मैने शराफत अली को देखा नहीं है। सुलेम सराय/धूमन गंज से उत्तर-मध्य रेलवे के दफ्तर की ओर जो सड़क मुड़ती है, उसपर एक प्राइम लोकेशन पर शराफत अली की औजार पेटी एक मेज नुमा तख्ते पर रखी रहती है। उसकी बगल में टीन का बोर्ड टिका रहता है जिसपर भंगार जैसे ताला-चाभी टंगे रहते हैं। उसके ऊपर लिखा है – शराफत अली ताला चाभी वर्क्स।
जब शराफत अली बैठते नहीं अपनी सीट पर; और उनकी फैक्टरी देख कर लगता है कि तीन शिफ्ट चले, तो भी टर्नओवर बहुत इम्प्रेसिव नहीं हो सकता; तब शराफत अली का गुजारा कैसे चलता होगा?
गरीबी पर्याप्त है और आबादी भी ढ़ेर इस इलाके में। मैं शराफत अली से सिम्पैथियाना चाहता हूं। कल्पना करता हूं कि शराफत अली, शराफत की तरह छुई-मुई सा, पतला दुबला इंसान होगा। बीवी-बच्चों को पालने की दैनिक परेशानियों से जिसका वजन कम होता जा रहा होगा और जिसे देख कर लोग ट्यूबरक्यूलर इंफैक्शन का कयास लगाते होंगे। पर तभी मुझे यह खयाल आता है कि इतने प्राइम कॉर्नर पर अगर शराफत अली की चौकी सालों से बरकरार है, तो यह बिजनेस शराफत अली का फसाड होगा। और खूंखार सा आदमी होगा वह!
ईदर वे, शराफत अली की चौकी, व्यस्त सड़क का एक किनारा, चाभी बनाने वाले का हुनर, पास की दुकान पर चाय सुड़कता पुलीस कॉस्टेबुल और उस दुकान का त्रिशूल छाप मूछों वाला हलवाई, सनसनाहट भरने वाला हिन्दू-मुस्लिम पॉपुलेशन का इलाका — यह सब डेली डेली ऑब्जर्व करता हूं, दफ्तर आते जाते, अपनी कार की खिड़की से। मालगाड़ियाँ चलाने की जिम्मेदारी न होती तो गेर चुका होता एक जेफ्री आर्चरियाना थ्रिलर!
आई वुड हैव बीन ए ग्रेट ऑथर सार! दिस ब्लॉडी नौकरी हैज फक्ड एवरीथिंग!
पता नहीं, कौन है शराफत अली! एक अदद चौकी की फोटो और अण्ट-शण्ट विचार लिये ठेले जा रहा हूं पोस्ट। फिर कहूंगा कि यही ब्लॉगिंग है!
Sharafat Ali..Sharafati tala ka hii ‘Kaam-tamam’ karte hai na ??? 😉
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शराफत जी से कभी अपॉइण्टमेण्ट मिला तो पता करूंगा! 🙂
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मतलब आप शराफत अली की शराफत के मारे हैं …
ब्लॉग का ठिकाना बदलने के साथ टिपियाने और लिखियाने का अंदाज़ भी बदल गया है !
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पोस्ट की एक लाइन का लेखन तो शायद एबरेशन है। हां टिप्पणी करने का अन्तर वर्डप्रेस की सहूलियत के कारण है।
और व्यक्ति को परिवर्तन करते रहने चाहियें। नहीं?
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Sharafat Ali..Sharafati tala ka hii karte hai na ??? 😉
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कभी कभी सब कुछ सुन्दर कर डालने के प्रयास में हम यह भूल जाते हैं कि यथार्थ की कड़ुवाहट भौतिक विश्व में साक्षात झलकती है, यदि न झलके तो समझ लीजिये विस्फोट हो जायेगा। कुछ घाव सूखने के लिये खुले छोड़ दिये जाते हैं।
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बहुत सही। सेफ्टी वाल्व तो होनाईच चाहिये।
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हमहूँ एकठो टिप्पणी किये थे, कहाँ गयी?
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आपकी टिप्पणी स्पैम में कैसे घुसा देता है यह वर्डप्रेस, समझ नहीं आया!
शराफत जी के बारे में एक वाजिब सा कारण तो निशान्त ने दिया है। बाकी, ठीक ठीक पता चला तो बताऊंगा।
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ताला चाभी वाली, बिना ताला चाभी की दुकान, कौन कहता है शराफत का जमाना नहीं रहा.
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निर्भर करता है ताले के अन्दर क्या है?!
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शराफत अली सीट पर इसलिए नहीं मिलते क्योंकि वो अक्सर ही फील्ड पर गए होते हैं और पच्चीस रुपये के ताले को तोड़ने के लिए डेढ़ सौ रुपये चार्ज कर लेते हैं. अमूमन तो वे एक बार कहने पर सर उठाकर भी नहीं देखते और लल्लोचप्पो करवाते हैं. वो अपनी कीमत भली भांति जानते हैं.
अरे! ये क्या! कहीं शुचितावादी लाठी-बल्लम लेकर न टूट पड़ें!;)
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यह वाजिब कारण नजर आता है। पर कभी नहीं दिखे शराफत भाई!
और शुचिता तो होनी ही चाहिये जीवन में। व्यक्ति को रोज नहाना चाहिये। क्रोध-कपट-लोभ-घृणा आदि नॉन-शुचित वृत्तियों से बचना चाहिये।
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शराफ़त मियां ने सोचा भी नही होगा कि वह इतने चर्चित हो जायेंगे .
और लिखने की कोइ उम्र होती है क्या ? आप जब इतना संक्षेप मे लिखकर पूरा विषय स्पष्ट कर देते है .जब कभी पुस्तक लिखेंगे तो वह तो इन्साइक्लोपीडिया ही कहलायेगी उस विषय की
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धन्यवाद। आपने बन्दे की कद्र की।
वर्ना तो अपने लेखन की औकात मालुम ही है! 🙂
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आपने तो एक नई चिंता पैदा करदी। प्रश्न यह उठता है कि शराफत अगर अपने ठिये पर कभी नहीं मिलते तो फिर रहते कहाँ हैं?
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सर, विचार आया है तो जुट जाईये ..वी आर एस लिजिये और सनसना कर एक का, कई ठ उपन्यास लिख मारिये…
नावल हिट होगी -पक्का है..शब्दों की पकड़ तो हईये है बुकर वाली…एक पंक्ति से समझ गये… 🙂
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वही पंक्ति तो हमरे इश्टाइल की नहीं है! 😦
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