डेढ़ऊ बनाम ओरल केंसर

शैलेश पाण्डेय ने कहा है कि चट्टी पर उन्हें डेढ़ऊ नामक सज्जन मिले, जिन्हे जब एक व्यक्ति ने खैनी न खाने की सलाह दी तो उनका जवाब था –

भैया अबहिएं छोड़ देब .. बस ई गारंटी दई द की हम अमर हो जाइब …

डेढ़ऊ - अमरत्व की गारण्टी मांगते हैं सुरती त्याग करने के लिये!

डेढ़ऊ की बेफिक्री यूपोरियन संस्कृति का यूनीक सेलिंग प्रोपोजीशन है। यह बेफिक्री केवल निम्न वर्ग में हो ऐसा नहीं। उत्तरप्रदेश का मध्यम वर्ग भी इससे संक्रमित है।

यह बेफिक्री अत्यंत अभावग्रस्तता में भी विदर्भ छाप आत्महत्याओं को प्रोमोट नहीं करती। पर यह प्रदेश की आर्थिक/सामाजिक स्टेगनेशन का भी मूल है। कहीं कोई मध्यम मार्ग निकलना चाहिये!

बनारस में उत्तर-पूर्व रेलवे के अपर मण्डल रेल प्रबन्धक के रूप में वहां के रेलवे केंसर रिसर्च इंस्टीट्यूट का यदा कदा दौरा-निरीक्षण मुझे करना होता था। वहां केंसर के अधिकांश मामले ओरल केंसर के होते थे – खैनी-गुटका-तम्बाकू और सुपारी के सतत सेवन के कारण छलनी गाल और मसूड़ों वाले व्यक्ति अनेक भर्ती रहते थे। उनको देखते समय कलेजा मुंह को आता था। दौरे के बाद बहुत समय लगता था मुझे सामान्य होने में। पर उन्ही मरीजों के तामीर में लगे लोग खैनी/पान/गुटका/तम्बाकू/पान खाते दीखते थे। अस्पताल में सफाई बहुत की जाती थी, फिर भी कहीं न कहीं पान के लाल धब्बे दीख ही जाते थे – जाने कैसी आसक्ति है यह। जाने कैसा बेफिक्र डेढ़ऊत्व!

मेरे छोटे साले जी – पिंकू पण्डित – अभी कुछ महीने पहले टाटा मेमोरियल अस्पताल, मुम्बई में अपने मुंह के ओरल केंसर का इलाज करा कर आये हैं। दो-चार लाख स्वाहा किये होंगे इलाज में। हर महीन्ना दो महीन्ना पर वहां चेक अप के लिये पेशी होती है। जिन्दगी बच गई है। डेढ़ऊ छाप बेफिक्री त्याग कर इलाज न कराते तो अमरत्व ढ़ूंढते फिरते पान मसाला में!

पर डेढ़ऊ मेरा ब्लॉग तो पढ़ते नहीं न! ब्लॉग तो पिंकू पण्डित भी नहीं पढ़ते! :lol:

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

42 thoughts on “डेढ़ऊ बनाम ओरल केंसर

  1. किसी भी आदत को न छोड़ पाने का सबसे बड़ा कारण है इच्छाशक्ति मैं कमी. जेसा की निशांत जी ने किया और अगर इच्छाशक्ति प्रबल हो तो कोई भी आदत छोड़ना मुश्किल नहीं है, और सही कहा भी है निशांत जी ने की आतंरिक प्रेरणा सबसे जरुरी है. किसी के दबाव मैं कभी बुरी आदत नहीं छुट्टी(वो बात अलग है की अच्छी आदत दवाब मैं सबसे पहले छुट्टी है), धन्यवाद

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  2. तीस की उम्र तक मैं लगभग सब कुछ खा-पी-सूंघ कर छोड़ चुका हूँ (फिलहाल छत्तीस पार कर चुका हूँ). अब उनकी गंध से ही अरुचि हो गयी है. कोई दूर खड़ा हो सिगरेट पी रहा हो तो भी बर्दाश्त नहीं होता.
    मेरा मानना है कि इन आदतों में मैं मुख्यतः दो चीज़ों के कारण पड़ा. उनमें पहली है जिज्ञासा, और दूसरी है संगति. ऊब के कारण भी लोग करने लगते, पर उनका प्रतिशत बहुत कम होगा.
    मैं स्वयं को अब बहुत जागरूक और जिम्मेदार मानने लगा हूँ. लोग यकीन नहीं कर सकते यदि मैं उन्हें वह सब बताऊँ जो मैंने कभी किया.
    इनकी जद से निकलने के लिए आतंरिक प्रेरणा की ही महती आवश्यकता है. आप बलात किसी से भी नशा-पत्ती नहीं छुड़ा सकते. मेरे पिता स्वयं अभी तक सिगरेट नहीं छोड़ सके.
    बाकी… अमरत्व… मृत्यु के बाद के अमरत्व के बारे में क्या? उसकी ही गारंटी मिल जाए तो क्या बात है.

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  3. पिंकू पंडित की शिकायत भावी प्रधान मंत्री के दरवार में कर के देखिये !
    शायद वे आपका ब्लॉग पढना शुरू कर दें !
    शुभकामनायें आपको !

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  4. क्या हो सकता है मूल में डेढ़ऊ की सोच के, शायद नियति अपराजेय है, और वह ऐसा सोचने/कहने को विवश! कहीं वह तो नहीं कि जिसे एक गाने में कहा गया है: ‘कभी अच्छा लगे मरना , कभी मुश्किल लगे जीना!’

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  5. अब भैया पान तs हम बचपने से खात हैं। इतने बचपन से कि यादो नहीं है कि कब शुरू किया था ! पचास के करीब पहुँच चुके ..तीन दांत झड़ चुके, खूब पढ़ते हैं कि कैंसर होत है मगर ससुरा अबहीं यही लागत है कि जे पान नाहीं खाया ऊ का जाने जिंनगी क स्वाद ! हाँ, कुछ तs दांतन के झड़े से, कुछ ढेर पढ़े से, कम जरूर होई गवा है। आप ऐसने पोस्ट पढ़ावत रहें तs होई सकत है मरे से पहिले छूट जाय।

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    1. बिल्कुल! आप पोस्ट में दूसरी लिंक की पोस्ट पढें। उसमें करनराम यही करते हैं!

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  6. व्यसन की लत लगना भी अपने आप में एक बडी समस्या है मगर इस प्रकार की सोच तो सुधार के लिये एक बडी चुनौती है। मुझे लगता है कि इस पर काबू पाने के लिये शिक्षा और सुरक्षा दोनों का होना ज़रूरी है। वर्ना जब तक दुष्परिणाम सामने न आ जाये तब तक बहुत लोग बेवकूफ़ियों को बहादुरी, सावधानी को कमज़ोरी और कानून के मामूली उल्लंघन को बडप्पन मानते रहते हैं। बात समझ में आने तक काफ़ी देर हो चुकती है।

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  7. पोस्ट सार्थक संदेश देती है, हम नहीं समझना चाहते तो दोष अपना ही है।
    वैसे……. छोड़ देंगे:)

    फ़िर से बुखार? ध्यान रखें अपना।

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