
रात गहराती है तो बोलता है रेंवा। मध्यमा उंगली जितना कीड़ा है यह। रात का सन्नाटा हो तो यह आवाज सुनाई देती है। झनझन की आवाज। रेंवा बोलता है, मानो रात बोलती है।
गंगा की रेत में एक लम्बी ट्रेल मिली। मानो कोई जीव बहुत लम्बी यात्रा कर के गया हो। करीब आधा किलोमीटर तक तो मैने उस ट्रेल को फॉलो किया। एक सज्जन दातुन मुंह में दबाये चले आ रहे थे – उनसे पूछा – ये किसके पैर हो सकते हैं।
लोग यहीं रह रहे हैं बचपन से। चढ्ढी पहनने का शऊर नहीं रहा होगा, तब से यह रेती, यह पानी की धारा देखते रहे होंगे। अधेड़ हो गये हैं वे सज्जन। पर लगता है देखने का शऊर अभी भी न आया। बोले – कोई चिड़िया है।
चिड़िया? पर इतनी दूर तक रेत में क्यों चली? उड़ी क्यों नहीं?
उन्होने दूसरा कयास लॉब किया – केछुआ होये!
कछुआ बहुत सही लगा कयास मुझे। शायद कछुये का बच्चा हो। दूर तक चलता चला गया और अंतत गंगाजी में कूद गया हो। अगले तीन चार दिन तक हम पांड़े दम्पति इस तरह की ट्रेल देखते और अनुमान लगाते रहे कि छोटे कछुये कहां से चल कर कहां जा रहे होंगे।
पर आज सवेरे सारी कल्पनायें ध्वस्त हो गयीं। पत्नीजी ने देखा कि एक कीड़ा चलता चला जा रहा है और उसके चलने के निशान वही हैं जो हम पिछले कई दिनों से देखते आये हैं। अरे, यह तो रेंवा है!
रेंवा की डिसकवरी की थ्रिल जल्दी ही फिक्र में तब्दील हो गयी। अरे, जल्दी यह कहीं ठिकाने पर पंहुच जाये वर्ना कोई चिड़िया इसे सुबह के पहले कीड़े के रूप में उदरस्थ कर जायेगी। जल्दी जाओ रेंवाप्रसाद अपने गंतव्य। तुम रात के जीव हो, दिन में तुम्हारा टहलना निरापद नहीं!
फोटो? मेरा मोबाइल कैमरा बेकार निकला इस जीव का चित्र लेने में। पैर से रोकने पर रेंवा थम नहीं रहा था – दायें बांये से निकल कर चलता ही जा रहा था। और चलने वाली चीज का चित्र मोबाइल का कैमरा हैंचता नहीं ठीक से! :)


यह सिकाडा है -आपकी पोस्ट से एक अफसोसनाक मंजर यह सामने आता है की आप सहित (क्षमा कीजियेगा ) एक से एक शूरमा यहाँ आये और आप उन्हें रेवा (जो कि एक स्थानीय नाम है) बताकर निवृत होते रहे और लोग भी लाल बुझककडी खेल में शामिल होते गए …..सामान्य जीव जंतुओं के भी प्रति एक आम भारतीय की ऐसी निरक्षरता मन दुखी करती है –
अरिस्टाटिल भी इतना लबार विवरण न देता ..
अगर अपनी अफसरी को थोडा दर किनार करें या अपने भृत्यों का सहारा लें तो बगल के प्राणी शास्त्र विभाग से इनकी पहचान करके तब इन पर पोस्ट लिखें …..उत्तरदायित्वपूर्ण ब्लागिंग के कुछ तो कोड होने चाहिए ..
बहरहाल आपके इस न्यू फ़ाउंड प्रकृति प्रेम के जज्बे को सलाम मगर ऐसी पोस्टें मुझे दुखी कर जाती हैं !
सिकाडा का गूगल इमेज सर्च का लिंक।
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धन्यवाद मिश्र जी। मैने खुद घण्टा भर लगाया था शब्दकोष और नेट खंगालने में। :-(
वैसे सिकाडा के चित्र जो गूगल सर्च में हैं, उनसे हमारा रेंवा मैच नहीं खाता। उसकी धुन्धली तस्वीर जो मोबाइल से ली थी, पोस्ट में लगा दे रहा हूं! यह पतला, लम्बा था और इसके पंख फैले हुये नहीं थे।
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मै आपकी चुम्मी लेना चाहूँगा. अनुमति है?
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श्योर! आई शैल बी ऑनर्ड!
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जानकारी रोचक है।
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चींटियों के साथ खेल करना रोचक तो होता ही है। ध्यान से चींटियों की कतार देखने पर अक्सर दो चींटियां आमने सामने आ जाने पर क्षण भर के लिये मूड़ी से मूड़ी सटाकर रूकती हैं और फिर दांये बांये से निकल जाती हैं और आगे जाकर फिर किसी सामने से आती चींटी से मूड़ी से मूड़ी सटाकर क्षण भर के लिये रूकती हैं।
यह प्रक्रिया देखने में रोचक तो लगती है लेकिन कभी कभी इसे इंसानी व्यवहार से तुलना करने पर यूं लगता है जैसे कि चींटियां आपस में किसी छुपा ले जाने वाली घटना पर खुसर फुसर बातें शेयर करती जा रही हैं – अरी कुछ सुना……..अरी…..
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कुछ न कुछ सम्पेषण जरूर करती होंगी। यह न कहती हों कि अरे उस क्रेंकी ब्लॉगर ने फिर हम पर पोस्ट ठेली है! :)
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:)
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झिंगुर, टिड्डा और अब…. रेंवा, कैसे कैसे प्राणी पनप रहे हैं नेताओं के साथ साथ :)
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जी हां! उनको क्रेडिट कि नेता परेता के रहते भी जी पा रहे हैं! :)
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वाह, रेवां का वर्णन बढ़िया रहा. छोटे से कीड़े जितना शोर मचाते हैं उतना बड़े बड़े जानवर भी नहीं मचा पाते. वैसे यह ट्रेल का खेल बचपन में गर्मियों की छुट्टियाँ बिताने का सबसे अच्छा सहारा होता था.
घुघूती बासूती
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गर्मियों की छुट्टियां क्या, हमारे लिये तो रोजमर्रा की जिन्दगी के नैराश्य का एण्टी-डोट हैं ये!
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गिरिजेश राव, ई-मेल से –
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एक खेल तो मैं अभी भी चींटियों की लकीर से करता हूं। उनके रास्ते की काल्पनिक लकीर को उंगली से घिस कर मिटाता हूं तो पीछे वाली चींटी को आगे वाली से फॉलो करने का सिगनल बन्द हो जाता है। कतार तितर बितर हो जाती है चींटियों की। फिर उसे वे सप्रयास जोड़ती हैं!
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sir pheromones… the ant which discovers the food piece leave pheromones to the target (usually a piece of food). You can see that the path taken by the ants is longer than what it would have been. Pheromones are chemical substances secreted by animals/insects which can be followed/identified by the same species or friends/enemies.
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फेरोमोंस पर मुझे अपनी एक पुरानी ब्लॉग पोस्ट याद हो आई! :)
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निशान तो हमने भी बहुतेरे देखे हैं ऐसे वाले …पर जीव का नाम आज जाना.
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गंगाजी की रेती में अनेक प्रकार की ट्रेल मिलती हैं। टिटिहरी की, ऊंट की, कछुये की, गुबरैले की …
टिटिहरी उड़ने की बजाय बहुत दूर तक रेत में चलती है!
मुझे लगता है कि – Trails of birds, insects and animals on Ganges Bank of Shivkuti नामक शोध भी किया जा सकता है! एक पी.एच.डी. भी झटकी जा सकती है! :)
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सुशांत जी मेरे ख्याल से भण्ड़री नहीं – भडकरी होगा
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आज तो एक नई जानकारी मिली….गाँव में रात के सन्नाटे में काफी आवाजें सुनी हैं….इसमें एक रेवां की भी होगी..पर नाम आज ही जाना
पहले हमें भी लगा कि बारिश के मौसम और गंगा तट की सुबह ने कोई कविता लिखवा ली.
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