
मानसिक हलचल ने ज्ञानदत्त पाण्डेय का यह इण्टरव्यू लिया है। बहुत कुछ वैसे कि अखबार के मालिक का इण्टरव्यू छापने को सम्पादक बाध्य होता है; मैं ब्लॉग मालिक का यह इण्टरव्यू छाप रहा हूं।
माह [मानसिक हलचल] – पांड़े जी, आप साहित्य के नाम से नाक भौं सिकोड़ते हैं। क्या बतायेंगे कि आप ऐसा क्यों करते हैं। साहित्य में तो समाज को बदलने की ताकत होती है।
ज्ञान – आपका बहुत धन्यवाद कि आपने यह सवाल नहीं पूछा कि आप साहित्य के मायने क्या समझते हैं। असल में उसका जवाब देना कठिन होता। एक औसत किताबी कीड़ा होने के नाते मैं जो पढ़ता हूं, उसमें तकनीकी या व्यवसायिक लेखन कमतर छद्मयुक्त है। पर साहित्य के नाम पर जो पिछले कुछ दशकों से ठेला जा रहा है, उसमें यथार्थ कम है, खोखला बौद्धिक दर्प अधिक। बस यही बात है। बाकी यह स्वीकार करना ही होगा कि साहित्य की कोई मूर्त अवधारणा मेरे मन में नहीं है।
माह – धन्यवाद जीडी। आप समाज के चरित्र और ईमानदारी को सदा कम कर आंकते रहे हैं। वह तब, जब आपके स्वयम का जीवन कोई नायक का नहीं रहा है जो अन्य लोगों के लिये प्रेरणास्पद हो। ऐसे में आप को नहीं लगता कि आप अपने ब्लॉग पर यह सब लिखना बोलना बन्द कर दें?
ज्ञान – आप सही कहते हैं। लेकिन यह भी है कि अपने ब्लॉग पर मैने कई बहुत साधारण पात्र खोजे-उकेरे हैं, जो बहुत साधारण होते हुये भी बहुत सही हैं। असल में जीवन के बहुत से फ्रस्ट्रेशन पचास की उम्र के बाद मूर्त रूप लेने लगते हैं, जब आदमी को लगने लगता है कि अपने को, परिवेश को या समाज को बदलने का समय निकलता जा रहा है। तब ऐसे विचार आने लगते हैं। और ब्लॉग उनका रिलीज का जरीया है। यह जरूर है कि जिन्दगी में हर आदमी नायक बनना चाहता है। वह न बन पाना (अपने परिवार-कुटुम्ब के लिये भी न बन पाना) कष्ट तो देता ही है। कितना बढ़िया होता कि जीवन के दूसरे भाग में एक नये उत्साह से बिल्कुल नई ईनिंग खेली जा सकती!
माह – ओह, जीडी, आप जबरी सेण्टीमेण्टल हुये जा रहे हैं। मैं उसके प्रभाव में आ कर झूठ मूठ का यह तो नहीं कह सकता कि आप तो हीरो हैं – कम से कम कुछ लोगों के लिये। अत: विषय बदला जाये। आप अपने काम के बारे में बतायें। रेलवे में आप मालगाड़ी का परिचालन देखते हैं। उसमें आप कैसा महसूस करते हैं?
ज्ञान – एक रेलवे कर्मी होने के नाते मुझे इस विषय में ज्यादा नहीं कहना चाहिये। पर यह तो है कि मालगाड़ी के परिचालन के घटक सवारी गाड़ियां चलाने के रेलवे के दायित्व के नीचे दबे हैं। संसाधनों की कमी है और सामाजिक दायित्व के नाम पर उन संसाधनों का बड़ा हिस्सा सवारी गाड़ियां ले जाती हैं, जिनसे बहुत कम आमदनी होती है। कुल मिला कर लगता है कि हमें डेढ़ टाँग से मैराथन दौड़ने को कहा जा रहा हो!
माह – अण्णा हजारे के बारे में आपका क्या कहना सोचना है?
ज्ञान – मैने पिछले चुनाव में बहुत जद्दोजहद कर वोट डाला था। मुझे इस प्रणाली से बहुत आशा नहीं है। पर यह अभी (विकल्प न होने की दशा में) मैं ट्रायल पर रखना चाहता हूं। अत: हजारे जी का यह कहना कि लोग दारू/रिश्वत के आधार पर वोट देते हैं, अपना अपमान लगता है। मैं अपने को उनके साथ आइडेण्टीफाई नहीं करता। बहुत दम्भ लगता है उनके व्यक्तित्व में।
माह – अब दम्भ की क्या कही जाये। हम सभी एक हद तक दम्भी हैं। हिन्दी ब्लॉगर तो एक सीमा तक दम्भी होता ही है। हिन्दी की टिप्पणी व्यवस्था यह दम्भ उपजा देती है। बाकी, आपका बहुत धन्यवाद यह इण्टरव्यू देने और टाइप करने के लिये!
ज्ञान – धन्यवाद मानसिक हलचल जी!

बधाई.. आपने अपना साक्षात्कार छापकर खुद को भी जीवन की गरिमा से युक्त अपने ब्लॉग के आम जीवों में शामिल करा लिया। ..हमने टिप्पणियों के जरिए इस पर मुहर भी लगा दी :)
LikeLike
विचार यूं बना कि मैने द हिन्दू मेँ एन. राम द्वारा लिया जा रहा असांजे का इण्टरव्यू देखा। हिन्दू विकीलीक्स के केबल्स छापता है भारत में। मुझे लगा कि यह इनहाउस इण्टरव्यू जैसा है। और अगर मेरा ब्लॉग मेरा इण्टरव्यू ले तो वह बहुत कुछ इस द हिन्दू के इण्टरव्यू जैसा होगा!
फिर यह पोस्ट बन गई! :)
LikeLike
मीनाक्षी जी की मेल से प्रतिक्रिया:
ज्ञानजी… हमेशा से आपके लेख मानसिक हलचल मचाते आए हैं……सोच रहे हैं दम्भी कैसे हो सकते हैं जब नायक ही नहीं बन पाए….
थोड़ा कष्ट तो होता है फिर भी एक नए उत्साह के साथ जीवन के दूसरे भाग की नई इनिंग खेलनी शुरु कर दी है…
मीनाक्षी
LikeLike
जी हां, दूसरी पारी की प्लानिन्ग में अगर उत्साह रहे तो पिछले अनुभव की बैकिंग के कारण सफल होने से कोई रोक नहीं सकता!
LikeLike
जी डी ने पहले जबाब सोचे या माह ने पहले सवाल
LikeLike
पहले सवाल!
LikeLike
आपके ब्लॉग पर कई नामालूम से साधारण पात्रों के विषय में… उनकी दिनचर्या ..उनके जीवन के बारे में पढ़ कर समाज को करीब से जानने का मौका मिलता है.
हाँ सबके साथ मेरी भी यही शिकायत है..इंटरव्यू थोड़ा और लम्बा होना था या फिर इसके कई भाग होने चाहिए
LikeLike
अच्छा लगा यह जान कर कि मेरे विचारों के प्रति आपकी कुछ उत्सुकता है।
धन्यवाद!
LikeLike
साहित्य समझ का दर्पण होता है , इसीलिए जी डी ने बहुत सोच-समझ कर बोला है :)
LikeLike
जी?! यह पोस्ट तो खर्राटे से लिख गया था – मात्र उतना समय जितने मेँ टाइप करने में उंगलियां चलीं। इस लिये अगर सोच समझ कर बोला मानें तो समझ कुछ कम ही निकलती है! :)
LikeLike
‘aaeena mujhse meri pahli si surat mange’……………..
‘bachha…dadda se…..khud ko samjhne ki sirat mange’……………………..
pranam.
LikeLike
वाह, सुन्दर पंक्तियां!
LikeLike
“यह जरूर है कि जिन्दगी में हर आदमी नायक बनना चाहता है। वह न बन पाना (अपने परिवार-कुटुम्ब के लिये भी न बन पाना) कष्ट तो देता ही है”..सत्य कहा आपने …interview शोर्ट था लेकिन कुछ ज्ञान की प्राप्ति भी हुए
LikeLike
जिन्दगी के पचासवें दशक में होने वाले परिवर्तन ज्यादा गहरे होते हैं – यह व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कह सकता हूं। इसकी हताशा और आगे के बारे में बदलता नजरिया अनुभव करने लायक चीज है।
आपको यह पोस्ट काम की लगी, धन्यवाद गोपालजी।
LikeLike
अभिषेक जी की बात से मेरी भी सहमति है।
फेका-फाकी वाले ब्लॉगिंग के दौर में जमीनी स्तर पर जुड़े पोस्टों से ही मन जुड़ाता है वरना तो कुछ जगह ऐसे ऐसे बनावटी बोल लिखे पढ़े जाते हैं कि कोफ्त होने लगती है उन्हें पढ़ते हुए। उन पोस्टों को पढ़ते ही मन में सवाल उठता है कि बंदा दुखी है या दुखी होने का हरदम दिखावा करता है। उपर से जो थोथे कमेण्ट आते हैं ….. वाह वाह….बहुत खूब….आप के जैसे मन वाले …….tit tit tit तो मन यही कहता है कि कित्ते तो मुस्की मारते दुखियारे जीव इसी ब्लॉग जगत में विचर रहे हैं और लोग हैं कि दुनिया से ‘परदुख-कातरी’ जमात के लुप्त होने का रोना रोते हैं :)
LikeLike
जमीनी स्तर पर जुड़ना शायद चरित्र का विशिष्ट अंग है। मसलन आप जिस तरह से अनुभव करते हैं परिवेश को, या गिरिजेश करते हैं, राहुल सिंह जी में भी वह दीखता है … आठ दस और लोग हैं … आप लोगों की अनुभूति का स्तर मेरे अपने स्तर से कहीं ज्यादा प्रोफॉउण्ड है। गांव को आप लोगों ने जिस तरह समझा है, उससे शहर को एक बेहतर तरह से देख पाते होंगे।
शायद अपनी बातें भविष्य में एक पोस्ट के माध्यम से कहनी चाहियें।
LikeLike
भैया प्रणाम , आपका interview देखकर सारा काम छोड़ बैठ गई मेरा कंप्यूटर ३-४ दिन से खराब था आज ही बना सो देर हो गई , लेकिन भैया आधा अधुरा interview मजा नहीं आया . खुद को किताबी कीड़ा कहना आपकी इमानदारी दिखाती है वर्ना इस शब्द के कहे जाने पर तो बवाल हो जाता है . मै गर्मी की छुट्टी में इसबार allahabad नहीं आ पाऊँगी क्योकि अनुज ( मेरा बेटा ) का 10th है छुट्टी नहीं है . लेकिन मेरे पति जायेंगे आपसे जरूर मिलेंगे .
LikeLike
सन्ध्या, इस तरह की आत्मीय टिप्पणियां किसी भी ब्लॉगर के लिये बड़ा ईनाम हैं। धन्यवाद।
आपके बेटे के लिये बहुत शुभ कामनायें। आपके पति जी मिलें तो बहुत अच्छा लगेगा।
LikeLike
रर (?) से एक इंटरव्यू लेने का मसाला छींबौ (?) को मिल गया. यूरेका!
LikeLike
शुभ काम में देरी क्यों! लेड्डालिये! :)
LikeLike