फांसी इमली

फांसी इमली एक इमली के वृहदाकार पेंड़ का ठूंठ है। यह सुलेम सराय इलाहाबाद में मेरे दफ्तर के रास्ते में बांई ओर पड़ता है। वाहन ज्यादातर वहां रुकते नहीं। बहुत कम लोगों ने इसे ठीक से नोटिस किया होगा।

कहते हैं कि इस पेड़ से सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की असफलता के बाद अंग्रेजों ने अनेक लोगों को फांसी पर लटकाया था। जो टीन का बोर्ड वहां लगा है, उस पर 100 लोगों की फांसी की बात कही गई है।

ठूंठ (जिससे सट कर एक पीपल का वृक्ष पनपा हुआ है) को बीचों बीच रख कर एक चबूतरा बना दिया गया है। पास में रानी लक्ष्मीबाई और मौलवी लियाकत अली (?) के सन्दर्भ में एक शहीद स्मारक बनाने का यत्न किया गया है जो काफी सतही प्रयास लगता है। इस फांसी इमली के चबूतरे पर कभी हेलमेट, कभी सस्ते खिलौने और कभी भर्ती बोर्डों के फार्म बेचने वाले अपना मजमा लगाये मिलते हैं। पास में ही एक बोर्ड है जो दुर्घटना बहुल क्षेत्र की चेतावनी देता है। दुर्घटनायें इस लिये होती हैं कि इस जगह से वाहन तेजी से गुजरते हैं।

अपने शहीदों और शहीद स्थलों की जितनी इज्जत भारतीय करना जानते हैं वैसी ही इज्जत इस स्थल की होती दीखती है! :-(

मैने अपना वाहन रोक कर इस स्थान के चित्र लिये। भर्ती बोर्ड के फार्म बेचने के लिये दो व्यक्ति वहां अपना पीले रंग का टेण्ट तान रहे थे। उनके बैग अभी नहीं खुले थे। पास में उनकी मोटर साइकल खड़ी थी। हो सकता है पुलीस वाले को चबूतरे पर दुकान लगाने का किराया भी देते हों वे। एक ठेले वाला ज्यूस बेचने का तामझाम सेट कर रहा था। एक दो गुमटियां भी आस पास बनी हुई थीं।

सब कुछ सामान्य था वहां। शहीद स्मारक जैसी गम्भीरता वहां नदारद थी।

अंग्रेजों ने सन सत्तावन के बाद यहां काफी नर हत्यायें की थीं – उसके बारे में कोई संशय नहीं है। अरविन्द कृष्ण मेहरोत्रा की पुस्तक The Last Bungalow – Writings on Allahabad में प्रस्तावना के लेख में है –

अंग्रेजों के जमाने के इलाहाबाद के सिविल लाइंस के इलाके के पूर्ववर्ती आठ गांव हुआ करते थे। उनको अंग्रेजों ने 1857 के विप्लव के बाद सबक सिखाने के लिये जमीन्दोज़ कर दिया था। गदर का एक इतिहासकार लिखता है – “बच्चों को छाती से लगाये असहाय स्त्रियों को हमारी क्रूरता का शिकार बनना पड़ा। और हमारे एक अफसर ने बताया –

एक ट्रिप मैने बहुत एंज्वॉय की। हम स्टीमर पर सिखों और बन्दूकधारी सैनिकों (Fusiliers) के साथ सवार हुये। हम शहर की ओर गये। सामने-दायें-बायें हम फायर करते गये, तब तक, जब तक कि “गलत” जगह पर पंहुच नहीं गये। जब हम वापस किनारे पर लौटे, तब तक मेरी दुनाली से ही कई काले लोग खतम हो चुके थे। 

कुल मिला कर 1857 के बाद का वह समय, जब इस फांसी इमली से लोगों को फांसी दी गयी होगी, बहुत ही दर्दनाक समय रहा होगा इलाहाबाद के लिये।

हे राम! 

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[इस स्लाइड-शो में एक बोर्ड पर लिखा मोबाइल नम्बर है। मैने उन सज्जन से बात की। कोई वकील राम सिंह जी थे। उन्होने कहा कि अपने निजी प्रयास से इस इमली के पेड़ के नीचे चबूतरा बनवाया है, एक भारत माता की और एक भगत सिंह जी की मूर्तियां लगाई हैं। वे इस स्थान का उद्घाटन स्थानीय विधायक या किसी अन्य से कराने का यत्न कर रहे हैं। वे इस बात से भी छुब्ध हैं कि जहां चौक के नीम के वृक्ष, जिससे भी बहुत से लोगों को फांसी दी गयी थी, का रखरखाव होता है; प्लेक भी लगा है; वहीं यह स्थान उपेक्षित है।

यह पूछने पर कि क्या यह 1857 का इमली का वृक्ष है; श्री रामसिंह जी ने बताया कि भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जी भी इस स्थल पर आये थे, पर स्थल का रखरखाव नहीं हुआ। शायद स्थान की ऐतिहासिकता के बारे में कुछ और सामग्री जुटाने की जरूरत हो। पर यह तो है कि कई वृक्ष रहे होंगे जिनसे अंग्रेजों ने विप्लव के बाद लोगों को फांसी दी होगी, वह भी बिना किसी न्याय प्रक्रिया के। ]

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

19 thoughts on “फांसी इमली

  1. “फांसी इमली” चलिए कम से कम ये नाम तो ऐतिहासिक ही रहेगा.
    आपने जो समय दिया इस जानकारी प्रद पोस्ट के लिए! धन्यवाद !!

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