
सतीश पंचम ने मुझे किकी कहा है – किताबी कीड़ा। किताबें बचपन से चमत्कृत करती रही हैं मुझे। उनकी गन्ध, उनकी बाइण्डिंग, छपाई, फॉण्ट, भाषा, प्रीफेस, फुटनोट, इण्डेक्स, एपेण्डिक्स, पब्लिकेशन का सन, कॉपीराइट का प्रकार/ और अधिकार — सब कुछ।
काफी समय तक पढ़ने के लिये किताब की बाइण्डिंग क्रैक करना मुझे खराब लगता था। किताब लगभग नब्बे से एक सौ तीस अंश तक ही खोला करता था। कालांतर में स्वामी चिन्मयानन्द ने एक कक्षा में कहा कि किताब की इतनी भी इज्जत न करो कि पढ़ ही न पाओ! और तब बाइण्डिन्ग बचाने की जगह उसे पढ़ने को प्राथमिकता देने लगा।
फिर भी कई पुस्तकें अनपढ़ी रह गयी हैं और उनकी संख्या बढ़ती जा रही है। इस संख्या के बढ़ने और उम्र के बढ़ने के साथ साथ एक प्रकार की हताशा होती है। साथ ही यह भी है कि अपनी दस बीस परसेण्ट किताबें ऐसी हैं जो मैं यूं ही खो देना चाहूंगा। वे मेरे किताब खरीदने की खुरक और पूअर जजमेण्ट का परिणाम हैं। वे इस बात का भी परिचायक हैं कि नामी लेखक भी रद्दी चीज उत्पादित करते हैं। या शायद यह बात हो कि मैं अभी उन पुस्तकों के लिये विकसित न हो पाया होऊं!
मेरे ब्लॉग पाठकों में कई हैं – या लगभग सभी हैं, जिनकी पुस्तकों के बारे में राय को मैं बहुत गम्भीरता से लेता हूं। उन्हे भी शायद इस का आभास है। अभी पिछली पूर्वोत्तर विषयक पोस्ट पर मुझे राहुल सिंह जी ने कुबेरनाथ राय की ‘किरात नदी में चन्द्रमधु’ और सुमंत मिश्र जी ने सांवरमल सांगानेरिया की भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित पुस्तक ‘ब्रह्मपुत्र के किनारे किनारे’ सुझाई हैं। बिना देर किये ये दोनो पुस्तकें मैने खरीद ली हैं।
इस समय पढ़ने के लिये सांगानेरिया जी की पुस्तक मेरी पत्नीजी ने झटक ली है और कुबेरनाथ राय जी की पुस्तक मेरे हिस्से आई है। कुबेरनाथ राय जी कि पुस्तक में असम विषयक ललित निबन्ध हैं। पढ़ते समय लेखक के प्रति अहोभाव आता है मन में और कुछ हद तक अपनी भाषा/ज्ञान/मेधा की तंगी का अहसास भी होता रहता है।

खैर, वैसे जब बात किताबों और पढ़ने की कर रहा हूं तो मुझे अपनी पुरानी पोस्ट “ज्यादा पढ़ने के खतरे(?)!” याद आ रही है। यह ढ़ाई साल पहले लिखी पोस्ट है, विशुद्ध चुहुल के लिये। तब मुझे अहसास हुआ था कि हिन्दी ब्लॉगजगत बहुत टेंस (tense) सी जगह है। आप अगर बहुत भदेस तरीके की चुहुल करें तो चल जाती है, अन्यथा उसके अपने खतरे हैं! लेकिन उसके बाद, पुस्तकीय पारायण का टेक लिये बिना, गंगामाई की कृपा से कुकुर-बिलार-नेनुआ-ककड़ी की संगत में लगभग हजार पोस्टें ठेल दी हैं तो उसे मैं चमत्कार ही मानता हूं – या फिर वह बैकग्राउण्ड में किकी होने का कमाल है? कह नहीं सकता।
उस समय का लिखा यह पैराग्राफ पुन: उद्धरण योग्य मानता हूं –
भइया, मनई कभौं त जमीनिया पर चले! कि नाहीं? (भैया, आदमी कभी तो जमीन पर चलेगा, या नहीं!)। या इन हाई फाई किताबों और सिद्धांतों के सलीबों पर ही टें बोलेगा? मुझे तो लगता है कि बड़े बड़े लेखकों या भारी भरकम हस्ताक्षरों की बजाय भरतलाल दुनिया का सबसे बढ़िया अनुभव वाला और सबसे सशक्त भाषा वाला जीव है। आपके पास फलानी-ढ़िमाकी-तिमाकी किताब, रूसी/जापानी/स्वाहिली भाषा की कलात्मक फिल्म का अवलोकन और ट्रेलर हो; पर अपने पास तो भरत लाल (उस समय का मेरा बंगला पीयून) है!
कुल मिला कर अपने किकीत्व की बैलेस-शीट कभी नहीं बनाई, पर यह जरूर लगता है कि किकीत्व के चलते व्यक्तित्व के कई आयाम अविकसित रह गये। जो स्मार्टनेस इस युग में नेनेसरी और सफीशियेण्ट कण्डीशन है सफलता की, वह विकसित ही न हो सकी। यह भी नहीं लगता कि अब उस दिशा में कुछ हो पायेगा! किकीत्व ब्रैगिंग (bragging) की चीज नहीं, किताब में दबा कीड़ा पीतवर्णी होता है। वह किताब के बाहर जी नहीं सकता। किसी घर/समाज/संस्थान को नेतृत्व प्रदान कर सके – नो चांस! कत्तई नहीं!
आप क्या हैं जी? किकी या अन्य कुछ?!
प्रभुजी, अगले जनम मोहे किकिया न कीजौ!

यह तो मुझे अपने वाली सिचुएशन लगती है! :) या यूँ कहें कि यह कदाचित सभी पुस्तक प्रेमियों का हाल है। किताब कैसी है यह निष्कर्श तो किताब पढ़ के ही निकाला जा सकता है, किताब का कलेवर, लघु सारांश और लेखक के नाम के चलते बस एक शिक्षित अनुमान ही लगाया जा सकता है और हर अनुमान की भांति उसमें भी सही अथवा गलत दोनो ही होने की संभावना होती है चाहे किसी भी मात्रा में हो! :)
बाकी अपने बारे में तो यही समझना ठीक लगता है कि अपन किताबी कीड़े नहीं हैं। कोई रुचि की किताब है तो उसको पूरा पढ़ कर ही छोड़ेंगे और यदि नहीं पढ़ना है तो महीनों कोई किताब नहीं पढ़ेंगे। मेरे ख्याल से एक बैलेंस बना रहता है। :)
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आपकी रीडिंग हैबिट मुझसे बेहतर हैं। मैं तो कई किताबें आधे में पढ़ कर छोड़ चुका हूं। मन न लगने के कारण या फिर कुछ और सामने आ जाने के कारण।
बीच में ब्लॉगिन्ग ने ज्यादा समय खाया, पर वह अब एक तल पर आ गया लगता है।
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बेहतर है या नहीं यह तो मैं नहीं जानता पर ऐसा नहीं है कि मैंने जो किताब शुरु की वह खत्म भी की!! ऐसी कई किताबें हैं जो मैंने 5-10 पन्ने पढ़ कर छोड़ दी और कई लगभग आधी पढ़ कर भी छोड़ी हैं क्योंकि उनको और पढ़ने का धैर्य न रहा!! प्रायः ऐसा उन किताबों के साथ हुआ जो मुझे उपहार में मिली, कदाचित् इसलिए कि देने वाले ने मेरी रूचि ठीक से न समझी या अपनी रूचि अनुसार दे दी! :) पर अपनी खरीदी किताबों के साथ भी ऐसा कई बार हुआ। उदाहरणार्थ – मृत्युंजय को अभी समाप्त करना बाकी है, 1 साल हो चुका है लेकिन आधी ही पढ़ी है (साल भर पहले जब ली थी तभी पढ़ी थी वह भी), इस बीच 3 लोग उसको मुझसे लेकर पढ़ चुके हैं पूरा। :) यहाँ मेरे बुकशेल्फ़ पर “Plans to read” वाले शेल्फ़ में देखेंगे तो 18 किताबें दिखेंगी जिनको अभी पढ़ना बाकी है, किसी को थोड़ा पढ़ा है किसी को बिलकुल नहीं पढ़ा है और इनमे सबसे पुरानी किताब कदाचित् 2-3 वर्ष पहले की है। :) और अन पढ़ी ये सारी किताबें नहीं है मेरे पास, और भी कुछेक हैं जिनको यहाँ जोड़ने के लिए मुझे उनको निकालने की जो मेहनत करनी पड़ेगी वह मैं करना नहीं चाहता क्योंकि वे किताबें वैसे भी मेरे किसी काम की नहीं हैं! :)
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आप शेल्फारी के पन्ने से लगता है कि वोरेशियस रीडर हैं! निश्चय ही एकाग्र चित्त हो कर पढ़ते होंगे। मेरे ख्याल से आप पठन के बारे में “हॉउ टू” छाप पोस्ट लिख सकते हैं। बहुत लोकप्रिय होगी!
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और मृत्युंजय तो मैं भी आठ दस पन्ने से ज्यादा नहीं पढ़ पाया! :)
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कह सकते हैं कि वोरेशियस रीडर हूँ; वैसे मेरे घर वाले किताबों के मेरे शौक से त्रस्त हैं क्योंकि ढेर किताबें जुड़ गई हैं और आए दिन वृद्धि होती रहती है! ;) “मृत्यंजय” मुझे बीच में समयाभाव के कारण छोड़ना पड़ा था, कई दिन तक समय नहीं मिला, फिर उसको एक मित्र ने पढ़ने के लिए ले लिया तो अपन दूसरे उपन्यासों पर आ गए और इसी तरह उसको बाकी पढ़ने का मौका न लगा। इसलिए अब वह टु डू लिस्ट में है कि उसको पूर्ण करना है। :)
बाकी रही पोस्ट की बात तो अब क्या कहें, कई बार आईडिये बहुत आते हैं कि इस पर कुछ ठेल सकते हैं, नोट करके रख लेता हूँ और फिर वह नोट किए ही रह जाते हैं! ;)
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परिवार वाले मेरे भी त्रस्त रहते थे। हार कर पुस्तकें रखने का स्पेस 3-400% बढ़ाया पिछली साल! अब एक दो साल मजे में कटेंगे। उसके बाद जब ट्रंक में फिर ठूंसने की नौबत आयेगी, तब लोग फिर कुड़बुड़ाना शुरू करेंगे! :)
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किताबें रखने की जगह बनाना ऑन द कार्ड्स है, वरना घर वाले पुराने पीपल के प्रेत की भांति पीछे पड़े रहेंगे। बस यही आशा कर सकता हूँ कि किताबें रखने की जगह हो जाएगी तो प्रत्येक किताब खरीदने पर झाड़ नहीं सुननी पड़ेगी, कम से कम तब तक के लिए जब तक फिर से जगह न भर जाए! :) साथ ही सोच रहा हूँ कि जो किताबें मुझे नहीं पढ़नी हैं या अपने कलेक्शन में नहीं रखनी हैं उनसे पीछा छुड़ाया जाए, इससे भी काफ़ी जगह खाली होगी। बस समस्या एक ही है कि ये सब छंटाई करने के लिए समय चाहिए, एक सप्ताहांत की आहुति इस कार्य में देनी ही होगी!! :(
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आहुति के लिये शुभकामनायें! :)
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मैं भी अक्सर किताब तो ले आता हूं, परपढने का समय ही नहीं निकला पाता। और जबसे ब्लॉगिंग शुरू हुई है, रहा सहा समय इसमें ही चला जाता है।
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कम्प्यूटर से तेज़!
इस दर्द की दवा क्या है….
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वैरी बैड़! जब पढ़ना न होगा तो पानी ठहर जायेगा!
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प्रभुजी, अगले जनम मोहे किकिया ही कीजौ! किकी होने का न दावा है न दंभ।
किकी होने के कारण व्यक्तित्व के जो आयाम विकसित होने से छूट गये उनका अफ़सोस भी नहीं। अफ़सोस है तो सिर्फ़ इतना कि जितना सीखना चाहा, पढ़ना चाहा वो सब न कर सके। खास कर हिंदी साहित्य से नाता ज्यादा न रह पाया अब तक , इस बात का अफ़सोस है।
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किकी या नो-किकी, जिससे आपको किक्स मिलें, वही होना चाहिये अनीता जी।
जो चाहें वह कर पायें – शायद यह वर चाहिये भगवान जी से!
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:) kiks
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मेरे पिता जी किकी थे-यह बात बाबा जी को पसंद नहीं थी ..वे कहते थे अत्यधिक किताबों का पठन मनुष्य की मौलिकता को ख़त्म कर देता है और उसकी व्यावहारिक और प्रत्युत्पन्न मति भी मारी जाती है ….अब पिता जी बाबा जी की बात एक कान से सुनते दूसरी से निकाल बाहर करते…इसी दौरान तत्कालीन दिनमान ने एक काव्य समस्यापूर्ति का आयोजन किया ! बाबा जी और पिता जी ने अपनी अपनी प्रविष्टियाँ भेजीं -बाबा जी को प्रथम पुरस्कार मिला और पिता जी सराहनीय में जगहं पा पाए ..समस्यापूर्ति का वाक्य था -सारा देश दंग है ….
अफ़सोस आज बाबा जी और पिता जी की वे समस्यापूर्ति प्रविष्टियाँ पूरी तरह याद नहीं मगर दिमाग के फ्रेशनेस का एक अंदाजा आप इस वाकये -संस्मरण से लागा सकते हैं!
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आपके पिताजी भी सही थे और बाबा भी। काव्य समस्यापूर्ति प्रतियोगिता ऐसी चीज नहीं है जो पठन या न-पठन की श्रेष्ठता तय कर दे!
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आपके बाबाजी से पूर्ण और पिताजी से अधिकांश सहमति है। मैं प्रयास करके भी कभी किकी हो नहीं सका।
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किकी से लिखी हो गये हैं, अब बहुत अधिक लिखने लगे हैं, पढ़ने का टैम ही नहीं मिलता है। पुस्तक पढ़ने और ब्लॉग पढ़ने में टेस्ट मैच व वनडे सा अन्तर है। कलात्मकता धीरे धीरे जब गायब हो जायेगी तब हम भी किकीयाने लगेंगे।
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किकी या नो-किकी, दोनो में जरूरी है कि आप में अभाव का मनोभाव न आये!
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मुसीबत तो ये कि अपने किकीत्व से उबरे नहीं अबतक और अब अपने बच्चों को किकी बनाने पर आमादा हैं। ज्ञानदत्त जी, आप जैसे किकी से मिलकर अच्छा लगा, और उतना ही मज़ा आया किसिम-किसिम के तरीकों के बारे में जानकर जो लोग पढ़ने के लिए आजमाते हैं। इकी-इंकी-पप्रे वगैरह वगैरह। ईश्वर ये किकीत्व बरकरार रखे – आंखों में रौशनी बाकी हो और फितरत में दीवानगी भी। सतीश जी. थैंक्यू। नाम ईजाद करने के लिए, मुझे किकियों के बीच भेजने के लिए और ये चर्चा शुरू करने के लिए। :)
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वाह! अनु सिन्ह चौधरी जी! आपकी कई पोस्टें सर्राटे से पढ़ गया मैं। अब इतना बढ़िया लिखा जा रहा है हिन्दी ब्लॉगिंग में और अपनी ब्लॉगजगत की निष्क्रियता के चलते पता नहीं कर पा रहा हूं!
मेरे लिये दुखद है!
पुराने स्तर पर सक्रियता शायद सम्भव नहीं मेरे लिये पर कोई न कोई मेकेनिज्म निकलना चाहिये आप जैसे के लेखन का पता चलने का। फीड एग्रेगेटर की कमी मिस होती है!
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हम तो अभी भी किताबी कीड़ा है और भविष्य में भी यही रहना चाहते हैं ….. बेशक कई विधायें छूट गयीं पर पढ़ने से महत्वपूर्ण ,वो छूटी हुई विधायें नहीं लगती ……
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बधाई हो निवेदिता जी आपके किकीत्व पर! :)
आपका ब्लॉग देखा – बहुत सधा हुआ और अच्छा लगा!
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आप मेरे ब्लाग पर आये अच्छा लगा ……… यदा कदा आते रहियेगा … आभार !
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किकी होना पसंद है पर हो नहीं पाते। “भगवान सिहं-अपने-अपने राम” कई बार पढ़ी है। निराला जी की “राम की शक्ति पूजा”अद्भुत है। ओशो को जितना पढ़ें कम ही लगता है…
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किकी की यह पोस्ट लेखन तो हास्य है, पर व्यक्तित्व विकास में पुस्तक की अनिवार्यता जरूर है पढ़े-लिखे व्यक्ति के जीवन में। कबीर दास या रामकृष्ण परमहंस विरले ही होते हैं जो निरक्षर/कम पढ़े होने पर भी अद्भुत पंहुच रखते हैं। उनके बारे में तो मैं पुनर्जन्म की थियरी सत्य मानता हूं।
एक पुस्तक प्रति महीना का लक्ष्य रखा जा सकता है। नहीं?
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एक महीने में एक किताब खरीदने की योजना ठीक नहीं है. इसके बजाय यह तय कर लें कि हर महीने पांच सौ या हज़ार (जैसी आपकी जेब इज़ाज़त दे) से ज्यादा की किताबें नहीं खरीदेंगे.
बाकी आपकी चोइस पर निर्भर करता है. कुछ सस्ती और बढ़िया किताबें आप पांच सौ में तीन भी खरीद सकते हैं पर कुछ किताबें हज़ार रुपये में भी नहीं आतीं. मेरे पास कुछ बहुत कीमती किताबें हैं जिहें देखकर मुझे अफ़सोस होता है कि मैंने उनके बदले दस सस्ती और बेहतर किताबें क्यों नहीं खरीदीं.
फ्लिप्कार्ट से किताबें खरीदने का सोचा पर यह पाया कि अब पढ़ने के लिए इंटरनेट पर इतनी विकट सामग्री है कि किताबें खरीदे बिना भी खुराक पूरी होती रहेगी.
आपके पास कितनी किताबें हैं?
मेरे पास भोपाल और दिल्ली में कुल मिलाकर लगभग एक/डेढ़ हज़ार किताबें हैं. यह तब है जब हम खराब हालत वाली और/या अपठनीय किताबें छांट चुके हैं.
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एक महीने में एक पुस्तक खरीदने की बात नहीं है, बात इसकी थी कि पठन नहीं हो पाता तो एक महीने में एक पूरी करने का लक्ष्य बने।
पीटर ड्रकर मेरे आदर्श हैं जो एक साल के लिये एक विषय चयन करते थे और उस साल के अपने अध्ययन में उस विषय में पारंगत हो जाते थे!
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मुझे लगता है कि थोड़ा बहुत ‘किकीपन’ सबमें होता है लेकिन आपने जिस तरह सिकन्दराबाद से इलाहाबाद आने के दौरान त्वरित हवाई यात्रा को छोड़ रेल के जरिये सिर्फ इसलिये जाना पसंद किया ताकि किताबें पढ़ने के लिये ज्यादा समय मिले तो मेरे हिसाब से ये ‘बड़े किकी’ होने के लक्षण हैं :)
किताबें पढ़ना मुझे भी बहुत पसंद है लेकिन मैं बहुत ठोक बजाकर किताबें खरीदता हूँ क्योंकि पहले ही घर में बहुत सी किताबें हैं जिनकी वजह से पिताजी से डांट खा चुका हूँ।
श्रीमती जी अलग भुनभुनाती हैं कि जहां देखो वहीं किताबें ही किताबें दिखती हैं, कहीं अमरकांत, कही विवेकी राय, कहीं रेणू।
अम्मा अलग बिगड़ती हैं – का जनी कवन पढ़ाई करत हएन कि एनकर ओरातय नाई बा :)
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बिल्कुल सेम टू सेम हाल हमारा भी है। परिवार वाले कष्ट में रहते हैं कि क्या अटाला भरा रहता है घर में! :)
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