बर्तन ख़ाली है, हमें बर्तन भरने के लिए, उसके लिए प्रयत्नशील होने को प्रेरित कर सकता है, मगर बर्तन ख़ाली होने पर भी अगर भरे होने का गुमान बना रहे, तब कैसे भरा जाएगा?
आप अपने बर्तनों को भरना जारी रखें, महानता का जल जैसे ही ख़तरे का निशान पार करेगा, लोग आ जाएँगे बताने, शायद हम भी। 🙂
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“आप अपने बर्तनों को भरना जारी रखें, महानता का जल जैसे ही ख़तरे का निशान पार करेगा, लोग आ जाएँगे बताने, शायद हम भी।”
:), ek do post likhni padegi kinhi mahaan logo ko target karke.. shayad tab kuch bartan badhe 😛
aur huzoor ek afsos is baat ka bhi hai ki log to log, benami log bhi nahi aate.. aapki ye cheez gaanth baandh ke rakh li hai.. next target yahi hai..
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किसको लपेट रहे हैं पंकज अगले ब्लॉग में ? 🙂
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आप मैट्रिक्स में बैठना चाहते हैं कि निकलना चाहते हैं ?
आपसे बिना पूँछे ही गुण आप में विद्यमान हैं । विश्वास न हो तो अपने मित्रों और शुभचिन्तकों से पूँछिये ।
या ईर्ष्या से बचने के लिये विनम्रता का चोंगा ओढ़ना चाहते हैं ? 🙂
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🙂
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एक था मुहम्मद बिन तुग़लक़। उसके विचार महान थे, उसकी परिकल्पना और परियोजना महान थी, उसके प्रयोग महान थे। पर वह असफल रहा, … लोग उसे पागल समझने लगे। इस पर आपका क्या कहना है?
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यह प्रश्न मेरे लिये आउट ऑफ सिलेबस है । 🙂
इतिहास मेरा विषय नहीं रहा है । कोई इतिहासविद प्रकाश डाल सके तो कृपा होगी ।
पर हम लोग उन्हे मरने के बाद श्रेय दे रहे हैं, यह भी महानता की श्रेणी में माना जाये । उनको पागल कहने वालों का कौन नाम जानता है ?
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भारी दार्शनिक टाइप हो गई. गुणों को खोज कर अभिवृद्धी करना और दोषों से मुक्त होना सम्भव नहीं अतः उन्हे न्युनतम करने का प्रयास करना, हम तो इतना ही कर सकते है.
आज जोरदार चिंतन हुआ है.
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गुण व अवगुण चिपके नहीं रहते पर निर्णयों में अपनी छाप छोड़ते हैं । आप शक्तिवान हैं और प्रलोभन आपके सामने है । हाँ बोल गये तो अवगुण, ना बोले तो आपकी शक्ति महानता की ओर बढ़ गयी ।
उन्हे न्युनतम करने का प्रयास करना, हम तो इतना ही कर सकते है
यही प्रेरणादायी है हम सबके लिये ।
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हुज़ूर!
न्यूनतम भी क्या! ये तो बहुत बड़ी बात हो गयी। अगर आज के ज़माने में हम अपने दोषों को क़ाबिले-बर्दाश्त भी बनाए रखें (औरों के लिए), तो उतना भी काफ़ी है।
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मैं मोह और त्याग के बीच में हूँ….
ब्लोगिंग से बहुत मोह है…. लेकिन इसे त्यागना भी चाहती हूँ…:)
तभी तो …. कभी कहती हूँ ..’हाँ’ ….कभी …’नहीं’……और कभी ..’तो’ …..!!!
हाँ नहीं तो..!!
महा confused ….:)
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मध्यमार्ग का साम्य असाध्य है । आप साध पा रहीं हैं, यही क्या कम है ।
त्याग भाव रखने में और त्याग देने में अन्तर है । त्याग कर भी मन में बसा है तो कहाँ के त्यागी और निर्लिप्त हो राज भी कर लिया तो भी महात्मा ।
आपकी कविताओं में तो निश्चयात्मकता झलकती है, बिना किसी Confusion के ।
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ना जाए वाँ बने है, न बिन जाए चैन है
कम्बख़्त दिल को चैन नहीं है किसी तरह
[मेरा रचित नहीं है]
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काश गुण,अवगुण किसी टोकरी में रखे सामान जैसे होते जिसको मन आता रख लेते, जिसको मन करता बाहर कर देते।
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सच है ।
यदि इतना सरल होता तो न केवल अपना वरन औरों का ढेर सारा भला कर दिये होते । छिलके उतारना, बीज हटाना, गेहूँ को साफकर पीसना इत्यादि इसी प्रयास की ओर इंगित करते हैं ।
कोई भी गुण या अवगुण सरल नहीं बनाया है । सब एक दूसरे में गुत्थमगुत्था हैं । यहाँ तक कि किसी मूर्ख के ऊपर भी दया आती है ।
भगवान का यह खेल देखकर ‘जय हो’ बोलने का मन करता है ।
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वैसे हैं ये ऐसे ही, बस निकालते नहीं बनते क्यों कि टोकरी की बुनावट के साथ-साथ बुने गए हैं। आप और रखना चाहें तो रख सकते हैं मगर पूरा निकाल नहीं सकते, टोकरी उधेड़े बिना।
🙂
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पर मैंने अवगुणों पर विजय पाते बहुतों को देखा है । सामाजिक व्यवहार में सामने न आने देना हो सकता है प्रारम्भ ।
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सत्य वचन!! कोशिश तो होती है पर कितना सच में निकल पाते हैं..यह देखने वाली बात है…
मैंने अपना प्रतिबिम्ब देखा जिसे मैट्रिक्स के कई कोनों में बिखरा पाया। टूटे हुये काँच के तरह। छवि चमकती पर टूटी। ज्ञान में क्रोध, सम्पत्ति का मोह, त्याग में मद, यश में मत्सर। शक्ति और सौन्दर्य सपाट। मेरे व्यक्तित्व के टूटे काँच सबको चुभते आये हैं, मुझे भी। छटपटाहट है मेरे हृदय में नियो की तरह इस मैट्रिक्स से बाहर आने की। मेरी चतुरता हार जाती है। मेरे स्वप्नों का देवता कब आयेगा जो महानता के लिये मेरी अकुलाहट पहचानेगा और मेरे लिये प्रकृति के नियम तोड़-मरोड़ देगा।
-काव्यात्मक!!
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काव्यात्मक!!
छटपटाहट या उसका प्रस्तुतीकरण !! 🙂
इस रूखेपन में भी कुछ ढूढ़ लेने की पारखी दृष्टि ही आपको आप बनाती है । 🙂 🙂 🙂
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तो एक साईबर पंक ने आपको गहरे अंतर्मंथित कर ही दिया -कोई कहीं से बाहर निकलता -सत्प्रयासों और सत्संग से कुछ परिवर्तन अवश्य संभावित है –
मूरख ह्रदय न चेत जो गुरु मिलें विरंचि सम
चिंतन उच्च अवश्य है –
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सत्संग उच्च विचारों का आदान-प्रदान है और एक अग्नि सी जलाये रहता है न केवल उत्साह की अपितु प्रकाश प्रदान कर पथ-प्रदर्शन में भी सहायक होता है । बिना सत्संग अस्तित्व ठंडा हो निष्प्राण सा पड़ा रहता है ।
अंग्रेजी फिल्में इतनी भी निरर्थ नहीं होती हैं, कुछ न कुछ काम का दिख ही जाता है । 🙂
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भाई अंग्रेज़ी फ़िल्म! 🙂
इधर आओ और देखने जाओ तो मुझे भी ले लेना। वर्ना अकेले तो जब मैं कभी देखने चला गया तो जब ख़ुश हो कर ताली बजाता हूँ तो सब घूरते हैं, जब हँसता हूँ तो सब घूरते हैं, जब सब हँसते हैं तो मैं ढूँढता रह जाता हूँ कि क्या बात हुई? 🙂
सो अंग्रेज़ी फ़िल्में – अगर समझ में आ जाए तो क्या कोई बात निरर्थक होती होगी! पता नहीं 😉
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हिमांशु जी, हम अपने बात पर अब भी कायम हैं कि
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कुछ न कुछ काम का दिख ही जाता है ।
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ढूंढ ढूंढ कर हारे! अपने सारे शरीर और आचरण में ढूंढ डाली। कहीं मिल ही नहीं रही है, महानता!
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आपका स्थान ब्लॉग में जिस ऊँचाई पर है, यदि उसमें भी आपको महानता के अंश नहीं दिख रहे हैं, तो निःसन्देह आप जिस नियो को ढूंढ़कर लायेंगे वह अप्रतिम होगा ।
एक सच यह भी है कि आप नीचे देख रहें हैं कि ऊपर । नीचे देखने वाला अपनी ऊँचाई देखकर आत्ममुग्ध हो जाता है और सुस्ताने लगता है । ऊपर देखने वाले के लिये शीर्ष में पहुँचने तक कार्य शेष रहता है और शीर्ष में पहुँचने के बाद उसे दूसरा शीर्ष दिख जाता है ।
आपकी टिप्पणी के लिये संभवतः एक शब्द है – विनम्रता ।
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यह दूसरों के ढूँढने के लिए होती है, आप छोड़ें। उन्हें दिख भी रही है।
अपने आप तो दोष ही दिख जाएँ, यही बड़ी उपलब्धि है। वो भी तो नहीं दिख पाते सबको! 🙂
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सच है । सरल शब्दों में दूसरे के गुण और स्वयं के दोष देखें । इस प्रकार दूसरों को अपने जीवन में उतारें । अपने दोष कम कर अपनी गाह्यता बढ़ायें जिससे दूसरे भी आप को स्वीकार कर पायें । यही सम्मलित महानता है ।
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