मैं किताबी कीड़ा (किकी) विषय को कण्टीन्यू कर रहा हूं। निशांत और कुछ अन्य पाठकों ने पिछले पोस्ट की टिप्पणियों में पुस्तकें खरीदने/पढ़ने की बात की है। हिन्दी में और हिन्दी के इतर भारत में बड़ा पाठक वर्ग है।
पाठकों की रुचि/व्यवहार पर फॉर्ब्स इडिया ने पाठक सर्वे किया था/चल रहा है। फॉर्ब्स इण्डिया लाइफ ने उसके अंतरिम (?) परिणाम अपनी त्रैमासिक पत्रिका में छापे हैं। इस छापने तक उसमें 2150 से अधिक लोग सम्मिलित हो चुके थे। बहुत रोचक हैं उसके परिणाम।
मेरे ख्याल से हिन्दी पाठक वर्ग को फॉर्ब्स इण्डिया लाइफ के लेख की जानकारी देना बहुत बड़े कॉपीराइट उलंघन का मामला नहीं है; अत: उस सर्वे के पत्रिका में छपे परिणाम मैं प्रस्तुत कर रहा हूं –
आप प्रतिवर्ष कितनी पुस्तकें पढ़ते हैं?
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1-12 > 37% आदमी, 22% स्त्रियां
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13-24> 31% आदमी, 31% स्त्रियां
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25-50> 18% आदमी, 24% स्त्रियां
आप प्रतिवर्ष कितना पैसा पुस्तकों पर खर्च करते हैं?
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<1000रु – 6%
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1000-10000रु – 63%
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10000-25000रु – 24%
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>25000रु – 7%
आप पुस्तकें कहां से लेते हैं?
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सेकेण्ड हैण्ड – 50%
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मल्टी आउटलेट चेन स्टोर – 32%
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छोटी लोकल दुकानें – 8%
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ऑनलाइन – 8%
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मांग कर – 2%
आप किस तरह की किताबें पढ़ते हैं?
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उपन्यास/गल्प – 77%
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यात्रा – 36%
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भोजन – 20%
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जीवन चरित्र – 55%
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सेल्फ हेल्प – 31%
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विज्ञान – 30%
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धर्म – 28%
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ग्राफिक उपन्यास – 13%
आपका प्रिय लेखक?
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चेतन भगत – 16%
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आगाथा क्रिस्टी – 5%
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पीजी वुडहाउस – 5%
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अमिताव घोष – 5%
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रस्किन बॉण्ड – 5%
आप किस भारतीय पुस्तक पुरस्कार को चीन्हते हैं?
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साहित्य अकादमी – 27%
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क्रॉसवर्ड – 7%
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आनन्द पुरस्कार – 2%
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भारतीय ज्ञानपीठ – 1%
आपके अनुसार सबसे ज्यादा बिकने वाला लेखक?
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आर.के.नारायण – 12%
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अमिताव घोष – 7%
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अरुन्धती रॉय – 9%
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चेतन भगत – 8%
साहित्यिक कला से युक्त सबसे बेहतर लेखक कौन है?
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आर.के. नारायण – 12%
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अमिताव घोष – 9%
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अरुन्धती रॉय – 9%
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सलमान रुश्दी – 8%
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चेतन भगत – 8%
कितनी कीमत पर आप एक पुस्तक खरीदने के पहले सोचने पर मजबूर होते हैं?
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>100रु – 2%
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>200रु – 7%
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>300रु – 13%
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>400रु – 12%
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>500रु – 30%
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>1000रु – 25% वाह! एक चौथाई लोग 1000रु तक की किताब प्रेम से खरीद लेते हैं!
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>2000रु – 8%
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>5000रु – 3%
कितनी कीमत पर आप किताब न खरीदने का निर्णय लेते हैं?
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>400रु – 2%
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>500रु – 7%
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> 1000रु – 13%
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>2000रु – 12%
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>5000रु 30%
आपके पास कितनी किताबें हैं?
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<25 – 9%
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26-50 – 11%
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51-100 – 17%
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101-500 – 34%
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>500 – 29% > लोग जितना प्रतिवर्ष खर्च करते हैं और जितनी किताबें उनके पास हैं, मे तालमेल नहीं लगता। शायद लोग सेकेण्डहेण्ड बाजार में बेच देते हैं, या अन्य लोगों को दे देते हैं।
आप किस भारतीय पब्लिशिंग संस्थान का नाम लेंगे?
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पेंग्विन – 48.4% आदमी, 63% स्त्रियां
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रूपा – 27% आदमी, 36.2% स्त्रियां
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हेचेट (hachette) – 4.39% आदमी, 9.7% स्त्रियां
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जायको – 18.1% आदमी, 12.3% स्त्रियां
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मेकमिलन – 12.6% आदमी, 17.4% स्त्रियां
यह सर्वे फॉर्ब्स इण्डिया पढ़ने वाले, ऑनलाइन जाने वाले और अंग्रेजी जानने वालों के पक्ष में बायस्ड जरूर है। पर भारतीय किकी लोगों की मनोवृति का कुछ जायजा तो देता ही है!
कभी कभी किताब की दुकान पर जाता हूँ तो लगता है सब पढ़ा हुआ है, अब जीवन में कुछ जानना शेष नहीं है, कभी जाता हूँ तो लगता है कि कुछ जानता ही नहीं, सब पढ़ना है। मेरे लिये तो सारे सर्वे फेल हैं।
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यह भावना – सब जानता हूं, और कुछ भी नहीं जानता – बड़ा खतरनाक रोग है – फिलॉसफर होने का रोग!
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हरारत से बदन ऐंठ रहा है। आपकी टिपणिंया, अगर आईं (आजकल ज्यादा नहीं आतीं। गंगाजी की नाईं ब्लॉग उतार पर है!) पोस्ट कर दूंगा। प्रतिटिप्पणी की हिम्मत लगता है कल ही बनेगी! 😆
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भगवान ने सुनी, बुखार उतर गया लगता है। अपना ध्यान रखिये, शुभकामनायें!
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धन्यवाद! बुखार कम हो गया, पर रक्त में संक्रमण है। अस्पताल की शरण में हूं! 🙂
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वैसे अब किकी होना अच्छा लगता है, क्योंकि किताबें ही सबसे अच्छी दोस्त होती हैं, और हमारे पास पहले केवल हिन्दी की ही किताबें होती थीं, परंतु अब थोड़ी बहुत अंग्रेजी की भी होती हैं, हाँ खरीदने के पहले अब यह नहीं सोचते कि कितने की किताब है, वरना पहले तो शासकीय वाचनालय से किताबें लाकर पढ़ते थे और लगभग मुफ़्त में ही पढ़ते थे, जहाँ कोई शुल्क नहीं लिया जाता है।
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आपको किकीत्व मुबारक! 🙂
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हिन्दी वाली किताबें सेकण्ड हैंड में भी यहां बम्बई में नहीं के बराबर बिकती है। जो बिकती भी हैं वे ज्यादातर स्वेट मार्डेन, शिव खेड़ा जैसे टाइप की बिकती हैं। संभवत: हिन्दी वाले अपनी खरीदी किताबों को ज्यादा भावनात्मक लगाव के चलते सेकण्ड हैण्ड वालों को बेचने से बचते हैं
** सतीश जी की बात से सहमत।
यहां कोलकाता में भी हमने यह तथ्य पाया है।
** आज भी मेरे रैक पर मेरे पिता जी के स्कूल, कॉलेज के जमाने की किताबे हैं।
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यह तो है – भावनात्मल लगाव की बात – मसलन मैने अपनी कोई किताब अधिया पर नहीं बेंची!
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हिंदी का सर्वे कई नई नई बातें सामने ला सकता है क्येंकि हिन्दी के प्रकाशक लायब्रेरियों को ध्यान में रखकर ही तथाकथित साहित्य प्रकाशित करते हैं 🙂
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फीड एग्रेगेटर वाले या चिठ्ठा चर्चा वाले यह सर्वे कर सकते हैं। और वह निश्चय ही काफी रोचल होगा।
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आभार फोर्ब्स का सर्वे पढ़वाने के लिए..अच्छा है सतीश जी और लोगबाग आपको किकी जैसे विशेषणों से नवाज़ते रहें और आप शोध कार्य जारी रखें..आखिर हमको भी अच्छी जानकारी मिलती रहेगी.
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आपको जरूरत है? रीयली?
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अब हम क्या कहें। आठ घंटों से अधिक सिर्फ और सिर्फ किताबों से घिरे बैठे रहते हैं, वे कानून की किताबें हैं। लेकिन कोने की एक बुक शेल्फ में दूसरी पुस्तकें भी हैं। कम से कम 1/6 इन से तीन चार गना अंदर गेस्ट रूम में हैं जो पढ़ी जा चुकी हैं। और किसी के पढ़े जाने के इंतजार में हैं। बहुत सी पढ़े जाने के लिए गई हैं और कभी नही लौटने वाली हैं।
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ओह!
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यह सर्वे अंग्रेजी के पाठकों का है लेकिन लगता है वे सरिता का यह विज्ञापन जरूर पढ़ते होंगे जिसमें कहा जाता है:
१. क्या आप मांग कर खाते हैं?
२. क्या आप मांग कर पहनते हैं?
३. क्या …
४. फ़िर आप मांग कर पढ़ते क्यो हैं?
🙂
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मतलब ‘क्यावाद’ सर्वत्र बखूबी फलित-पोषित हो रहा है 🙂
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हिन्दी में पुस्तक मंगैती ज्यादा चलती है। शायद पुस्तकालयों का इस्तेमाल भी ज्यादा हो हिन्दी पाठकों में। जो भी है, अच्छा है, अगर लोग पढ़ते हैं
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जहां तक मुझे लग रहा है यदि इस सर्वे में अंग्रेजी वालों की बजाय हिन्दी वाले होते तो मांग कर पढ़ने वालों का पर्सेन्टेज ज्यादा होता।
दूसरी ओर हिन्दी होने पर सेकण्ड हैंड दुकानों में किताबों का आंकड़ा बहुत ज्यादा नीचे गिरा होता क्योंकि हिन्दी वाली किताबें सेकण्ड हैंड में भी यहां बम्बई में नहीं के बराबर बिकती है। जो बिकती भी हैं वे ज्यादातर स्वेट मार्डेन, शिव खेड़ा जैसे टाइप की बिकती हैं। संभवत: हिन्दी वाले अपनी खरीदी किताबों को ज्यादा भावनात्मक लगाव के चलते सेकण्ड हैण्ड वालों को बेचने से बचते हैं और मेरी तरह उनके घर में ठसे रहने पर संभवत: भुनभुनाये भी जाते होंगे कि – रखे रखे क्या उन्हें सेये जा रहे हो 🙂
जबकि अंग्रेजी कि किताबें ज्यादातर शेल्फ सजाने में काम आ जाती हैं, जब शेल्फ भर जाती है तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है, तभी अंग्रेजी पुस्तकें सेकण्ड हैंड दुकानों में भी नजर आ आती हैं 🙂
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आपकी टिप्पणी सर्वे से उपजे सवाल को हल कर देती है। मेट्रो में बहुत सारी अंग्रेजी पुस्तकों का फुटपाथ पर मिलना यह टिप्पणी सॉल्व कर देती है। यह भी स्पष्ट होता है कि हिन्दी पाठक अभी भी कस्बाई/छोटे शहर के पुस्तकों के भावनाग्रस्त लगाव को पाले है, जहां पुस्तकें रखने के स्पेस की किल्लत नहीं।
ग्रेट इनसाइट!
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>1000रु – 25% वाह! एक चौथाई लोग 1000रु तक की किताब प्रेम से खरीद लेते हैं!
शायद फॉर्ब्स इण्डिया लाइफ के एक चौथाई पाठक। भारत के एक चौथाई लोग तो शायद इतने पैसे एक्मुश्त खर्च करने की सोच भी न पाते हों।
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जी हां। शयद यही कारण है कि हिन्दी की पुस्तकें सस्ती हैं।
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संभवत: हिन्दी वाले अपनी खरीदी किताबों को ज्यादा भावनात्मक लगाव …
सहमत.
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मैंने तो केवल मजाक में आपको किकी कह दिया था क्योंकि सीधे ‘किताबी कीड़ा’ कहना उचित नहीं लग रहा था, किंतु आपने तो एकदम किकी शब्द को लोकप्रिय बना दिया 🙂
वैसे बोलने, पढ़ने और सुनने में अच्छा लग रहा है किकी 🙂
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और दम्भ पालें न पालें ब्लॉगर को यह दम्भ पाल लेना चाहिये कि वह भविष्य का शब्दनिर्माता है! 😆
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🙂
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kya is par bhi shodh ho sakta hai ki hindi blogging ne hindi satiya ko kitne shabd diye……..
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आप तो लिखते रहें दीपक जी। दो चार साल में इस तरीके के शोधार्थी खड़े हो ही जायेंगे! 😆
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ham to aapko pahale se shabd nirmata maanate chale aaye hai
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हां, हिन्दी के शब्द न आने के दशा में मेरे पास विकल्प थे – ब्लॉग बन्द कर लो, या नये शब्द ठेलो। मैने दूसरा विकल्प चुना, धीरू सिंह जी!
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