क्या हाल है रिलीफ का उत्तराखण्ड में?!

वर्षा का दौर थमा है। तात्कालिक राहत का समय पूरा हुआ। अब वहां के जो बाशिन्दे हैं, उत्तराखण्ड के ग्रामीण, उनको बसाने, उनके रोजगार-जीवन यापन पर ध्यान देने का समय है।

कुछ की खेती बरबाद हुयी। कुछ के खेत भूस्खलन में नष्ट हुये होंगे। कईयों के मवेशी काल के ग्रास में जा चुके होंगे। कुछ पर्यटन या निर्माण कार्य में मेहनत-मजूरी पाते रहे होंगे और अब उनपर जीविका का संकट होगा।

चूंकि मैने शैलेश पाण्डेय के रोप-वे बनाने के कार्य के विषय में पोस्टें लिखी थीं ब्लॉग पर; मुझे इन प्रश्नो पर जिज्ञासायें थीं। शैलेश के एक फोन कॉल ने वे जिज्ञासायें उभार दीं।

रोप-वे विषयक पोस्टें:

शैलेश की रिपोर्ट – रुद्रप्रयाग और श्रीनगर के बीच सेशैलेश की कार्य योजना – फाटा से मन्दाकिनी पर ग्रेविटी गुड्स रोप-वे राहत सामग्री के लियेमन्दाकिनी नदी पर रोप-वे बनाने में सफल रही शैलेश की टीममन्दाकिनी नदी पर रोप-वे : अपडेट

शैलेश ने बताया कि उनकी रेलगाँव के धीर सिंह टिण्डूरी से बात चीत हुयी है। धीर सिंह ने बताया कि मन्दाकिनी पर रोप वे तो ठीक काम कर रहा है, पर गांववालों की हालत ठीक नहीं चल रही। स्थानीय प्रशासन और सरकार उदासीन से हैं। बाहरी सहायता भी अब लगभग समाप्त हो चली है।

शैलेश पाण्डेय (बायें) के साथ रेलगांव निवासी धीर सिंह टिण्डूरी।  यह चित्र उस समय का है, जब शैलेश फाटा-रेलगांव में रोप-वे का निर्माण करने गये थे।
शैलेश पाण्डेय (बायें) के साथ रेलगांव निवासी धीर सिंह टिण्डूरी।
यह चित्र उस समय का है, जब शैलेश फाटा-रेलगांव में रोप-वे का निर्माण करने गये थे।

उनके फोन के बाद मैने सीधे जानकारी लेने के लिये श्री धीर सिंह को फोन लगाया। धीर सिंह टिण्डूरी फोन का उत्तर देने में और जानकारी देने में प्रॉम्प्ट हैं। उन्हे शायद लगता है कि फोन बाहरी दुनियां से वह सम्पर्क खोलता है, जिससे स्थानीय लोगों को सहायता मिल सकती हो।

धीर सिंह ने बताया कि शैलेश की टीम का बनाया रोप-वे ठीक से काम कर रहा है। अब उन लोगों ने उसमें परिवर्तन कर एक व्यक्ति द्वारा चलने वाला सेल्फ-प्रोपेल्ड रोप वे बना लिया है। जहां उनका यह रोप वे काम कर रहा है, वहीं पीडब्ल्यूडी का बनाया रोप वे लोगों के बैठते ही लटक जाता है। लिहाजा वह काम का नहीं है।

मन्दाकिनी नदी की कटान और अतिवृष्टि ने रेलगांव के लोगों की लगभग चार हेक्टेयर खेती की जमीन खत्म कर दी है। लोगों के पास खेती का उपाय नहीं बचा। खच्चरों से सामान ढोने का काम नहीं हो रहा – क्यों कि आस पास निर्माण कार्य ठप है। मेहनत मजदूरी भी नहीं के बराबर मिल रही है।

वे लोग रुद्रप्रयाग के डी.एम से मिलने गये थे कि इस दुर्दशा के बारे में। अनुरोध था कि वे वन विभाग की लगभग डेढ़ हेक्टेयर जमीन – जिसपर वन विभाग की नर्सरी है और बाकी जंगल है (जिसमें जलाऊ लकड़ी के ही पेड़ हैं, कोई बहुमूल्य वृक्ष नहीं) – गांव के 18-19 परिवारों को खेती करने के लिये दे दें, जिससे लोगों की गुजर बसर हो सके। पर डी.एम. साहब ने कहा कि भूगर्भ विभाग की टीम आयेगी और वन पंचायत इस बारे में कुछ निर्णय ले सकेगी। कुल मिला कर उनसे कोई आश्वासन नहीं मिला। पहले सरकारी महकमे के लोग गांव की ओर रुख करते भी थे, अब कोई नहीं आता। “अब कितनी बार डी.एम. साहब के पास जायें”।

फाटा-रेलगांव की सड़क भी नहीं बनी। जीप जैसी छोटी गाड़ी आ जा पाती है। उससे बड़ी गाड़ियों के लिये रास्ता नहीं है। जब राहत मिल रही थी तो रोप वे से 200-300 चक्कर रोज लगते थे। अब 20-30 फेरे ही लगते हैं।

“सरकार उदासीन है। सहायता है नहीं। काम-किसानी है नहीं। हालत खराब हैं, साहब।” धीर सिंह असहाय नहीं लगना चाहते फोन पर बात करते हुये। पर यह भाव उनकी बातचीत से झलक ही जाता है।

आपको आश्चर्य हो रहा है इस पोस्ट में वर्णित दशा से? मुझे नहीं। जब तक मीडिया का फोकस रहता है – सरकारी अमला (और एनजीओ भी) तत्पर रहते हैं काम करता दीखने में। उसके बाद तो सन्नाटा पसरना ही है। वही हो रहा है!

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

9 thoughts on “क्या हाल है रिलीफ का उत्तराखण्ड में?!

  1. फीडली पर आपके लेख पढता रहता हूँ – ‘lurking’ मोड में। पोस्ट की संख्या कम सी हो गयी है – अगली पोस्ट का इंतजार है। जल्द ही लिखियेगा!

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  2. कभी कभी लगता है कि कुंडा के दिवंगत डी.एस.पी. की पत्‍नी ने समय रहते अगर गर्म लोहे पर चोट कर पूरे परिवार को नौकरी दिलवाने की ज़ि‍द की थी तो वह सही ही थी वर्ना यहां तो रात गई बात गई :-(

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  3. नहीं, आश्चर्य नहीं हुआ। जानता हूँ, हर जगह लुटेरे हैं, अलग अलग वेश में .
    प्रणाम .

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  4. धीरे धीरे सरक कर जो आरी चलती है वो सर-कारी बोली जाती है, सभी जगह यही आलम है।

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  5. आपने यह बात एकदम सही कहीं है कि जब तक मीडिया का फोकस रहता है – सरकारी अमला (और एनजीओ भी) तत्पर रहते हैं काम करता दीखने में. उसके बाद तो सन्नाटा पसरना ही है। वही हो रहा है. सरकारी अमले की बात तो समझ में आती है, लेकिन इन स्वयं सेवी संस्थाओं क्या अब सांप सूंघ गया? जब तबाही हुई थी, तब सरकारी अमले के साथ साथ ये संस्थाएं भी बहुत बढ़-चढ कर राहत कार्यों में हिस्सा ले रही थी लेकिन अब असली राहत की जरूरत है तो सभी नदारद है….

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