घर से निकलते ही स्कूल पड़ता है – तुलसीपुर प्राइमरी स्कूल। जब मैं गांव में शिफ्ट हुआ था, छ साल पहले, तब उस स्कूल की हालत दयनीय थी। कमरे और फर्नीचर जर्जर थे। उसकी बाउण्ड्री दीवार नहीं थी। एक हैण्डपम्प गड़ा था और पास की केवट-पासी लोगों की बस्ती उसी से पानी लेती थी। वहीं नहाना-धोना, बर्तन मांजना और स्कूल परिसर को अपने घरों का एक्स्टेंशन मानना होता था। बच्चों को मिड-डे मील मिलता था पर अपने अपने बर्तन में अपना भोजन ले कर मेरे घर के सामने आ कर वे भोजन करते और खेलते थे।
पिछली बार भाजपा सरकार प्रदेश में आयी तो स्कूल बदलने लगे। इस स्कूल की भी इमारत बेहतर बनी। फर्श बने। टाइल्स लगे। टॉयलेट्स बेहतर हुये। चारदीवारी बनी। गांव की बस्ती का स्कूल पर अतिक्रमण बंद हुआ। मास्टर-मास्टरानियाँ समय पर आने लगे। पढ़ाई का स्तर तो नहीं कह सकता (बच्चे अभी भी कुछ खास सीखते नजर नहीं आते) पर स्कूल की शक्ल जरूर बदल गयी। बदली शक्ल अच्छी लगी।

कल देखा कि चारदीवारी पर एक पेण्टर पेण्ट कर रहा है। उनसे बात करने लगा मैं। नाम है लक्ष्मीकांत। घोसियाँ के रहने वाले हैं। ड्राइंग-पेण्टिग की शिक्षा पाये हैं। दुकानों, दीवारों, इश्तिहारों की पेण्टिंग करते हैं। अब स्कूल की दीवारें ब्यूटीफाई करने का काम कर रहे हैं। दिन भर काम करते हैं और उसके बाद पढ़ाई करते हैं। स्कूल में टीचर बनना है उन्हें। ड्राइंग टीचर।
यह आम धारणा है कि साठ पार की उम्र नया सीखने की नहीं होती। लोगों की लॉगेविटी बढ़ रही है पर सोच के पुराने स्टीरियोटाइप कायम हैं। और यही सोच सीनियर सिटिजन्स पर भी हावी है। वे (और उनमें मैं भी हूं) अपने कम्फर्ट जोन में जीने में मगन रहते हैं।
लक्ष्मीकांत की स्कूल की दीवार पेण्टिंग अच्छी थी। बहुत अच्छी नहीं। प्रयागराज में ‘पेण्ट माई सिटी‘ अभियान के दौरान जो पेण्टिंग हुई थी, वह स्तर तो नहीं ही है। वह स्तर होता तो मैं लक्ष्मीकांत से अपने घर की बाहर की दीवार पर कोई पेण्टिंग बनाने के लिये बात करता। लक्ष्मीकांत को ग्रेड देनी हो तो C++ दूंगा। उनकी पेण्टिंग में लेयर्स कम हैं। चित्र कार्टून चरित्रों जैसे लगते हैं। लैण्डस्केप भी दो विमा वाले ( Two Dimensional) हैं। प्रयाग के वाल पेण्टिंग त्रैविम का आभास देते हैं।
पर उनके स्तर का स्केच/पेण्ट करना भी मुझे आ जाये तो मेरे लिये बहुत बड़ी उपलब्धि होगी।



मैंने लक्ष्मीकांत से बात की कि वे मुझे स्केच करना और/या पेण्ट करना सिखा दें। उसको यह अनुरोध अटपटा लगा। बोला – “इतनी उमर में ड्राइंग सीख कर क्या करेंगे बाबूजी।”
यह आम धारणा है कि साठ पार की उम्र नया सीखने की नहीं होती। लोगों की लॉगेविटी बढ़ रही है पर सोच के पुराने स्टीरियोटाइप कायम हैं। यह एक गहरे में घुसा स्टीरियोटाइप है कि साठ पार का आदमी जंक हो जाता है। और यही सोच सीनियर सिटिजन्स भी पाल लेते हैं। वे (और उनमें मैं भी हूं) अपने कम्फर्ट जोन में जीने में मगन रहते हैं। रिटायरमेण्ट की पेंशन का सहारा जो है।… वैसे जिनके पास यह सहारा नहीं है वे भी नया सीखने की बजाय सिकुड़ते नजर आते हैं।

पर मैंने लक्ष्मीकांत से कहा – क्यों, इस उम्र में सीखा नहीं जा सकता क्या?
मेरे यह कहने पर लक्षीकांत बैकफुट पर आये। बताया कि मैं स्केच बुक खरीद लूं। अच्छी अप्सरा या नटराज वाली पेंसिल ले लूं। तब इण्टरनेट पर वीडियो देख कर आगे बढ़ा जा सकता है अथवा वे भी मुझे बेसिक्स बता देंगे। चेहरा बनाना, पोट्रेट या लैण्डस्केप बनाना आदि के बेसिक गुर बतायेंगे। बाकी तो प्रेक्टिस की बात है।
मैंने काफी समय लक्ष्मीकांत का काम देखते व्यतीत किया। अगले दिन भी उनके पास पंहुच गया। मुझे पक्का यकीन नहीं है कि मैं यह गुर सीखूंगा या नहीं, पर इतना जरूर है कि आगे के दशकों में यूंही निठल्ला समय गुजारने की बजाय कुछ नया सीखने की कोशिश तो करूंगा ही। और कुछ नहीं तो ब्लॉगिंग के माध्यम से रचनाधर्मिता का निर्वहन तो कहीं गया नहीं।

अपने काम और आमदनी से असंतुष्ट नहीं दिखे लक्ष्मीकांत। “रोटी-खर्चा का इंतजाम हो जाता है।” पर वे आगे बढ़ने के बारे में सजग हैं। ड्राइंग टीचर की भर्ती के लिये तैयारी कर रहे हैं। आशा है उन्हें कि नौकरी मिल ही जायेगी। वैसे उनके हाथ में हुनर है। भारत में आने वाले समय में आर्थिक उन्नति के साथ उनके हुनर का बाजार भी बढ़ेगा। दुकानों, दीवारों, इश्तिहारों की पेण्टिंग से अलग काम भी विकसित होंगे।
मैं लक्ष्मीकांत की उन्नति के प्रति आशान्वित हूं। और लक्ष्मीकांत खुद भी आशान्वित लगे। उनसे बातचीत में कोई निराशा हताशा या पक्की नौकरी न होने की कोई हीन भावना नजर नहीं आयी।
ऐसे ही नौजवान चाहियें भारत को! और उनसे मिलना अगर मुझे मेरे अपने कम्फर्ट जोन से बाहर निकाल पाये, तो यह बड़ी उपलब्धि होगी!
