
बहुत अर्से से यह मुझे बहुत लिज़लिजी और भद्दी चीज लगती थी। व्यक्तित्व के दुमुंहेपन का प्रतीक!
मुझे याद है कि एक बार मुझे अपने संस्थान में झण्डावन्दन और परेड का निरीक्षण करना था। एक सज्जन गांधी टोपी मुझे पहनाने लगे। मैने पूरी शालीनता से मना कर दिया और अपनी एक पुरानी गोल्फ टोपी पहनी।
पर, अब कुछ दिनों से इस टोपी के प्रति भाव बदल गये हैं। मन होता है एक टोपी खादी भण्डार से खरीद लूं, या सिलवा लूं। पहनने का मन करता है – इस लिये नहीं कि फैशन की बात है। फैशन के अनुकूल तो मैं कभी चला नहीं। बस, मन हो रहा है।
इस टोपी की पुरानी ठसक वापस आनी चाहिये। शायद आ रही हो। आप बेहतर बता सकते हैं।
वक्त का तकाजा भी है..एक सिलवा डालिये.
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Kya khub kaha aapne.Sayad aap sidhi baat kehte to itna sundar nahin hota. Sayad majburi hai sidhe tippani karna, gandhi topi ke piche jo sandarbh hai. Lekin aap to majburi se bhi creativity nikal lete hain.
First time commenting. I have been visiting your blog for quite some time now. I like your writing style immensely.The Hyderabad post was too good.
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धन्यवाद, मिडिल इण्डियन जी। बहुत बहुत धन्यवाद।
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हमारे राजस्थान में टोपी से ज्यादा महात्म्य पगड़ी और साफे का है।
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महाराष्ट्र में ग्रामीण इलाकों में आज भी गान्धी टोपी सामान्य है। बहुत जगह तो वर्दी का अंग भी है। मेरे परिचितों में गान्धी टोपी आखिरी बार अपने दादाजी को पहने देखा था। आपका मन है तो एक गान्धी टोपी अवश्य ले लीजिये।
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आपकी भावनाओं को समझ रहा हूँ. संभव है गरिमा लौट आये.
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भावनायें व्यक्त करने में मेरे पास वह उन्मुक्तता नहीं जो रिटायरमेण्ट के बाद हो सकेगी! 🙂
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सबके लिए संभव नहीं है, भगवा या खादी पहन कर तरह तरह के खेल कर लेना… अंतर्आत्मा झकझोर देती है सोचकर भी…
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सुदामा पाण्डे “धूमिल” की तर्ज पर –
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खादी पर आधारित इस छोटी सी क्लिपिंग को देखिये। अच्छा लगता है इस तरह की चीजों को देखना। अभी पिछले हफ्ते दूरदर्शन पर देखा था, यू ट्यूब पर ढूंढा तो मिल गई। पोस्ट लिख कर पब्लिश ही किया कि ये खादी वार्ता फॉलोअप टिप्पणी में दिखी।
लिजिये नोश फरमाइये 🙂
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बहुत ही मनभावन वीडियो है यह!
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गांधी जी की टोपी पर इतनी चर्चा देखकर उन्हीं की दो पंक्तियां याद आ रही हैं-
“मुझे असीर करो या मेरी ज़ुबाँ काटो
मेरे ख़याल को बेड़ी पिन्हा नहीं सकते”
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असीर का अर्थ? शायद
नज़रअन्दाज़बन्धक होता हो। आपकी उद्धृत इन पंक्तियों को पढ़ कर मुझे विक्तोर फ्रेंकल याद आते हैं। उनपर मेरे ब्लॉग में कुछ पोस्टें हैं। यह देखी जा सकती हैं –विक्तोर फ्रेंकल का आशावाद और जीवन के अर्थ की खोज।
विक्तोर फ्रेंकल का साथी कैदियों को सम्बोधन – 1
विक्तोर फ्रेंकल का साथी कैदियों को सम्बोधन – 2.
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