
बच्चे पॉलीथीन की पन्नियां, महिलाये और पुरुष दऊरी या अन्य कोई बर्तन लिये जमीन पर गिरे पीले फूल बीनते दिखते हैं। भीनी भीनी गंध पूरे वातावरण में बसी है।
मेरे तो घर में कमरों में भी, जब हवा तेज होती है तो यह गंध घुस आती है। कुछ फूल बीन लाओ तो उसके आसपास गंध दिन भर रहती है।
आज सवेरे साइकल से घूमने निकले राजन भाई के साथ तो एक जगह, गड़ौली गांव के आसपास, बढ़िया दृष्य था। एक महिला और पुरुष कई रंग बिरंगी धोतियां जमीन पर बिछाये थे एक खेत में। खेत में एक महुआ का पेड़ था। गेंहू की फसल कट चुकी थी। खेत के मैदान में धोतियों पर महुआ टपक रहा था और वे बीन रहे थे उन धोतियों पर से। मैने अपनी साइकल रोक दी। उनका चित्र लेने लगा।
अऊर का। न देखवारी करी त लोग महुआ के संघे धोतियऊ उठाई लई जांईं (और क्या! रात में देखवारी न करें तो चोर महुआ के साथ साथ ये धोतियां भी उठा ले जायें)।
उस आदमी ने बताया कि नीलगाय का भय नहीं है। खाली खेत में टपकते महुआ से उसको कोई लेना देना नहीं। पर टपकते महुआ के लिये गांव वाले ही नीलगाय हैं जिनसे बचाना पड़ता है रात रात भर जाग कर।
महुआ खरीदने के लिये व्यापारी आते है और महुआ के फूल ले जाते हैं। दस – बीस रुपया किलो। जब जैसा रेट मिल जाये।
उन लोगों ने जितना महुआ बीना था, बालटी और दऊरी में; वह करीब बीस-पच्चीस किलो रहा होगा। करीब 300-400 रुपये का। एक दिन की इतनी आमदनी दो व्यक्तियों की। ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं है। पूरा देहात महुआ बीनने में लगा है। करीब 50 से 100/200 रुपये की आमदनी के लिये।
व्यापारी क्या करता है महुआ के फ़ूल का? राजन भाई बताते हैं कि यह जोड़ों के दर्द के लिये औषधि बनाने में काम आता है। इसके फूल पानी में या दूघ में उबाल कर फूलों को छानने के बाद बचे पानी या दूध का सेवन करने से जोड़ों के दर्द में बड़ा आराम मिलता है। बाकी; महुआ का प्रयोग देसी शराब बनाने में तो होता ही है।
महुआ लोक कविताओं में बहुत सशक्त रोमांटिक तत्व है। यह इतने बैठे ठाले लोगों को रोजगार भी दे रहा है – यह शायद कम लोग जानते होंगे।
अब जान जाईये! 😆
