
वे सुबोध पाण्डे हैं। किताबों में बसते हैं। पुस्तकों में रमने वाले जीव। भीषण पढ़ाकू। मैं उनसे कहता हूं कि उनकी तरह पढ़ने वाला बनना चाहता हूं, पर बन नहीं सकता मैं – किताबें खरीदने का चाव है, पर अनपढ़ी किताबें घर में गंजती जा रही हैं। इस पर सुबोध पाण्डे जी का कहना है कि किताबें खरीदने को मैं रिटायरमेण्ट के लिये किये गये निवेश की तरह ले कर चलूं। उनके अनुसार – पुस्तकों की खरीद को यह मानो कि आगे पता नहीं किताब मिले न मिले, सो बेहतर है खरीद ली जाये।
मैने पुस्तक की खरीद को कभी रिटायरमेण्ट प्लानिंग से जोड़ कर नहीं देखा। सुबोध पाण्डे जी ने मुझे वास्तव में एक नया कोण दिया अपने ए.एच.ह्वीलर/लोकभारती/फ्लिपकार्ट पर सतत की जाने वाली पुस्तक खरीद को सही ठहराने का।
सुबोध पाण्डे पहले इलाहाबाद के थे, पर अब कान्दीविली, मुम्बई में रहते हैं। पहाड़ के पाण्डे हैं, सो जब इलाहाबाद केन्द्र बना होगा शिक्षा-संस्कृति का, तब उनके पुरखे यहां आये होंगे। इलाहाबाद की कॉस्मोपोलिटन संस्कृति को उनके परिवार ने समृद्ध किया है। पर अब वे यहां से जा चुके हैं – ठीक उसी तरह जैसे इलाहाबाद का वह गौरवमय फेज़ अतीत हो चुका है।
वे और उनकी पत्नीजी (श्रीमती गीता पाण्डे) अपने इलाहाबाद के दिनों की बात करते बताते हैं कि अब यह शहर पहचान में नहीं आता। पुराने घर-बंगले इस तेजी से समाप्त होते जा रहे हैं और फुटपाथ पर इतनी बेरहमी से कब्जा होता जा रहा है कि वे अपने आप को रिप वान विंकल सा पाते हैं – हर बार शहर बदला सा लगता है।

इलाहाबाद में डेमोग्राफिक परिवर्तन हो रहे हैं। शहर अपना मूल चरित्र खो रहा है और नयी पहचान के नाम पर कुछ खास नहीं बन रहा। यह मैं भी महसूस कर रहा हूं। मैं पाण्डे दम्पति से अरविन्द कृष्ण मेहरोत्रा की इलाहाबाद विषयक पुस्तक – द लास्ट बंगलो की बात करता हूं। इस पुस्तक में अपने परिचयात्मक लेख में श्री मेहरोत्रा लिखते हैं –
पिछले डेढ़ सौ साल में इलाहाबाद ने दो प्रवासी आगमन देखा है। पहला सन 1857 के गदर के बाद प्रारम्भ हुआ और सौ साल तक चला। इस प्रवास आगमन में घोष, चटर्जी, नेहरू, ढोंढ़ी, झा और रुद्र आये। — दूसरा प्रवास आगमन प्रारम्भ हुआ सन 1980 के बाद। यह मूलत: लोकल प्रवास था – काले से गोरे इलाहाबाद में, चौक से सिविल लाइंस में, अतरसुइया से थॉर्नहिल रोड में और इसने अंग्रेजी समय के इलाहाबाद को खण्ड खण्ड कर दिया। — इस तरह से इलाहाबाद की कहानी मिट्टी से शुरू होती है और मिट्टी को लौटती है!
मेरी पत्नी जी से बतियाते हुये श्रीमती गीता पाण्डे अपने शहर मसूरी के बारे में कहती हैं कि वहां शायद कुछ नहीं बदला, ओक भी नहीं बदले। पर जब वे इलाहाबाद में बहू बन कर आयी थीं, तब की तुलना में, अब का इलाहाबाद तो पहचान में नहीं आता।
शायद यह भी एक कारण हो कि वे लोग यहां से अपना मकान बेंच कर मुम्बई में सेटल हो गये हों।
श्री सुबोध पाण्डे से मिल कर लगता है कि आप न केवल एक प्रिय व्यक्तित्व से मिल रहे हैं, वरन एक मेधावान व्यक्ति से मिल रहे हैं, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।[1] इस बार उनसे मिल कर यह लगा कि अगर रेल सेवा से रिटायर हो कर जीवन व्यतीत करना हो, तो उनके जैसा जीवन जिया जाये।
श्रीमती पाण्डे ने बताया कि मुम्बई में उन्होने अपना मकान बेंच कर दूसरा इस लिये लिया कि पहले वाले मकान में सुबोध जी की पुस्तकें नहीं आ पा रही थीं। नये मकान में एक दीवार को पूरा बुकशेल्फ बनाया गया। उसमें पुस्तकें जमाना अपने आप में एक प्रॉजेक्ट था। सुबोध कोई किताब निकाल बाहर करने को तैयार ही न थे। अंत में बड़ी कठिनाई से पन्द्रह किलो पुस्तकें छांटी गयीं, पर उन्हे डिस्पोज ऑफ करते समय उनमें से कुछ फिर रख ली गयीं।
श्रीमती गीता पाण्डे ने बताया कि सुबोध नये घर में पुस्तकों को जमाने का संकल्प ले सारी पुस्तकों के पहाड़ के बीच बैठे थे। पर उनका संकल्प संकल्प भर रह गया। पुस्तकें पढ़ने वाले शायद पुस्तकों को जमाना नहीं जानते! अंतत: श्रीमती पाण्डे को ही वे मोटी मोटी पुस्तकें उठा उठा कर जमानी पड़ीं और इस कसरत में उनकी नस भी चटक गई! 🙂
हमने एक सवा घण्टे की मुलाकात में कई बातों पर चर्चा की। पुरानी यादें ताजा कीं। पर चर्चा के मुख्य बिन्दु रहे इलाहाबाद का बदलता स्वरूप और पुस्तकों की दुनियां। इन विषयों की चर्चा में मेरी पत्नीजी और श्रीमती गीता पाण्डे, दोनो ने पर्याप्त हिस्सेदारी की। या यूं कहें तो मुख्य चर्चा उन्होने ही की। हम लोग तो सम्पुट देते रहे उसमें।
पता नहीं श्रीमती और श्री पाण्डे से कब अगली मुलाकात होगी। मुम्बई आने का निमंत्रण तो उन लोगों ने दिया है। पर हमारे जैसा अहदी आदमी कहां निकलता है प्रवास-पर्यटन पर!
[1] श्री सुबोध पाण्डे इलाहाबाद के प्रतिष्ठित पाण्डे परिवार से हैं। उनके भाई श्री गोविन्द चन्द्र पाण्डे प्रख्यात इण्डोलॉजिस्ट और साहित्यकार थे। उनके दूसरे भाई श्री विनोद चन्द्र पाण्डे भारत के कैबिनेट सेक्रेटरी और कालांतर में तीन प्रांतों के राज्यपाल रहे और हिन्दी, पाली तथा संस्कृत के विद्वान थे। श्री सुबोध पाण्डे मेरे अधिकारी रह चुके हैं और रेल सेवा के उपरांत वे रेलवे दावा ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे। आजकल वे मुम्बई में रहते हैं। श्री पाण्डे पर मैने पहले सन 2007 में एक पोस्ट लिखी थी –
काश कि उनकी उस दीवार की भी एक फ़ोटो होती जिस पर अलमारी बनवाई गई है। वैसे पुस्तकों का यही आलम हमारे यहाँ भी है, पढ़ने को तो महीने की एक ही पढ़ पाते हैं, परंतु खरीदने में ज्यादा आ जाती हैं।
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एक विद्यानुरागी और पुस्तक प्रेमी तथा नामी परिवार के सदस्य से मिलाने का आभार ..इलाहाबाद का बड़ा ऋण है मेरे ऊपर ..इल्म की माँ हैं मेरी सो कुछ तो कुछ भी यहाँ का संवेदित कर जाता है !
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मेरी किताबें पढने के बाद इतनी घुमती थी कि अंततः कहाँ पंहुची उसका पता नहीं रह पाता था. अब १ साल से पुस्तकें मेरे पास ही रह जा रही है… धीरे धीरे जमा हो रही है.
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एक पढ़ाकू और एक लिक्खाड़ का संगम इलाहाबाद में ही हो सकता है 🙂
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हाँ यही सत्य है.
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आपकी एक पुस्तक समर्पित करने के बहाने मुझे भी ऐसे मनीषी का दर्शन करने और उनका आशिर्वाद पाने का सौभाग्य मिल गया ! जीवन मे सतसंग का लाभ तो मिलता ही है. .
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हमें तो पुस्तक ले जाकर लौटाना ‘भूल’ जाने वाले मित्र लूटेरे जैसे लगते है. कुछ किताबें हमारी भी ऐसी है कि अभी पढ़नी बाकि है. अब लगता है ‘पैड’ नामक उपकरण सही में वरदान जैसा है. बहुत सी ईबुक साथ में लिए घुमते है. जहाँ मन किया पढ़ लिया. न खराब होने का डर न झाड़ने पौंछने का.
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किताबो की दुनिया ऐसा ही है..किताब तो खरीद लिए लेकिन पढने के लिए समय नहीं मिल पता और अगर पढ़ लिए तो इन्वेस्टमेंट का रिटर्न मिल गया समझिये 🙂 और इन्हें सजाने का काम तो बस ….
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my uncles graduated from AU in the mid 50s. I have had numerous discussions with one of them on the good old days….Firaaq Sahab, Dharmaveer Bharti, Pant and more names!
Feel bad at the ways in which Allahabad has failed to carve for itself a fresh identity. A film titled Haasil spoke volumes on the Allhabad of the day!
thanks for this warm post!
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सुबोध जी से मुलाकात सार्थक रही। पढाकू तो मैं भी हूँ, पर उनके भीषण पढाकू नहीं। इलाहाबाद के बदलते स्वरूप पर आपकी प्रतिक्रिया- शहर अपना पुराना चरित्र खो रहा है। नई पहचान के नाम पर कुछ खास नहीं बन पा रहा! -ठीक ही है। परिवर्तन के नाम पर शहरों का यही हाल तो हो रहा है!
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15 किलो पुस्तकें हटाने में कितने ग्राम खून जला होगा, यह तो नहीं मालूम, पर मेरे लिये पुस्तकें कम करना अर्थात किसी आत्मीय को ट्रेन में बिठा आने जैसा अनुभव है।
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