मुरारी केटरिंग

मुरारी की दुकान में ब्रेड पकौड़ा।

मुरारी की दुकान है चाय-ब्रेड पकौड़ा, समोसा, मिठाई आदि की। मुहल्ले में बहुत चलती है। दुकान के ऊपर हाल ही में एक हॉल बनवा लिया है। उसमे‍ कोई गणित के सर कोचिंग क्लास चलाने लगे हैं। इसके अलावा लगन के मौसम में मुरारी आउटडोर केटरिंग सर्विस भी देता है।

मेरे आकलन से मुरारी मुझसे ज्यादा कमाता होगा।

मैं उसकी दुकान पर चाय पीने जाता हूं। एक चाय और एक ब्रेड पकौड़ा साढ़े सात रुपये का। जितनी सफाई की अपेक्षा करता था, उतनी मिली। उससे शायद ज्यादा ही। पूछता हूं कि बिना चीनी की चाय मिलेगी? और मुरारी सहर्ष बनवाने को तैयार हो जाता है।

नौजवान है मुरारी। बोले तो हैण्डसम। व्याह नहीं हुआ है। प्रेम विवाह के चक्कर में न आये तो अच्छा खासा दहेज मिल सकता है। काम पर (दुकान पर) सवेरे छ बजे आ जाता है और समेटने में रात के दस बज जाते हैं। कर्मठ है वह।

चाय अच्छी बनाई। इलायची पड़ी है। ब्रेड पकौड़ा भी ठीक है। गरम नहीं है; पर मैं गरम करने को नहीं कहता – उस प्रक्रिया में एक बार पुन: तलने में उसका तेल बढ़ जायेगा! चाय पीते पीते मुरारी से बात होती है। वह पहले दुकान चलाने और नौकरी न मिलने को ले कर व्यथित होने का अनुष्ठान पूरा करता है, जो यूपोरियन जीव का धर्म सा बन गया है। बिजनेस कितना भी थ्राइविंग क्यों न हो, चिरकुट सरकारी नौकरी से कमतर ही माना जाता है। मेरी वर्किंग लाइफ में यह मानसिकता बदली नहीं। अगले एक दो दशक में बदलेगी – कह नहीं सकता।

मुरारी की चाय की दुकान

मुरारी को मैं बताता हूं कि असली बरक्कत बिजनेस में है। अर्थव्यवस्था आगे बढ़ रही है। बिजनेस ही उसे आगे बढ़ा रहा है। लोगों के पास पैसा आ रहा है तो घर की किचेन सिमट रही है और केटरिंग सर्विस की अहमियत बढ़ती जा रही है। लिहाजा वह जो काम कर रहा है, उसमे‍ सशक्त भविष्य है। ऊपर से कोचिंग क्लास को स्पेस दे कर उसने अपना कारोबार डाइवर्सीफाई तो कर ही लिया है। अत: किसी नौकरी वाले से वह बीस ही है, उन्नीस नहीं।

मुझे लगता है कि मुरारी मेरी बात समझ रहा है, पर वह अपनी ओर से बहुत ज्यादा नहीं कहता। अपनी बिजनेस की बैलेंस-शीट भी नहीं उगलता। पर मेरी बात का प्रतिवाद नहीं करता, उससे मैं अनुमान लगाता हूं कि उसका कारोबार अच्छा चल रहा है।

दुकान में अखबार के टुकड़े (जिनमे‍ समोसा/पकौड़ा लपेट ग्राहक को दिया जाता है, छोटी प्लेटें, चाय के कट ग्लास, साधारण बैंचें और मेजें, मिठाई के शीशे के शटर लगे साधारण से शो-केस, कड़ाही, केतली, भट्टी और जलेबी बनाने के उपकरण हैं। बहुत कैपिटल इनवेस्टमेण्ट नहीं है इस सब में। अगर बनाने वाले ठीक ठाक हों तो बहुत कम लागत में अच्छा रिटर्न है इस कारोबार में।

मुरारी खुद भी बताता है कि केटरिंग का कारोबार बढ़ाने में कारीगर की कमी आड़े आती है। जो कारीगर अच्छा सीख जाता है, वह अपना कारोबार शुरू कर देता है!

यानी अच्छे कारीगर के लिये काम की कमी नहीं। और यह प्रान्त है कि नौकरियों या काम की कमी का रोना रोता रहता है।

मुझे अर्देशर गोदरेज़ का कहा याद आता है – वह हर एक व्यक्ति, जो काम करने योग्य है, के लिये काम की कमी नहीं है।

मुरारी का भविष्य उज्वल है। पता नहीं सुन्दर-सुशील-गृहकार्य में दक्ष लड़की के मां-बाप किधर ताक रहे हैं! :lol:

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

43 thoughts on “मुरारी केटरिंग

  1. सहमत हूँ|
    Catering धन्धे का भविष्य उज्जवल है|
    आज कल महिलाएं काम पर जाने लगी हैं|
    रसोइ के लिए समय नहीं मिलता|
    हाल ही में मेरे घर के पास तीन पढे लिखे नौजवानों ने एक नया रसोई घर खोल रखे हैं| वहाँ केवल पका हुआ खाना और नाश्ता बेचा जाता है| बैठकर खाने की कोइ सुविधा नहीं है |
    हमने उनको आजमाया| बिलकुल घर का खाना जैसा था|
    Home Delivery की सुविधा भी है|
    यदि Quality और Hygeine का खयाल रखेंगे, यह लोग, अवश्य सफ़ल होंगे|

    शुभकामनाएं
    जी विश्वनाथ

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  2. आस पास कॉलेज-कार्यालय हो तो मुरारी की आमदनी कई गुना हो जाय.
    पुणे में रात को १२ बजे दूकान खोलने वाले भी थे जो बस चाय-पोहा बेचते. कॉल सेंटर और कॉलेज के लड़के लड़कियां एक गुमटी में ही रोज हजारों का कारोबार करा देते !

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    1. मुरारी की दुकान रिहायशी इलाके में है। पर मुख्य ग्राहक वे छात्र हैं जो यूनिवर्सिटी में पढ़ते हैं या कोचिंग कर रहे हैं और एक कमरा ले कर रहते हैं।

      अगर इन लड़कों से मिला जाये तो चेतन भगत छाप किताब निकल आये! :-)

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  3. मुरारी जी का व्यक्तित्व अच्छा लगा । आपको चिठ्ठे की सामग्री मिल गई और हमें एक बढिया चिठ्ठा पढने को मिला।

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  4. फोटो न लगाइए, न ही यह पोस्‍ट उसे दिखाइए, ऐसा न हो कि मुरारी हीरो बनने न चला जाए.

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  5. मुरारी की दुकान…. मुंह मे पानी आ गया:) वैसे, गणित यह है कि हर मिची पकौडे, समोसे…. बेचनेवाला सफ़ेद पोश ब्यक्ति से अधिक कमाता है, इसलिए कि वह सड़क पर बैठने से नहीं शरमाता। हमारी शिक्षा को दोश दें कि वह हममें अहम भर देता है और यही अहम निकम्मा बना देता है॥

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    1. जी हां। स्ट्रीट-स्मार्ट का गुण कोई छिछला गुण नहीं। बहुत से विद्वानों को भी यह सीखना चाहिये!

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  6. काश मेरे मुहल्‍ले में भी ऐसी दुकान होती और इत्‍ते सस्‍ते में ब्रेडपकौड़ा खाने को मिलता…
    हमारे यहां नाश्‍ते में एक प्रकार की पूड़ी और सब्‍जी सुबह दुकानों पर मिलती है… जिसे दोने में लेकर सड़क पर ही खड़े होकर खाया जाता है…वो कारोबार भी मुनाफे का है
    हमारे देश में अधिसंख्‍य लोग अपने नाम के साथ ‘साहब’ शब्‍द जुड़ने का सपना लिये जीते हैं… साहबी करना एक बहुत बड़ी कौम के लिए गौरव का विषय है…चाहे बाबू साहिब हों, सरकारी ड्रायवर साहिब या फिर कलक्‍टर साहिब…लोग उनसे जुड़ना, परिचय रखना, रिश्‍तेदारी रखना धन्‍य समझते हैं…
    वैसे ‘साहिब’ की श्रेणी में आप भी आते हैं…
    बहुत से ईमानदार साहिबों को गाली खाते भी सुनता हूं उनसे जो कि उनसे कुछ अपेक्षायें रखते हैं…उनका काम करवा सकते हों, उन्‍हें ठेके दिलवा सकते हों, उन्‍हें नौकरी दिलवा सकते हैं
    हमारी राजनीति में अच्‍छे लोगों का आना इसलिए भी नहीं हो पा रहा है क्‍योंकि वे कोई काम नहीं करवा सकते…बंदूकों के लाइसेंस नहीं दिलवा सकते… थानों में या अधिकारियों को फोन करके अपने प्रभाव का इस्‍तेमाल नहीं करवा सकते….शराब और हथियार के तस्‍तरों को संरक्षण नहीं दे सकते… कुल मिलाकर जिसे हमारे देश में नेतागिरी करना कहा जाता है वो सब ही नहीं कर सकते तो उनका राजनीति में आना संभव नहीं हो पाता…
    साहिबी और राजनीति हर किसी के बस का काम नहीं

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    1. नेता बनने में पॉवर और पैसा है। यह सोसाइटी की गंदगी है कि उसके साथ प्रेस्टीज़ भी नेताजी को फ्री-फण्ड में दे दे रहा है।
      सोसाइटी दोषी है!

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  7. @यानी अच्छे कारीगर के लिये काम की कमी नहीं। और यह प्रान्त है कि नौकरियों या काम की कमी का रोना रोता रहता है।

    यह शास्वत सत्य है, पर आजकल की युवा पीढ़ी कारीगर बनना नहीं चाहती…. सरकारी और क्या अ-सरकारी …. बस वाईट कोलोर जॉब होना चाहिए.

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    1. मैं सोचता था नई पीढ़ी बेहतर होगी। पर नई पीढ़ी पुरानी जैसी ही है – एथिकल वैल्यूज में।

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  8. दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश – इन जगहों पर नौकरी के दौरान रहना हुआ है, कम से कम इन जगहों के बारे में तो शर्तिया कह सकता हूँ कि यहाँ अगर कोई रोजी न होने की बात करता है तो या तो वो हद दर्जे का नाकारा है या फ़िर दुर्भाग्य का मारा।
    सरकारी नौकरी के पास लुभाने को तो खैर बहुत कुछ है, इसमें कोई शक नहीं।

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    1. सरकारी नौकरी चार्म खो रही थी, पिछले रिसेशन ने उसकी स्टॉक वैल्यू फिर बढ़ा दी है! :-)

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