छब्बीस फ़रवरी की सुबह, जब देर से उठा और उठते ही सामान्य तरीके से मोबाइल पर खबर की सुर्खियां देखीं तो स्पष्ट हो गया कि पुलवामा का काउण्टर सेना ने कर दिया है। यह स्पष्ट हो गया कि अगले कुछ दिन इसी सर्जिकल 2 की चर्चा में गुजरने वाले हैं। और गुजरे भी।
पर जिस मन्थन, जिस चर्निंग, जिस उच्च रक्तचाप को भारत (और पाकिस्तान भी) के लोगों में पाया वह अकल्पनीय था। एक दिन तो प्रतिपक्ष सन्न खींचे था। उसे लग रहा होगा कि उसके नीचे से जमीन दरक गयी है। भगत गण (और मैं भी) गदगद थे। यह गदगदायमान की दशा अगले दिन तब तक बनी रही जब तक कि मिग के मलबे नहीं दिखाये जाने लगे। वह भी खैर कुछ खास नहीं था। जब से मिग आये हैं – और मेरी किशोरावस्था के दिनों से उनकी चर्चा होती रही है – तब से निरन्तर उनका युद्ध के अलावा भी गिरना सुनता-देखता रहा हूं। सनाका खाने का अवसर तब आया जब मिग के पायलेट को पाक अधिकृत जमीन पर नाले में पड़े और लोगों की मार खाते देखा।
युद्ध गजब की चीज है। हमारे व्यक्तित्व में अच्छा से अच्छा और बुरा से बुरा पट्ट से निकाल कर दिखा देता है। वह जितना इस बार दिखा – सोशल मीडिया, टीवी के उन्मादित एन्करों और चर्चा में शामिल सुधीजनों की प्रतिक्रियाओं के द्वारा – उतना पहले कभी नहीं दिखा था।
सन्न पड़े विपक्षी दलों को मानो संजीवनी मिल गयी। उसके बाद सरकार के खिलाफ़ जो जहर उगला गया, उस जहर को तीखा बनाने के लिये पाकिस्तान की जम कर तरफ़दारी की गयी और प्रतिपक्ष जिस तरह से मोदी की आलोचना में लग गया – आलोचना में कुछ सही था और अधिकांश अण्ट शण्ट था – वह सब अकल्पनीय था।
इस प्रतिपक्ष की प्रतिक्रिया से निरपेक्ष कुछ फेन्स-सिटर्स भी आयंबांयशांय बक्कने लगे। पर जो ज्यादा हुआ, वह यह था कि सरकार और सर्जिकल स्ट्राइक के पक्ष के लोग उनसे भिड़ने के लिये जिस जूतमपैजार की भाषा पर उतरे, वह भी मानवीय प्रतिक्रियाओं का निम्नतर नमूना दिखा।

युद्ध गजब की चीज है। हमारे व्यक्तित्व में अच्छा से अच्छा और बुरा से बुरा पट्ट से निकाल कर दिखा देता है। वह जितना इस बार दिखा – सोशल मीडिया, टीवी के उन्मादित एन्करों और चर्चा में शामिल सुधीजनों की प्रतिक्रियाओं के द्वारा – उतना पहले कभी नहीं दिखा था।
अपने बचपन में आल इडिया रेडियो पर “रेडियो झूठिस्तान” की पैरोड़ी का सुनना याद हो आया सन 1965 की लड़ाई के समय का। देश एकजुट था और पैरोडी का स्तर इतना (गिरा हुआ) नहीं था। इस बार तो पराकाष्ठा थी…
भिड़ने के चक्कर में मैने अपने कई जान पहचान के लोगों को गालियों और अपशब्दों के उस प्रयोग पर उतरते देखा, जो उनके व्यक्तित्व से कदापि मेल नहीं खाता था। प्रतिपक्ष के और कई साम्यवादी/सेक्युलर, दक्षिणपन्थ के “युद्ध-उन्माद जगाने वाली मनस्थिति” का काउण्टर करने के लिये देश से गद्दारी की सीमा तक बोलते नजर आये। उनकी प्रतिक्रिया के सामने पाकिस्तान के अखबार (विशेषत: द डॉन) तो हिन्दुस्तानी से लगने लगे। उनसे भिड़ने के लिये मेरे कई दक्षिण पन्थी और “भगत” मित्र भी मादर-बहन वाले अस्त्रों का यूं प्रयोग करने लगे, मानो वे असुरों से लड़ने के वृहस्पति-विश्वामित्र के बनाये अस्त्र हों।
टेलीवीजन वाले तो कटनहे कुकुर सा रियेक्शन दे रहे थे। उनका बोलने का लहजा – आम सी बात को बोलने का लहजा भी – इतना शब्दों पर जोर दे कर होता है, इतना चीखता चिल्लाता होता है कि लगता है इनमें से सभी हाइपर टेंशन के मरीज होंगे। कल तो दिन भर अपनी टीआरपी के चक्कर में मिग के पाइलेट को वैसा दर्जा दे दिया मानो वह महाभारत का पाण्डव पक्ष का महारथी हो – अकेले ही दोचार अक्षौहिणी सेना को मार देने में सक्षम। अभिनन्दन की वीरता में हम भी अभिभूत थे। पर टीवी ने इस अभिभूत होने को इतना भुनाया कि रात में जब पाइलट का पाकिस्तानियों का उसके मुंह में डाले शब्दों का हाई-ली एडिटेड वीडियो देखने को मिला तो अचानक उस अभिभूताइटिस में कन्वल्शन होने लगे। मेरे एक मित्र ने तो सेना भर्ती में चयन की प्रक्रिया की कमियों की चर्चा भी प्रारम्भ कर दी ट्विटर पर।
कई अच्छे अच्छे लेखक – जो मरने के बाद भी कई पीढ़ियों- सदियों तक अपने लेखन/पुस्तकों के लिये जाने जायेंगे -जिस घटिया स्तर की ट्वीट करते दिखे, उसको देख उनकी विद्वता पर गहरा शक होने लगा।
पर शायद यह सब हम लोग अपनी सामान्य अवस्था में नहीं युद्धोन्माद की दशा में बोल रहे थे। वैसे जैसे एनेस्थीसिया में पड़ा मरीज आंय बांय करता है। मुझे पक्का यकीन है कि ये सब अपनी कुछ ट्वीट्स पर भविष्य में पछतायेंगे जरूर।
कुल मिला कर जो होता दिखा, वह अप्रिय था, और हम सब के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के लिये हानिकारक था। सेना पता नहीं कितने दिन का युद्ध लड़ सकती है; पर सोशल मीडिया और सामान्य मीडिया में भिड़े लोग तो बड़ी जल्दी बीमार हो डाक्टरों के परामर्श के लिये बाध्य हो जायेंगे; ऐसा मुझे लगा।
bahoot khoob likhe dadda………..ek-dum samyik………pranam.
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जरूरी और सही विश्लेषण। कुछ ट्वीट्स के स्क्रीनशॉट मसाले के रूप में दिए जा सकते थे तो हमें भी पता चलता कि किसने क्या और कैसे पछताना है 😂
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हा हा! जान बूझ कर नहीं दिया। उनमें से एक तो वे सज्जन हैं जिनकी पुस्तकें आधुनिक भारत के इतिहास के लिये मानक हैं और जिन्हे स्वातन्त्र्येत्तर भारत पर अथॉरिटी माना जा सकता है। 😆
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