
कभी कभी लगता है ब्लॉग बन्द करने का समय आ गया। इस लिये नहीं कि पाठक नहीं हैं। पाठक की अनिवार्यता को ब्लॉग ले कर चलता है और उसे बढ़ाने के निश्चित टोटके हैं। वह टोटके पालन करता रहा हूं, यह शायद अर्ध सत्य होगा; पर उन टोटकों की पहचान जरूर है। लिहाजा, पाठक की कमी का कारण तो नहीं ही है। कारण यह भी नहीं है कि रूठ कर मनाने वालों की सहानुभूति प्राप्त करनी है। वह अवस्था पार कर चुका हूं।कारण नितांत व्यक्तिगत है।
अगर ब्लॉग मानसिक हलचल की अभिव्यक्ति है तो बहुत कुछ ऐसा है, जो चलता है मन में पर अभिव्यक्त नहीं हो सकता। और जो हो सकता है, वह अनेक बार उसी प्रकार से हो चुका है। अपनी पिछली तमाम पोस्टें देखूं तो उनमें से कुछ हैं, जिनको लिखते और पब्लिश बटन दबाते देर नहीं लगी। अधिकांश में एक झिझक हाथ रोकती रही है। एक नहीं शायद दो – पहली तो यह कि जो कह रहा हूं, उसे और परिमार्जित, और तराशा होना चाहिये। दूसरी यह कि शायद जीविका के जो बन्धन हैं, उनको देखते हुये बहुत कुछ मुझे नहीं कहना चाहिये। यह दोनो ही झिझकें अब ज्यादा मुखर होने लगी हैं।
खैर, मात्र बोरियत के चलते यह ब्लॉग बन्द करूं तो शायद ही करूं – चूकि मेरे पास ब्लॉग के अलावा कोई एजेण्डा नहीं है। किसी पत्र-पत्रिका में मुझे नहीं छपना है और कोई पुस्तक लिखने का संकल्प तो है ही नहीं। लिहाजा अपनी रफ्तार से यह ब्लॉग चलते रह सकता है।
पर, और यह बड़ा पर है, कि लेखन को मैं उत्तरोत्तर गम्भीर कर्म मानने लगा हूं। जिस तरह के लेखन क्षेत्र में लोग हैं, और जिस स्तर की उनकी कलमें हैं, उन्हे देख कर गम्भीर कर्म मानना कुछ अच्छी बात नहीं। पचासी प्रतिशत पत्रकार लेखन और अस्सी प्रतिशत साहित्य लेखन वाहियात की सीमा से सटा है। ब्लॉग लेखन उसके आसपास होगा। माइक्रो-ब्लॉग तो उससे कहीं ज्यादा अर्थहीन है।
सोचना-समझना व्यक्तिगत है तो झिझकों से पार पाना (या रिगल आउट – wriggle out – होना) भी नितांत व्यक्तिगत मसला है। शायद आप रिगल आउट हुये बिना भी लम्बे अर्से तक चलते चले जाते हैं। वही मैं कर रहा हूं।
अच्छे-बुरे का बोध है मुझे
लेकिन अच्छे को पहचान कर
मैं बुरे के आगे झुक जाता हूं
क्योंकि मैं सदाकांक्षी हूं।
~ अज्ञेय
पुनरावलोकन –
टिप्पणियाँ क्या हैं?
कुछ परित्यक्त शब्द
मालिक पटक कर चल देता है
फिर लौट कर निरखने नहीं आता! 🙂
मेरे विचार से जीविका के बन्धन साथ लिखना जारी रह सकता है। समाज में अच्छे विचार तो की अभिव्यक्ति तो होनी ही चाहिये।
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मैं आपके विचार की कद्र करता हूं।
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मन की बातों की अभिव्यक्ति देने मे इस माध्यम का हर कोई अपनी रुचि, क्षमता और द्क्षता से करता है। हम भी।
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रुचि, क्षमता और दक्षता की सीमायें आगे ठेलते रहना चाहिये। अंग्रेजी में macho phrase है – pushing the envelope!
“To attempt to extend the current limits of performance. To innovate, or go beyond commonly accepted boundaries.”
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पर, और यह बड़ा पर है, कि लेखन को मैं उत्तरोत्तर गम्भीर कर्म मानने लगा हूं। जिस तरह के लेखन क्षेत्र में लोग हैं, और जिस स्तर की उनकी कलमें हैं, उन्हे देख कर गम्भीर कर्म मानना कुछ अच्छी बात नहीं। पचासी प्रतिशत पत्रकार लेखन और अस्सी प्रतिशत साहित्य लेखन वाहियात की सीमा से सटा है। ब्लॉग लेखन उसके आसपास होगा। माइक्रो-ब्लॉग तो उससे कहीं ज्यादा अर्थहीन है।
देव,
ईमानदारी से कहूँ तो यह वाहियात प्रतिशत तो अस्सी-पचासी न होकर अठ्ठानबे (९८) के आसपास है चारों मामलों में … पर वह अच्छा दो प्रतिशत निकल कर आये इसके लिये यह बहुत जरूरी है कि बाकी के प्रतिशत भी पूरे किये जायें… हमेशा बहुत ही अच्छा, लगभग कालजयी सा लिखने का दबाव खुद पर डाल जीना सही नहीं… ब्लॉगवुड में ही कई उदाहरण मिल जायेंगे आप को जो अपने लिखे की हर पंक्ति को झक्कास-दमदार बनाने के प्रयास में बोझिल ब बोरिंग हुऐ जा रहे हैं…
पाठक बढ़ाने के ‘निश्चित टोटकों’ के बारे में कभी लिखिये न, मुझ सहित कइयों के पास ‘निश्चित टोटा’ है इस प्राणी का … 😉
…
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हिन्दी ब्लॉगिंग में अनुगूंज वाली कड़ियां बन्द हो गयीं। अन्यथा हिन्दी ब्लॉगिंग के टोटके पर एक अनुगूंज ऑर्गेनाइज हो सकती थी! 😆
अनूप शुक्ल बेहतर बता सकते हैं – अनुगूंज के बारे में भी और टोटकों के बारे में भी!
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अब सब अपने-अपने ब्लाग पर ही अनुगूंज कर लेते हैं। 🙂
टोटके आप से बेहतर कौन बता सकता है? यह पोस्ट अपने आप में एक उत्तम उदाहरण है टोटके का। 🙂
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सत्य! जो देखना चाहें आप, वही दीखता है! 🙂
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अटठानबे प्रतिशत खराब लेखन ही दो प्रतिशत अच्छे लेखन की नींव की ईंट है। खराब न लिखा जाये तो अच्छे लेखन को कौन पूछेगा। खराब लेखन के फ़ायदे देखिये यहां बताये गये हैं:
खराब लिखने के फ़ायदे
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कहने को ब्लागजगत अथवा हिन्दी साहित्य की बात है लेकिन किसी भी क्षेत्र को देख लें असल खेल २ प्रतिशत का ही है। समस्या तब आती है जब जब जिनमें (ऐसा बोलने का पाप करके हम सुधीजन में अछूत न हो जायें) २ प्रतिशत में जाने की सम्भावना दिखती है लेकिन वो ९८ वें के फ़ेर में पडे रह जाते हैं। लेकिन शायद ये भी डार्विन की नीति है, अथवा प्रभु की माया
होइहि सोई जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावै साखा ।
या फ़िर लुडविग बोल्ट्जमैन की तरह लोगों की परवाह किये बिना अपना काम करते रहें कि अगर बरसों बाद भी लोग मेरे काम पर वापस लौटें तो देखेंगे कि मैने अधिकतर काम पहले ही समाप्त कर दिया है । उन्होने एक बार कहा था,
I am convinced that these attacks are merely based on a misunderstanding, and that the role of gas theory in science has not yet been played out….
In my opinion it would be a great tragedy for science if the theory of gases were temporarily thrown into oblivion because of a momentary hostile attitude toward it, as was for example the wave theory because of Newton’s authority.
I am conscious of being only an individual struggling weakly against the stream of time. But it still remains in my power to contribute in such a way that, when the theory of gases is again revived, not too much will have to be rediscovered…
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उपर वर्णित एक भी बात ब्लॉग बंद करने जैसी तो नहीं है तो यह मान कर चल रहे हैं कि बस ऐसे ही लिख गये कुछ ख्याल चलते चलते…लिखते रहिये.
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आज देखा, गंगाजी में पानी बढ़ा है। किनारे की रेत और गीली हो गयी है। केंचुये ज्यादा ही रेंग रहे थे रेत में। कई कई तो सौ-दो सौ मीटर चल चुके थे। एक चींटा कौव्वे की चोंच से बच निकला।
यह सब इण्टरनेट को न बतायेंगे तो कैसे पता चलेगा दुनियां को! 🙂
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ब्लॉग अपनी मर्ज़ी से जीने और कहने का मौक़ा देता है यही इसकी महत्ता है. जब दिल किया तब लिखा, जो दिल किया सो लिखा. कोई पेशेवर लेखक तो है नहीं ब्लागर कि पहले प्रकाशक की चिरौरियां कीं फिर उसकी समयसीमा से बंधकर हांफने का दौर शुरू… अच्छी लगती है ये स्वतंत्र उड़ान, मुझे तो बहुत अच्छी लगती है 🙂
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बिल्कुल! आपने कार्टून में बताया कि मंहगाई को हराने के लिये लंगोट में रहा जाये; तब से वही सोच रहा हूं!!! ऐसे ही होनी चाहिये स्वतंत्र उड़ान!
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पत्नी से डरा पति अगर पलंग के नीचे रहे तो किसी को क्या… उसकी मर्ज़ी… आखिर घर का मालिक है वो 🙂 🙂 🙂
हम भारतीय तो महंगाईनुमा पत्नी के ऐसे ही मालिक हैं
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kya dadda………..aap bhi………..aap to bare hain……aisa na kahen………..
pranam.
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क्या संजय, पोस्ट तो सरकाने दो! 🙂
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“…कभी कभी लगता है ब्लॉग बन्द करने का समय आ गया…”
हाँय?
आज से बीस या पचास साल बाद नत्तू पांडे जब गर्व से इसे दोस्तों मित्रों और रिश्तेदारों को दिखाएगा तो….
क्या अब भी आप ऐसा सोचते हैं
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ब्लॉग में गर्व की अनुभूति हो सकती है। कई लोग कर सकते हैं। मैं भी, जो पहले हिन्दी भाषा से कई दशक कटा रहा, इसमें संतोष व्यक्त कर सकता हूं कि बहुत कुछ अभिव्यक्त कर पा रहा हूं।
पर जैसा कहा, कहीं कहीं लगता है अभिव्यक्ति पर लगाम होनी चाहिये और कहीं कहीं लगता है कि जो नेट पर प्रस्तुत कर रहे हैं, उसके प्रकार का पुनर्मूल्यांकन होना चाहिये।
लखनऊवर्कशॉप – ये क्या नया जूजू है? 🙂
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लखनऊ वर्कशॉप को देखकर तो मैं भी चौंक गया हूं. क्या ये लल्जसेक (lulzsec) का किया धरा करामात है? पर शायद ये लगता है कि वर्डप्रेस के कमेंटिंग सिस्टम का एरर है – फोटो तो यह आपके ईमेल खाते से निकाल लेता है, मगर नाम कहीं और से उठा लेता है.
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आपका ब्लॉग पता, ई-मेल पता और आई.पी.एडेस और फोटो सभी एक सा है दोनो टिप्पणियों में। बस लखनऊ वाला बना दिया वर्डप्रेस ने! और लखनऊवर्कशॉप का ग्रावातार का फोटो भी आपका है!
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नायक की भाँति लगे रहिये, निर्णायक का कार्य औरों पर छोड़ दीजिये, आपको अच्छा लगता रहे तो शब्द सार्थक है।
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आत्मनातुष्ट का ही भाव प्रधान है ब्लॉग लेखन के मूल्यांकन में। अतुष्ट के बिन्दु तो मैने लिख ही दिये पोस्ट में।
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आपके मानकों पर चलूँ तो अस्सी प्रतिशत साहित्य लेखन, पचासी प्रतिशत पत्रकार लेखन, नब्बे प्रतिशत ब्लौग लेखन, और पिचानवे प्रतिशत माइक्रो-ब्लॉग (फेसबुकी) लेखन को वाहियात की सीमा में रखने का मन करता है.
मुझे लगता है कि ब्लौगिंग से जुड़े धीर-गंभीरमना व्यक्ति देरसबेर लेखन को गंभीरता से लेने ही लगते हैं. उनमें से बहुत से यदि गंभीर लेखन नहीं कर पाते हैं तो इसका कारण शायद उनमें मौलिक चिंतन, गहन अध्ययन, लेखकीय प्रतिभा, और प्रतिबद्धता का अभाव है. यह सब (अभाव) आपमें तो नहीं दिखता. मुझे वही लेखन भाता है जिसमें सरल सहज जीवन के तत्व झलकते हों… जैसे जवाहिरलाल की बातें या नदी-पुलिया के पास पैसे लोगों का वर्णन.
और जब वह सब पढता हूँ तो ये छटपटाहट, यह ऊहापोह निर्मूल जान पड़ता है. चाहे जो हो, बर्नआउट से तो बेहतर ही है वह सब कह पाना जो आप अपने इर्द-गिर्द घटते देखते हैं और यहाँ तक लाते हैं. और यह सब सरकारी सेवा के बंधनों को तोड़े बिना अच्छे से किया जा सकता है.
एक पोस्ट पाठक जुटाने के टोटकों पर और एक रूठे हुए लोगों पर आ जाये तो ब्लौगजगत में कुछ भूचाल कुछ धमाल मचे. बहुत दिन हो गए कुछ धमाकेदार पढने को नहीं मिला. 🙂
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जवाहिर लाल गायब था हफ्ते भर से। परसों एक दुकान पर कागज के ठोंगे में कुछ् खाता दिखा तो चैन आया। कल अपनी जगह पर था दातुन करता। एक काले कुकुर को कह रहा था – ले, तुन्हू मुखारी करिले त तोहरऊ दांत बरियार होई जाये (ले, तू भी दातुन कर ले। तब तेरे भी दांत मजबूत हो जायेंगे! ) ।
जवाहिरलाल पर तो उपन्यासिका लिखी जा सकती है! 😆
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लिख डालिए.
आजकल अज्ञेय को पढ़ रहे हैं क्या? ज्ञानोक्ति में भी कुछ पंक्तियां पढ़ी थीं. क्या हिंदी बलॉगर होने का प्रभाव अध्यावसाय पर भी पड़ रहा है.
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मैं ट्रेवेलॉग्स पढ़ रहा था/हूं। उसमें अज्ञेय भी हैं – एक बूंद सहसा उछली।
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अपना सोचा लिख कर दर्ज कर लेने में क्या बुराई है। उस में से जिसे सार्वजनिक करना हो करें। जिसे नहीं करना हो न करें। पर ब्लाग बंद क्यों करें।
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जी हां। बिल्कुल!
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