विजय तिवारी जी का आत्मकथ्य

विजय जी के रेस्तरॉ में जाते मुझे दो सप्ताह से अधिक हो गया। वहां जाने की पहली पोस्ट दस जनवरी को लिखी थी। तब से अब तक परिचय की प्रगाढ़ता बहुत हो गयी है। उनके व्यक्तित्व के कई अन्य पहलू बातचीत में सामने आ रहे हैं।

आज उन्होने बातचीत के क्रम में नहीं, यूं ही कहा – आपने किसी व्यक्ति को देखा है, जिसपर कोई दबाव न हो? कोई भी दबाव।

विजय तिवारी

वे शायद अपने रेस्तरॉं के उपक्रम के दबाव (तनाव) की बात कर रहे थे। नया काम प्रारम्भ किया है तो उसके उतार चढ़ाव झेलने पड़ ही रहे होंगे। उन्होने बताया कि दो दिन पहले रात में एक गुजराती परिवार आ गया। प्रयागराज से वाराणसी जा रहा था। परिवार के चार सदस्य और एक वाहन चालक। उन्होने भोजन किया। फिर कहा कि रात गुजारने के लिये कोई स्थान मिल सकता है क्या?

विजय जी के रेस्तरॉं में अभी इस तरह की सुविधा नहीं है। पर उन्होने (रेस्तरॉं के बन्द होने का समय हो ही गया था) हॉल में ही व्यवस्था कराई। उन लोगों ने अपने बिस्तर आदि अपने वाहन से उतारे और रात भर यहीं विश्राम किया। सवेरे रेस्तरॉं नौ बजे खुलता है; तब तक वे लोग तैयार हो कर रवाना हो गये। बाद में आगरा से उन लोगों ने फोन कर धन्यवाद ज्ञापन किया और कहा कि जब कभी इस ओर आयेंगे, यहां जरूर आयेंगे।

इस तरह छोटे छोटे पैकेजेज में गुडविल जमा कर रहे हैं विजय तिवारी। यह ग्राहक को ह्यूमन-टच वाली सर्विस देने की उनकी आदत उन्हें सफल बनायेगी – यह कामना करता हूं।

रामचरितमानस से चौपाइयां कोट कर रहे थे वे। कोई प्रसंग जिसमें हनुमान प्रभु राम से एकात्मता की बात करते हैं। मुझसे पूछा – आप रामायण पढ़ते हैं? उत्तरकाण्ड पढ़िये। जीवन जीने का तरीका और आज का समय – सभी लिख गये हैं तुलसीदास। इस इलाके में तुलसीदास को उद्धृत करने वाले बहुत हैं, पर एक रेस्तरॉं चलाने वाले व्यक्ति में इस प्रकार का परिष्कृत व्यक्तित्व होना नहीं पाया है।

उनका (लगभग्) मोनोलॉग चल रहा था; वर्ना मेरे मन में आया कि वह प्रसंग मैं भी कहूं जिसमें राम हनुमान से पूछते हैं – तुम कौन हो? और हनुमान का उत्तर – “देह बुध्या तु दासोहम्, जीव बुध्या त्वदंशक:, आत्मबुध्या त्वमेवाहम्” द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत – तीनों का सिन्थिसिस कर देता है।

सवेरे एक कप कॉफी, रेस्तरां में अकेले विजय जी के साथ बैठना और मानस-उत्तरकाण्ड पर आदान-प्रदान; रिटायर्ड जीवन में इससे बेहतर क्या चाहिये? क्या हो सकता है?

विजय जी ने कहा कि अब तक तो ज्वाइण्ट फैमिली के केनवास तले जिन्दगी चल रही थी। सब कुछ सामान्य था और कम्फर्टेबल भी। यह रेस्तरॉं तो पिंजरे से बाहर निकल पंख फड़फड़ाने की कवायद है। अब देखना है कि पंख कितने मजबूत हैं और उड़ान कितनी भरी जा सकती है।

मैं बेबाकी से कहता हूं – विजय तिवारी से इस तरह से दार्शनिक अन्दाज में सोचने और अभिव्यक्त करने की कल्पना नहीं करता था। … यह व्यक्ति अपना धन्धा, अपने कर्मचारियों पर व्यय, अपने उत्पाद की क्वालिटी और अपने ग्राहक के चुनाव को ले कर सोच रखता ही है; अपने जीवन जीने के तरीके और अपने वैल्यू सिस्टम पर भी सोचता है।

परिष्कृत सोच केवल शहरी और अभिजात्य भद्रलोक की ही बपौती नहीं है, जीडी। उगपुर गांव का एक ज्वाइण्ट फैमिली का एक व्यक्ति भी विलक्षण सोच रख सकता है।

चिन्ना मेन्यू पढ़ते हुये – S-h-a-h-i शाही। उसके आगे पनीर बिना पढ़े जोड़ लिया!

चिन्ना मेरे साथ है। वह मेन्यू के आइटमों के हिज्जे जोड़ कर आइटम जानने की कोशिश कर रही है। उसके लायक कोई सामग्री रेस्तरॉं में नहीं है। विजय उसके लिये एक पापड़ मंगवाते हैं। पिछली बार वह इस जगह पर आना नहीं चाहती थी। उसे लगा था कि यहां कोई इंजेक्शन लगाने वाले डाक्टर बैठते हैं। पर आज वह खुशी खुशी आयी थी।

कुल मिला कर श्री विजया रेस्तरॉं में आधा घण्टा गुजारना आजकल मुझे बहुत भा रहा है। समय गुजारना भी और तिवारी जी के साथ इण्टरेक्शन भी।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

4 thoughts on “विजय तिवारी जी का आत्मकथ्य

  1. What is the meaning of this – हनुमान का उत्तर – “देह बुध्या तु दासोहम्, जीव बुध्या त्वदंशक:, आत्मबुध्या त्वमेवाहम्” द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत – तीनों का सिन्थिसिस कर देता है।

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    1. देह बुद्धि से अपने को ईश्वर का दास बताया. यह duality है – भक्ति योग का मूल. जीव अपने को ईश्वर से जोड़ कर देखता है – विशिष्ट-अद्वैत या qualified dualism. जब ईश्वर का पूर्ण ज्ञान हो जाता है तो आत्म ज्ञान से युक्त वह अपने को ईश्वर से identify करता है. हनुमान जी तीनों स्तरों पर जीते हैं – विलक्षण भक्त हैं वे.

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  2. आपकी पोस्ट पढ़कर बहुत आनन्द आता है । अपनें आसपास 50 या 100 कलोमीटर के दायरे मे बहुत से स्थान होंगे , कस्बे, व्यक्ित, लोग, हस्तशिल्प, मिट्टी के बर्तन आदि आदि इनको भी एक्सप्लोर करें ।

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