आज कजरी तीज है। भादौं मास के कृष्ण पक्ष की तीज। आज के दिन बहनें अपने भाई को सिर और कान पर जरई बाँधती हैं।
नागपंचमी के दिन वे गांव के तालाब या नदी से मिट्टी ले कर आती हैं। उसको बिछा कर उसपर जौ छींटती हैं। रोज जौ को पानी दिया जाता है जो बारिश के मौसम में बड़ी तेजी से बढ़ता है। कजरी तक वे पौधे काफी बड़े हो जाते हैं। आज के दिन उन्हीं पौधों को वे अपने भाई के सिर पर या कान में बान्धती हैं। भाई प्रेम से बहन को उपहार देता है। बहुत कुछ रक्षाबन्धन सा त्यौहार। गांव की माटी से जुड़ा हुआ।
शहर में तो जरई का प्रचलन देखा नहीं।
आज मेरी बुआ मेरे पिताजी को जरई बान्धने आयीं। वृद्ध हो गयी हैं तो जौ को लगाने सींचने का अनुष्ठान तो कर नहीं सकी थीं। सो यहीं दूब उखाड़ कर वही मेरे पिताजी के कान और सिर पर रखा। दिन भर थीं वे घर पर। शाम को वापस गयीं। मैं घर पर नहीं था, वर्ना उनसे जरई के बारे में बात करता।

वे एक पॉलीथीन के थैले में हम लोगों के लिये अपने गांव से जौ के दाने लेती आयी थीं। मैं तो वही भर देख रहा हूं घर लौट कर!
आपकी यह पोस्ट पढने के बाद मां से जरई के बारे में पूछा। माँ ने विस्तार से वर्णन किया। मैंने भी बचपन में कई बार बंधवाया है।
प्रणाम .
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सब कुछ छूटता जा रहा है…
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हमारे यहां भोजली अब भी पूरे उत्साह से मनाई जाती है.
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पुराने लोगों के साथ न जाने क्या क्या चला जाएगा और मैं हूं कि अपने बच्चों से हैलोविन के बारे में ज़बरिया सिखाया-पढ़ाया जा रहा हूं…
मेरे लिए यह नयी जानकारी रही. धन्यवाद.
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एक नयी रीति का पता चला, कजरी का मेला तो जोर शोर से लगता है।
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एक विलुप्त प्राय: परम्परा के बारे में बताने के लिये धन्यवाद.
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फोटो अच्छी है। आप थे नहीं तो खैंची किसने?
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पत्नीजी ने।
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