धनबाद भारत की कोयला-राजधानी है। मैं इसके आसपास के क्षेत्र – धनबाद-बोकारो-चास-फुसरो में हूं। कुछ जगहों से गुजरा, और कुछ के बारे में सुना – मतारी, निचितपुर, तेतुलामारी, महुदा, जांगरडीह, तुपकाडीह, मऊजा, जोगता, कतरासगढ़। यहां जमीन में जमीन कम कोयला ज्यादा है। कई कई जगह जमीन है ही नहीं, कोयला है। गंगा की बालू और दोमट मिट्टी को जीने वाले के लिये उसकी प्रवृत्ति अनुसार अलग अलग अनुभव देती है यहां की जमीन। जमीन के नीचे से निकले कोयले और सतह पर ऊबड़ खाबड़ खुरदारे पर हरे भरे परिदृष्य में कुछ है जो पास खींचता है।
मैं इस जगह से मोहित हो यहीं रहना चाहूंगा? शायद हां। शायद नहीं। सूखी कोयले की धूल सांस के सहारे ले कर आंतों तक पहुंचाना मुझे गवारा नहीं। और कितनी देर आप वातानुकूलन के सहारे रहेंगे। सही समय शायद बरसात का हो जब कोयले की धूल बैठ जाती हो। चौमासा किया जा सकता है इस इलाके में। उससे ज्यादा शायद नहीं, अगर जीविका बाध्य न कर दे।
धनबाद से चलते समय ध्यान गया पानी की किल्लत और कोयले पर। लोग सड़क के किनारे म्यूनिसिपालिटी के नल से पानी लेते भीड़ में दिखे। कई जगह साइकलें दिखीं, जिनपर अनेक बालटियां या अन्य बर्तन टंगे थे। इसके अलावा साइकल पर फोड़ ( खदान से निकला कोयला जो कफी देर खुले में जलाने के बाद घरेलू इन्धन लायक बनता है) के गठ्ठर या बोरे ढ़ोते लोग दिखे।
करीब पचास लोग रहे होंगे अपने प्लास्टिक के डिब्बों के साथ पानी की प्रतीक्षा में और करीब 7 से दस क्विण्टल तक ले कर चलते होंगे ये लोग साइकल पर फोड़ को।
मुझे बताया गया कि कल कारखानों में काम करने वाले लोगों की किल्लत है इस इलाके में। लोग साइकल पर अवैध खनन का कोयला ढ़ो कर बहुत कमा लेते हैं कि कल कारखानों में बन्धी बन्धाई तनख्वाह पर काम करना उन्हे रुचता नहीं। और अवैध गतिविधि का आलम तो हर तरफ है। हर पचास मीटर पर एक साइकल पर फोड़ ढ़ोता आदमी दिखा। करीब पचीस तीस किलोमीटर पैदल चलता होगा वह साइकल के साथ। दिन की गर्मी से बचने के लिये सवेरे भोर में निकल लेता होगा। अवैध खनन की प्रक्रिया में जान जाने या चोट लगने का खतरा वह उठता ही है। प्रशासन के छोटे मोटे लोगों को दक्षिणा भी देता ही होगा।
करीब डेढ़ साल पहले यहां आया था, तब भी कोयला ढ़ोने का यही दृष्य था। अब भी वही था। मेरी पत्नीजी कहती हैं, कितनी फोटो लोगे इन लोगों की। शायद सही कहती हैं – फोटो लेने की बजाय मुझे वाहन रुकवा कर उनसे बातचीत करनी चाहिये। पर ड्राइवर पांड़े रोकता ही नहीं। उसे गंतव्य पर पंहुचने की जल्दी है।
हम सभी गंतव्य की तरफ धकेल रहे हैं अपने आप को। न दायें देखते हैं, न बायें।
अजीब मन है मेरा – फोड़ का अवैध धन्धा करने वालों के प्रति मन में सहानुभूति जैसा भाव है जबकि गंगा के कछार में अवैध शराब बनाने वालों के प्रति घोर वितृष्णा। फोड़ का फुटकर व्यवसाय यूं लगता है मानो इण्डस्ट्रियल सिक्यूरिटी फोर्स और अवैध खनिकों- साइकल पर ले कर चलने वालों का, बहुत बड़ा ज्वाइण्ट सैक्टर का अवैध उपक्रम हो। भ्रष्ट व्यवस्था भी बहुत पैमाने पर रोजगार की जनक है। भ्रष्टाचार से लड़ने वाले जानते होंगे।
फोड़ फुटकर लिमिटेड
केन्द्रीय इण्डस्ट्रियल सिक्यूरिटी फोर्स और
अवैध खनिक गण का संयुक्त उपक्रम (सामाजिक मान्यता प्राप्त)
लगता है समय बदलता है धारणायें। मैं अपने बदलते नजरिये पर खिन्न भी होता हूं और आश्चर्य चकित भी! पर नजरिये का क्या है, बदलते रहेंगे।
इस क्षेत्र में साइकल का सवारी के रूप में कम, सामान ले जाने के रूप में अधिक प्रयोग होता है। साइकल पर लोग कम्यूट करते नहीं दिखे; पर फोड़, पानी, नये बर्तन, मुर्गियां, फेरी का और घरेलू सामान ले जाते बहुत दिखे। लोगों के पांवों की बजाय साइकल ज्यादा काम करती दीखी।
टाटा मैजिक, मार्शल या ट्रेक्स जैसे चौपहिया वाहन में थन तो मुझे नहीं दिखे पर उन्हे दुहा बहुत जाता है। बहुत से ये वाहन डबल डेक्कर दिखे। ऊपर भी लोग बैठे यात्रा कर रहे थे। ऊपर जो यात्रा करता है, वह भगवान के ज्यादा करीब लगता है। भगवान उसे जल्दी बुला भी लेते होंगे अपने पास। एक वाहन पर तो नीचे और ऊपर एक बैण्ड पार्टी जा रही थी। अपने साज सामान और वर्दी से लैस थे बजनिये। मुझे पिछले वाहन से फोटो लेते देख हाथ हिला हिला कर बाई-बाई करने लगे वे। कौन कहता है कि लोग फोटो नहीं खिंचाना चाहते। शर्त बस यह है कि फोटो खींचने वाला निरीह सा जीव होना चाहिये!
सड़क के किनारे ओपन कास्ट माइंस से निकले कोयले के मलबे के पहाड़ दिखे। उनपर वनस्पति उग आई है और सयास वृक्षारोपण भी किया जा रहा है। वन विभाग की गतिविधियों ने मुझे बहुत प्रभावित किया। बांस की खपच्चियों से नये रोपे बिरवों के लिए सड़क के किनारे थाले और बाड़ मनोहारी थे। उत्तर-प्रदेश होता हो एक ओर से वन विभाग खपच्चियां लगाता और दूसरी तरफ से भाई लोग उखाड़ कर समेट ले जाने का पुनीत कर्म करते, सतत। यह झारखण्ड यूपोरियन पुण्य़ात्माओं से संक्रमित नहीं हो पाया है अब तक! केवल मधु कोड़ा जैसे महान ऋषि भर हैं जो जनता को व्यापक स्तर पर अपना आर्यत्व नहीं सिखा सके हैं।
ओह, नहीं। यह पोस्ट तो ज्ञानदत्त पांड़े की पोस्ट साइज से बड़ी हो गयी है। कोई यह न कहने लगे कि चुरातत्व का कमाल है यह।
मैं पुरानी दो पोस्टें उद्धृत करना चाहूंगा –
पॆट की खातिर किया गया दुरहु कार्य भ्रष्टाचार के दायरे मे ना लिया जाये बेहतर रहेगा . धनवाद मे बडे बडे मगरमच्छ भी है जो कोयले की हर रैक पर लाखो रुपये गुण्डा टैक्स वसूल करते है
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यही दुरुह कार्य करने वाला सिक्यूरिटी फोर्स को, पुलीस को, रंगदार को जरूर देता होगा दक्षिणा!
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केवल मधु कोड़ा जैसे महान ऋषि भर हैं —
vaise hamare India me Madhu Koda ji jaise logo ki kami nahi hai .
भ्रष्ट व्यवस्था भी बहुत पैमाने पर रोजगार की जनक है।
yeh baat to sahi hai .
हम सभी गंतव्य की तरफ धकेल रहे हैं अपने आप को। न दायें देखते हैं, न बायें।
yeh to aapka darshnik andaaj hai .
शर्त बस यह है कि फोटो खींचने वाला निरीह सा जीव होना चाहिये!
lekin yeh baat aap apne aap par kyuon laagu kar rahe hain ?
yeh sahi nahi hai .
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गौरव जी, भ्रष्ट आचरण जन जन के रोजमर्रा के जीवन का इतना अभिन्न अंग बन गया है कि कभी कभी लगता है कि उसके बिना जी नहीं पायेंगे लोग। शॉर्टकट में यकीन करते लोग, अपनी सुविधा के लिये हर कानून कायदा तोड़ते लोग, चरित्र की कसौटी पर अपने को कम औरों को अधिक तोलते लोग – ये तो दयनीय हो जायेंगे जब जीवन में भ्रष्टाचार नहीं रहेगा! 🙂
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इस क्षेत्र को देश ठीक वै से ही भूल गया है जैसे विश्व, तिब्बत बर्मा या अफ़्रीका को…
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जीवन यापन तो करना ही है और शायद यहां इसके अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं होगा. रही बात गंगा की कछार में अवैध शराब बनाने की तो वहां जीवन यापन करने के लिये और धंधे भी हो सकते हैं. कानून विरोधी काम तो है ही फोड़ का धन्धा, लेकिन सरकार क्या इन लोगों को कोई रोजगार उपलब्ध करा सकती है ? मनरेगा को छोड़ दीजिये.
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लोग कहते मिले कि इस काम में इतना पैसा है कि और मजदूरी कोई करना नहीं चाहता। बाकी काम के लिये लोग नहीं मिलते। इसमें कितना तथ्य है, कह नहीं सकता। इन साइकल पर कोयला ढ़ोने वाले लोगों से बातचीत हुयी ही नहीं।
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कितना सूक्षम है वैध-अवैध का अंतर। सरकार से मिले लाइसेंस पर करोडॊं का खनन करके लोग करोडपति बन सकते हैं और गरीब जब अपने हाथों मेहनत करके कुछ सिक्के कमाता है तो अवैध हो जाता है 😦
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बहुत महीन अंतर है। पर पाण्डव और कर्ण का अंतर हो जाता है जन जन की नजर में!
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अपने क्षेत्र धनबाद, बोकारो, फुसरो के आसपास का विवरण देती यह पोस्ट अच्छी लगी .. इस बार तो आप वापस लौट भी गए .. शायद कभी मिलना हो पाए !!
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अगली बार मैं ब्लॉग पर सूचना दे कर आऊंगा बोकारो, संगीता जी।
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आने वाले दिनों में योजना है ट्रवेल करने की. लॉग में सेव होगा या नहीं, ये नहीं पता.
मैं तो फोटो भी नहीं खिंच पाता.. खासकर जब लोग हों. सड़क, पेड़- पहाड़ तक ही खेंच पाता हूँ. उसमें भी पिछले ३-४ महीनों में खिंची गयी फोटू ऑफिस के फ़ोन में है तो पता चला कि वो ट्रांसफर ही नहीं कर सकता 🙂
बाकिये आपका लिखा कभी बड़ा नहीं लगा. आज भी नहीं. वो तो आपका डिस्क्लेमर देखकर पता चला कि आज शायद बाकी दिनों से कुछ लम्बा लिखा है आपने.
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अभिषेक, मैने देखा कि अगर मन में विचार हो कि आपको ट्रेवल के साथ ट्रेवलॉग संजोना है तो आप नयी जगह पर वह सब देखने लगते हैं जो सामान्यत: आप नहीं देखते। और एक सीमा के आगे फोटो लेना काउण्टर प्रोडक्टिव हो जाता है चूंकि वह आपके वैचारिक तारतम्य को ब्रेक करने लगता है। तब लगता है यह फोटो ले लें, वह ले लें। बहुत कुछ वैसे ही जैसे लोग कहीं जा कर शॉपिंग कर सोटकेस ठूंस लाते हैं!
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IS CYCLE-TRANSPORT KO TO ICON BANA KE RAKHNA MAJEDAR HOGA…………
PRANAM.
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@फोड़ का अवैध धन्धा करने वालों के प्रति मन में सहानुभूति जैसा भाव है …
जभी तो हम आपको नियमित पढते हैं। आपकी यह अकेली पोस्ट राज्य की अव्यवस्था का आंखों देखा हाल बताती है। सरकार और उसके पैरोकार कितना काम कर रहे हैं देश के लिये यह स्पष्ट है। फिर भी उन्हें नहीं लगता कि देश में असंतोष या उनसे असहमति की कोई गुंजाइश है।
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अनुराग जी, मैं तो मात्र ट्रेवेलॉग लिखने का यत्न कर रहा था। स्थान देख कर मन के भाव।
फिर लगा कि ठीक से यात्रा की ही नहीं। सही यात्रा तो विचारों के क्लीन स्लेट से होती होगी।
खैर मैं वापस आ गया हूं आज सवेरे इलाहाबाद में!
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” कौन कहता है कि लोग फोटो नहीं खिंचाना चाहते। शर्त बस यह है कि फोटो खींचने वाला निरीह सा जीव होना चाहिये!”
😦
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आपको मेरी निरीहता पर यकीन नहीं? यह सुबकने वाली स्माइली यही कहती है! 🙂 🙂
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कमेन्ट पोस्ट करने में एक गलती हो गयी. मैं “फोटो खींचने वाला” को “फोटो खिंचाने वाला” पढ़ बैठा. Hence, 😦
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So you agree in my harmlessness. Many of my colleagues and employees do not! 😦
And probably some readers on the net, too! 😦
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