जल्लदवा प्वॉइण्ट, जाल और हाई स्कूल परिणाम


जल्लदवा, वह मोटा, गठे शरीर वाला प्राणी जो सवेरे सवेरे अपने घर से निषादघाट पर मुंह में मुखारी दबाये आता है और घाट पर आते ही उल्टी नाव के बगल में अपनी कमीज (जिसके बटन पहले से खुले होते हैं) उतार, लुंगी खोल कच्छे की अपनी नैसर्गिग पोशाक में आ जाता है, वह हमारे आने से पहले घाट पर था।

अपनी नैसर्गिक ड्रेस में वह आ चुका था और पानी के किनारे पांव आगे फैला कर बैठ गया था। आस पास चार पांच लोग और थे। शिक्षा व्यवस्था पर चर्चा हो रही थी। कल उत्तरप्रदेश में हाई स्कूल का रिजल्ट आया है। वह सन्दर्भ दे रहा था कि फलनवा-फलनवा पास हो गये हैं। बतौर उसके अईसी पढ़ाई का क्या फायदा!

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जल्लदवा, मेरा कयास है कि कछारी दारू व्यवसाय से जुड़ा होगा किसी न किसी प्रकार, को भी शिक्षा व्यवस्था में मिलते पानी से फिक्र है – यह जानकर मुझे अच्छा लगा। आस पास के लोग भी इस बात में सहमत थे कि पढ़ाई मजाक बन गयी है।

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एक और सज्जन पास ही में अपना जाल समेट रहे थे। जाल निकाल कर वे घाट पर जमीन पर जाल सुलझाने लगे। उसमें से पतली पतली उंगली बराबर सात आठ मछलियां भर निकली। मेरे पूछने पर उन्होने (नाम बताया रामकुमार) मेरा ज्ञानवर्धन किया –

जाल डालने के पहले जगह देख लेते हैं, जहां मछरी बुल्का मार रही हों, वहां डालते हैं। आज मछली नहीं फंसी, वे चल नहीं रही थीं। यह जाल अलग अलग किसिम का होता है। नाइलोन का जाल आता है छ सौ रुपये किलो। यह जाल छ सौ का है। ज्यादा मजबूत नहीं है। घरचलाऊ है। माने, घर के काम भर मछली पकड़ने को। व्यवसायिक जाल नहीं।

अभी कुछ समय पहले ही डाला था जाल, जब आप वहां (हाथ से लगभग एक किलोमीटर दूर इशारा कर) से आ रहे थे।

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मैं अन्दाज लगा लेता हूं कि निषाद घाट के ये लोग जरूर पहचानते हैं हमें। कि ये लोग आ कर हर गतिविधि कौतूहल से देखेंगे और फोटो खींचेंगे। अपनी तरफ से आगे बढ़ कर बातचीत नहीं करते, पर हमें संज्ञान में लेते जरूर हैं।

पत्नी जी दूर खड़ी गुहार लगा रही थीं – देर हो रही है, वापस चलो। मैने रामकुमार से विदा ली। एक और व्यक्ति से मुलाकात पूरी हुयी और सूत भर ज्ञान बढ़ा परिवेश का!

मेरे मन में विचार बुल्का मारने लगे!

अपडेट – अरविन्द मिश्र जी अपनी टिप्पणी ठेलार्थ मछलियों के चित्र मांग रहे हैं। ये रहा। ऊपर के चित्र में रामकुमार जी के दायें जमीन पर जो छोटी मछलियां हैं, उन्ही का पास से लिया चित्र है यह।

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Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

34 thoughts on “जल्लदवा प्वॉइण्ट, जाल और हाई स्कूल परिणाम

  1. ‘घर चलाऊ’ जाल में भी आप कितनी मछलियाँ [?] फांस लेते है ज्ञान दा !

    ‘घर चलाऊ’ ‘जाल’ अब नाकाम है,
    ‘मछलियाँ’ इतनी ज़्यादा है यहाँ,
    और फंसने के लिए बेताब भी…….
    .
    ‘व्यव्यासिक’ अब तो ‘फंडे’ चाहिए,
    ‘राजनीति’, ‘धर्म’ भी अब कारोबार,
    नित नए गुर आजमाना चाहिए !

    http://aatm-manthan.com

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    1. यह जाल पुराना है और पैबन्द लगा भी। पर शायद यही इसका यू.एस.पी. (यूनीक सेलिंग प्रोपोजीशन) भी है! :)

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  2. गंगा किनारे मछलियाँ भी दिख जाती है ..बच के …मछलियों का शौक अच्छी बात नहीं है ..अच्छे मांसाहारी बी इनसे परहेज रखते हैं !

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    1. एक बिना लहसुन प्याज खाने वाला जीव नसीहत को पूरी गम्भीरता से लेता है वाणी जी।

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  3. समुद्र किनारे बैठे बैठे आप की बदौलत गंगा जी के दर्शन हो जाते हैं रोज, आभार्।
    “मेरे मन में विचार बुल्का मारने लगे!” क्या विचार बुल्का मारने लगे वो तो बताया नहीं

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  4. देश की भीषणतम समस्यायें ऐसे ही निपटा दी जाती हैं, नदी किनारे। मछली वही फँसती हैं जाल में जो इनकी बात सुनने आ जाती हैं। आजकल तीन से अधिक नहीं फँसती हैं एक बार में।

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    1. मैं भी सोच रहा था काहे मेहनत करी रामकुमार जी ने। शायद यह उपक्रम उनका सवेरे का मनोविनोद भर था!

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  5. सूत भर ज्ञान तो हमारा भी बढ गया जी
    प्रणाम

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