निरंतरता में नये साल के क्या मायने हैं। शायद वही जो यात्रा में मील के पत्थर के होते हैं। हम शुरुआत भी शून्य से नहीं करते हैं और यह भी ज्ञात नहीं होता कि गंतव्य, वह जो भी कुछ हो, उसका मील का पत्थर कौन सा होगा। पर हर मील के पत्थर पर सुकून होता है कि एक निश्चित दूरी सकुशल पार कर आये हैं।
बहुत कुछ वैसी अनुभूति, या शायद वैसी नहीं भी। टाइम और स्पेस – समय और स्थान के दो मानकों को एक सा नहीं माना जा सकता। स्थान में आपके पास लौटानी की सम्भावना होती है। समय में वह नहीं होती। अगर आप वापस लौटते हैं तो यादों में ही लौटते हैं।
पर यात्रा है दोनो में – टाइम में भी और स्पेस में भी। बचपन और जवानी में समय की यात्रा बहुत कौतूहल और ग्लैमर भरी लगती है। मिड लाइफ में वह भयावह लगने लगती है। फिर कोर्स करेक्शन का समय आता है। अब तक यूं ही चलते चले हैं; पर अब लगता है कि एक कम्पास खरीद लिया जाये। उस दिशा-यंत्र के साथ यात्रा बेहतर लगने लगती है। कुछ लोग और दूरदर्शी होते हैं। वे कम्पास के साथ साथ दूरबीन ले कर चलते हैं। आगे देखते हैं और रात में तारों को भी निहार लेते हैं।
मैं भी ये उपकरण साथ लेकर चला हूं। पर बड़ा लदर फदर यात्री हूं। पीठ पर लदे बोझे में ये उपकरण ठूंस देता हूं और बहुधा उनके बिना चलता हूं समय के सफर पर। जब साल का अंत आता है तो सुस्ताने के लिये बैठता हूं, और तब ये उपकरण बाहर निकलते हैं। और तब लगता है कि कितनी रेण्डम होती रही है यात्रा।
यह बहुत समय से रेण्डम होती रही है और आगे भी जाने कैसे हो! 😦
(कल दोपहर में खुले आसमान तले लेटा था। अचानक बादल आ गये। उनका दृष्य है यह।)

मील के पत्थर और नये साल की तुलना खूब रही । गंतव्य तो नही है यह पर एक ओर पडाव पार जरूर कर लेते हैं हम । नव वर्ष की शुभ कामनाएं ।
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दिक्काल की यह कुछ दार्शनिक और कुछ लौकिक यात्रा रसपूर्ण रही. यात्रा तो वही जो लदर-फदर हो . जो पूरी तरह ‘प्रिडिक्टेबल’ हो वह यात्रा भी कोई यात्रा है.
कम्पास और दूरबीन (अगर वे मात्र मानसिक नहीं हैं तो) मनुष्य की यात्रा को थोड़ा सुरक्षित तो बनाते हैं पर मनुष्यता की यात्रा का तो प्रवाह ही मोड़ देते हैं. इसलिये ‘बायोलॉजिकल क्लॉक’ के अलावा सभी यंत्र सभ्यता का हिस्सा हैं संस्कृति का नहीं.
इसलिए संस्कृति तो लदर-फदर चलने और बीच-बीच में पानी और पेड़ से सामना होते ही सुस्ता लेने वाले कल्पनाविहारी ही गढते हैं.
आपने बिल्कुल ठीक लिखा है कि “स्थान में आपके पास लौटने की सम्भावना होती है। समय में वह नहीं होती। अगर आप वापस लौटते हैं तो यादों में ही लौटते हैं।” पर वह खास क्षण बीतने के बाद स्थान भी वही कहां रह जाता है. नदी में पानी और काल का प्रवाह बह चुकने के बाद वह कोई और ही स्थान हो जाता है.
कहीं पढ़ा था कि एक नदी में दो बार स्नान असंभव है. पहले यह बात कम समझ में आती थी. इधर कुछ-कुछ आने लगी है. आपको पढने का इतना लाभ तो हुआ है .
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वाह! एक नदी में दो बार स्नान करना असम्भव है! क्या बात है!
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