मैं कई बार अपने ब्लॉग की सामग्री को पुस्तकाकार देने की सोचता हूं। पहली बात तो आलस्य है, जिसके कारण वह प्रॉजेक्ट हाथ में नहीं लेता। दूसरे एक परफेक्शनिस्ट मन में है जो जब तक यह आश्वस्त न हो जाये कि पुस्तक नायाब बनेगी, उसपर हाथ नहीं लगाना चाहता। तीसरे मुझे अहसास है – और वह सही है कि – मेरे पास शब्द भण्डार कम है। बहुत ही कम। ब्लॉग पर मैं अपने लिखने की कमी को चित्रों के माध्यम से पूरी करता आया हूं। और कभी कभी तो चित्र इतने ज्यादा होते हैं कि पोस्ट का गला घोंटते नजर आते हैं। चित्रों की बहुतायत कथ्य के चरित्र को इतना मरोड़ देती है कि ब्लॉग पोस्ट का पब्लिश बटन दबाने मेंं लाज आने लगती है। चित्रों का आधिक्य कभी कभी – और बहुधा – पोस्टों को ड्राफ्ट से ट्रेश बिन की ओर का रास्ता दिखाता है बनिस्पत ड्राफ्ट से शिड्यूल और फिर पब्लिश की ओर की राह। इस उहापोह के बावजूद भी “मानसिक हलचल” पर डेढ़ हजार से ज्यादा सार्थक पोस्टें (वे जिनमें कुछ मौलिकता है) ठेली जा सकी हैं तो वह क्रेडिट है ज्ञानदत्त पांड़े का।
पर मुझे यह ज्ञात है कि पुस्तकाकार देने के लिये मुझे चित्रों को कम करना है। उनका पिस्क्सल भी कम करना है और संख्या भी। चित्रों को यह घटाने की प्रक्रिया में मुझे पोस्टों का पुनर्लेखन करना होगा। वह बड़ा काम है। उतना श्रम करने की क्षमता और उतना धैर्य मुझे अपने में नहीं लगता।
पर आगे के लिये क्या किया जा सकता है? ब्लॉग पोस्टों की चित्रों पर निर्भरता कम करनी होगी। कम चित्र और ज्यादा लेखन चल पायेगा? पढ़ने वाले 700-800 शब्दों से अधिक की पोस्ट पर बंधे नहीं रह पाते। ब्लॉग को पूरा पढ़ने की और उसपर फिर से लौटने की प्रवृत्ति नहीं दीखती पाठक में। सम्प्रेषण के लिये चित्र की बजाय पॉडकास्ट का प्रयोग भी अंतत: उसे उसके पुस्तकीकरण में बाधक ही होगा।

पर जीडी – ब्लॉग पोस्टों का पुस्तक के रूप में रूपांतरण हो सकता है – यह अपने आप में गलत सोच है। ब्लॉग अपने आप में अभिव्यक्ति का एक अलग और बिल्कुल ही भिन्न प्रकार का माध्यम है। दोनों को एक दूसरे में फ्यूज नहीं करना चाहिये। दोनो के लिये अलग अलग प्रयास होने चाहियें।
ब्लॉग को साहित्य की एक अलग विधा के रूप में क्यों नहीं प्रतिष्ठा मिलती? एक शुद्ध ब्लॉगर (मेरे जैसा) अपने ब्लॉग के लिये एक शुद्ध लेखन की अपेक्षा कम मेहनत नहीं करता। मेहनत कलम (की-बोर्ड) के स्तर पर भी और विचार के स्तर पर भी। पर उसे घटिया से घटिया साहित्यकार भी अपने से घटिया मानता है। :lol:
मैं जानता हूं कि मेरे में यह द्वंद्व चलेगा। वह तब तक चलेगा जब तक मेरे पाठक गण मुझे सलाह देते रहेंगे कि मैं पुस्तक लिखूं। या आजकल मुझे सलाह देने वाले अधिक मिलने लगे हैं कि मैं एक यू-ट्यूबर बनूं। वैसे छियासठ की उम्र कोई बहुत ज्यादा नहीं होती। नई विधायें और सम्प्रेषण के नये तरीके अपनाने और उसमें प्रवीणता हासिल करने में दिक्कत नहीं होनी चाहिये। बशर्ते आपमें आलस न हो। और जीडी मूलत: आलसी जीव है!

आई नो; मैं जानता हूं कि ऊपर के पैराग्राफ को मेरी पत्नीजी और मेरी बिटिया पढ़ कर मेरे ऊपर चढ़ाई कर देंगी। दोनो को गुमान है कि उनका पति और उनका पिता कहीं ज्यादा कर सकता है पर वह अपनी जिंदगी के तीसरे और चौथे फेज के बहुमूल्य दिन-समय बरबाद कर रहा है। उनकी इस चढ़ाई को मैं एक कान सुन कर दूसरे से निकालता रहा हूं या उनको गलत साबित करने के बहाने बनाता रहा हूं। मेरे पास शब्द भण्डार कम है पर इतना शब्द भण्डार तो है ही कि बहाने अच्छे से गढ़ सकूं। … लेकिन मूल बात यह है कि मेरे भीतर, मेरे व्यक्तित्व का एक पक्ष खुद अपने पर उसी प्रकार से चढ़ाई करता है जिस प्रकार मेरी पत्नी और पुत्री करते हैं। :lol:
सो यह विचार पुख्ता होते हैं –
- अपना शब्द ज्ञान बढ़ाना चाहिये। उतना कि चित्रों की जरूरत न पड़े। मसलन जॉन स्टाइनबैक की “ट्रेवल्स विथ चार्ली” पढ़ते समय कभी मन में उस समय के अमरीका की कल्पना करने में कोई दिक्कत नहीं हुई। यद्यपि पुस्तक में कोई चित्र नहीं हैं। शब्द ही ब्रह्म है जीडी। उन्हें चित्रों की बैसाखी से आगे न ठेलो। या कम से कम ठेलो!
- मेहनत करनी चाहिये। छियासठ सत्तर की उम्र – जब कोई को-मॉर्बिडिटी आपकी मानसिक क्षमता या साइकिल चलाने की ताकत पर असर नहीं डाल रही – तब नई नई विधाओं पर हाथ अजमाई करते रहना चाहिये।
- जब तब चित्र खींच कर अपने विचारों की चित्रों में तह बनाने की बजाय नोट बुक में ज्यादा नोट्स लेने की प्रवृत्ति बनाओ। या डिक्टाफोन में बोल कर विचारों को कैप्चर करो। अन्यथा विचार तरल होते हैं। बड़ी तेजी से विलीन हो जाते हैं। बाथ रूम में, कमोड पर भी, डिक्टाफोन को हैण्डी रखो।
- जोर लगा कर सन 2022 में सौ दो सौ पेज की एक किताब ठेल ही दो। भले ही उसके पाठक न हों! :lol:
- पत्नीजी और बिटिया की ‘चढ़ाई’ को अहमियत दो पर उससे कुण्ठित होने या अड़ियल टट्टू की तरह न मानने की जरूरत नहीं है। … पांड़े जी; निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय! वे तुमारी जिंदगी के थर्ड-फोर्थ फेज के सबसे बड़े साथी हैं!

ये सभी विचार दोपहर में भोजन करने के बाद खुले आसमान के नीचे चारपाई पर लेटे धूप सेंकते आये हैं। अब इस पोस्ट में 800-900 शब्द बन गये हैं। एक भी चित्र का कंट्रीब्यूशन नहीं है इस पोस्ट में। ब्लॉग पोस्ट समापन करने का समय है। क्या किया जाये? मोबाइल हाथ में ले कर आसमान के एक दो चित्र ही पोस्ट में डाल दिये जायें? मन मानता नहीं। एक दो चित्र तो होने ही चाहियें ब्लॉग पोस्ट में। :smile:

मेरा मानना है कि चित्र कमजोरी नहीं बल्कि आवश्यक उपालम्भ हैं।
आप प्रिंट की पुस्तक की ओर क्यों ध्यान दे रहे हैं, पुस्तकें केवल किंडल के लिए लिखिए, प्रिंट का जमाना बीत गया। किंडल या गूगल प्ले बुक्स पर अपनी पुस्तक प्रकाशित कीजिए, अधिक पाठक और अधिक पाठक परास मिलेगी। प्रिंट की एक पुस्तक 300 कॉपी बिकने पर बेस्ट सेलर होती है, उससे कहीं अधिक पुस्तक ऑनलाइन बेच चुका हूं। ऑफलाइन में पहली बार में मेरी पुस्तक 550 प्रिंट छपी थी, पहले छह माह में आउट ऑफ प्रिंट हो गई। उसके बाद लंबे समय तक वापस छप नहीं पाई।
किंडल पुस्तक में एक ही विषय पर लिखे आपके लेखों जमावड़ा कीजिए और पुस्तक बना दीजिए, एक साल, दो साल या एक दशक में एक हजार कॉपी अपने आप बिक जाएगी, ब्लॉग तो अपनी जगह है ही।
ऐसा नहीं है कि आपके ब्लॉग में कुछ कमी है, इस कारण आपको पुस्तक लिखनी चाहिए, इसलिए पुस्तक लिखनी चाहिए ताकि आपके हिसाब से जो लेख एक ही धारा के हैं उनका कंपाइलेशन हो जाए…
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आप सही कह रहे हैं. मेरे दिमाग में किंडल ही था. वैसे भी पेपर वाली पुस्तक तो अब मजबूरी में ही खरीदता हूँ – जिसका ई संस्करण उपलब्ध ही न हो!
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आपको पुस्तक अवश्य लिखना चाहिये क्योंकि आपका ब्लॉग स्वयं में पुस्तकों का सागर है। किसी भी विषयवस्तु को प्रस्तुत करने कि जो असाधारण प्रतिभा आपमें है वह विरलों में मिलती है।🙏🙏
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जय हो 🙏
प्रशंसा किसे न भाये. मेरी पत्नीजी का कहना है कि सुधी जनों की इसी प्रशंसा से मैं चने के झाड़ पर चढ़ इतराने लगता हूं. 😁
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जय हो! किताब लिखने की बात आपके मन में आयी तो, देर से ही सही। मेरे हिसाब से आप आधा दर्जन पुस्तकें लिख चुके हैं। केवल उनके सम्पादन और प्रकाशन की देर है। सामग्री उपलब्ध है। केवल उसे एक माध्यम से दूसरे माध्यम पर ले जाने के लिए कुछ तकनीकी परिवर्तन कराना है।
आपको याद होगा आपकी प्रेरणा से ही मैंने ब्लॉग लेखन का ककहरा सीखा था – 2008 में जब आप इलाहाबाद में अफसर थे। सत्यार्थमित्र ब्लॉग प्रारंभ होने के एक साल बाद ही पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो गया। हिन्दुस्तानी एकेडमी ने प्रकाशित किया था। उसके लोकार्पण के समय आप उपस्थित थे जब नामवर सिंह जी ने ब्लॉग लेखन को कूड़ा साहित्य बताने की कोशिश की थी और उनपर देश भर के ब्लॉगर चढ़ बैठे थे।
बस ये पर्फेक्शनिस्ट वाला कीड़ा बाहर निकाल दीजिए। शेष सब हो जाएगा।
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नामवर सिंह जी की अच्छी याद दिलाई! लोकभारती के दिनेश ग्रोवर जी ने कहा था – वह आया था। यहीं बैठ कर इन्टरनेट और ब्लॉग के बारे में जानकारी ले रहा था. उसके बाद फंक्शन में गया होगा.
दिनेश जी उस युग के थे जो सुमित्रानंदन पंत जी के बारे में भी इसी तरह आत्मीय भाषा में बोल सकते थे. उनके बारे में मेरे ब्लॉग पर कुछ पोस्टें हैं.
आप सही कह रहे हैं. ब्लॉग पर मसाला खूब है. उसका पुनः लेखन – संपादन करना चाहिए पर वह श्रम चाहेगा. 😁
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ये तो हुई मेरे मन की बात । पुस्तक का पहला पाठक बनने का प्रयास करूंगा । प्रणाम।
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जय हो आनंद जी! 🙏
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आलोक जोशी ट्विटर पर –
विचार हैं..आते जाते रहते हैं.
एकबार एक विचार रात को ढाई बजे स्वप्न में आया था,आँख खुल गई..कहीं सुबह तक उसमें टूट फूट न हो जाये , मैंने रात ढाई बजे जगकर कलम उठाई थी..पत्नी जी वो समय और लेखन देखकर अवाक थी, एक बार देखा ही, कि पैन कागज पर कर क्या रहा हूँ.. सुहाता है ये पागलपन भी!!😊
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बाकी तो सब ठीक है पर यदि आपके पास शब्द भंडार कम है, बहुत ही कम तो हमारा क्या होगा। कहना होगा कि हमारे पास सिर्फ वर्णमाला भर के शब्द हैं, ककहरा सिखाने वाले।
दूसरी बात, आपके चित्र बोलते हैं खुद ही।
हाँ, किताब ठेल ही दीजिए, हम हैं पढ़ने वाले।
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जय हो कुमारेंद्र सिंह जी। मैं केवल चित्र और शब्द के तालमेल – अनुपात की बात कर रहा था। दूसरे, कई अच्छे लेखक जिनके पास अच्छी कलम है के शब्द कितना कमाल कर चित्र की कमी पूरी करते हैं। उनकी सोच और उनके शब्द! कोई जवाब नहीं!
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I am your regular reader , never ever I had missed any of your posts , posted in last 2 years . Your blog posts helped me to navigate COVID time. TOUGH Time – I was down , family was down , but the UP were your posts ::)) . Trust me – I mean it .
As Vikas Ji rightly said , pictures supplements the texts . Visuals helps the readers to relate with the context . This is normal to have visuals and text in a children books , same you can experiment with a book for adults . Especially if you pick up the subject on Village life , or Ganga or similar genre . Successful first inning , boosts up the risk apatite in the second inning ::))) .
Sri Ganesh Kar Hi Dijiye !!!!!!!!!!!!!!!!!
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धन्यवाद मनीष जी, आपकी शुभकामनाओं के लिए! 🙏
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Same
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नमस्कार पाण्डेजी,
थोड़े समय से नही आ पाया इधर इस लिए माफ़ कीजियेगा। प्रोकरसीनेशन से मैं भी जूझता रहता हूं। आपकी भावनाओं से सामंजस्य है मेरा।
काफ़ी कुछ है जो परफेक्ट है ही और अगर आपको लगता है कि अधूरापन है या शब्द लालित्य नही है तो ये मेरे हिसाब से आपका ओवर थींकिंग ही है। बस कर दीजिए ।
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धन्यवाद बंधुवर। आशा है कि आप सकुशल और आनंद से होंगे! जय हो 🙏
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बहुत अच्छा लिखते हैं आपने सही कहा कि जो है वही परफेक्ट है
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पांडे जी, सोचिए मत ,आपके पास जो भी ज्ञान है जैसी भी भाषा शैली है जिस तरह से अपनी बात कह और लिख सकते है आपके पास जो भी आईडियाज है,जीतने भीशब्द और सेटेन्स गध सकते है उन सबका उपयोग करके जैसा चाहे वैसा लिखे और जीतने अधिक चित्रों या फोटो का उपयोग करेंगे उतना ही किताब रोचक बनती है/मैंने पीडीएफ मे कुच्छ किताबे लिखी है और अपलोड करके सबको फ्री मे पढ़ने के लिए उपलब्ध करा दिया है/इन पुस्तकों मे मैंने भरपूर चित्रों का उपयोग किया है/ एक चित्र हजारों लाखों शब्दों के बराबर होता है / हलाकि जो किताबें मैंने लिखी है वह आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान से संबंधित है और हिन्दी भाषा मे है/ धीरे धीरे दो चार पेज रोज लिखिए ,एक दिन वह आएगा जब आपकी पुस्तक तैयार हो जाएगी/ मेरी पुस्तखजारोमे लोगोंने अपलोड किया है/आपको देखने के लिए लिंक भेज दूंगा /
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उत्साहित करने के लिए धन्यवाद बाजपेयी जी!
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लेखन तो spontaneous होता है
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चित्र अगर लेखन के अनुरूप हो दो लेखन और भी प्रभावशाली हो जाता है और लोग संबंधित कहानी या फिर लेख से खुद को जोड़ पाते हैं.
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मेरा ख्याल है कि चित्र पोस्ट को enhance करते हैं। ऐसे ही नहीं कहा गया है कि अ पिक्चर इस वर्थ अ थाउजेंड वर्ड्स। बाकी तो लेखक के ऊपर है वह किसका कितना इस्तेमाल कर रहा है। आपके चित्र तो आपके द्वारा लिखे गये चरित्रों को उभारने का ही काम करते हैं। मैं अक्सर यात्रा वृत्तान्त में चित्रों का अधिक इस्तेमाल करता हूँ। अपनी तरफ से शब्द चित्र खींचने के बाद कुछ चित्र उसमें जोड़ दो तो पाठक को भी यकीन हो जाता है कि बंदा सही कह रहा है। वरना कई यात्रा वृत्तान्त ऐसे पढे हैं जिनपर यकीन करना थोड़ा मुश्किल सा जान पड़ता है। लेखक की कल्पना की उड़ान या केवल शब्दों की बाजिगरी ज्यादा प्रतीत होती है। मुझे लगता है कि आपको अपने अनुभव किये हुए ग्राम्य चरित्रों को लेकर एक उपन्यास या लघु-उपन्यास सरीखा लिखना चाहिए। कई किरदार आपके पास हैं जिनके जीवन पर उपन्यास लिखा जा सकता है या कोई लंबी कहानी ही। किताब का इंतजार रहेगा।
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धन्यवाद विकास जी। सतत लेखन संयम और श्रम दोनों चाहता है। देखता हूं कितना किया जा सकता है! 🙏
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सटीक अभिव्यक्ति.लेखन अगर नियमित हो तो…उसमें निखार और विस्तार अपने आप आ जाता है.
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सही कहा आपने. चित्र blog को और रुचिकर और real बनाते हैं
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