राधे सिंह के ढाबे पर चाय

साढ़े सात बजे सवेरे का समय। मैं सात किलोमीटर साइकिल चला चुका था। सितम्बर का महीना। मौसम की उमस (सुखद आश्चर्य है कि) कम हो गयी थी और तापक्रम भी 27-28 डिग्री सेल्सियस था। साइकिल चलाने में दिक्कत नहीं थी। आनंद आ रहा था। बहुत दिनों-महीनों बाद ऐसा हुआ था।

सात किलोमीटर चलने पर लगा कि कुछ समय सुस्ता लिया जाये।

हाईवे के किनारे, एक ढाबे पर रुक गया। सवेरे साफ सफाई हो चुकी थी। ग्राहक नहीं आये थे। मैं अपनी साइकिल पर बैठे बैठे ढाबे बाले सज्जन से बोला – चाय मिलेगी? बिना चीनी।

उन्होने कहा – जरूर। आईये। अभी बनाते हैं।

भगौने में लड़के ने दूध नाप कर चाय चढ़ा दी। गैस पर बन रही थी। सो बनने में देर नहीं लगी। लड़का अदरक कूट रहा था, मैंने मना कर दिया। चाय सादी चाहिये थी। ढाबे वाले सज्जन ने एक डिजाइनर कुल्हड़ में चाय मुझे थमाई और खुद भी एक छोटे सामान्य कुल्हड़ में चाय ली। शायद ढाबे पर सवेरे की पहली चाय थी। सो मालिक जी भी चाय पी रहे थे।

“माँ विंध्यवासिनी अपना ढाबा (फैमिली रेस्टोरेन्ट)”

ढाबा ठीक ठाक था। “माँ विंध्यवासिनी अपना ढाबा (फैमिली रेस्टोरेन्ट)”। शुद्ध शाकाहारी लिखा था। सो मेरे जैसे को असहज नहीं होना पड़ा। मैंने बात करने के ध्येय से पूछा कि बिस्कुट-उस्कुट मिलेगा?

“नहीं वह तो बगल वाली दुकान में मिल सकता है। यहां तो खाना मिलता है और चाय।”

“खाने में क्या क्या मिलता है? कितने में?”

ढाबे पर बनती चाय। दांई ओर राधे सिंह हैं।

खाने में सब कुछ मिलता है। अलग अलग रेट सब आईटम के। सबसे सस्ता कोई खाना चाहे तो थाली सौ रुपये की है। दाल-चावल-रोटी-सब्जी भरपेट। तंदूरी रोटी भी मिलती है। तंदूर दोपहर के खाने के समय लगता है। दस रुपये की मक्खन वाली और आठ रुपये की सादी तंदूरी रोटी। – उन सज्जन (नाम उन्होने बताया राधे सिंह) ने मुझे जानकारियां दीं।

राधे सिंह ने बताया कि ढाबा उनके बड़े भाई मोहन सिंह चलाते हैं। उनका नाम साइन बोर्ड पर है – प्रोप्राइटर मोहन सिंह (नेताजी)। जैसा की नाम से स्पष्ट है वे किसी दल के नेता भी हैं। बढ़िया है। नेताओं के लिये ढाबा, रेस्तराँ चलाना मुफीद धंधा है।

राधे सिंह को बातचीत में मैंने बताया कि मैं सात किलोमीटर साइकिल चला चुका हूं और अभी उतना चला कर अपने घर लौटना है। उन्होने मेरी ओर बड़े ध्यान से देखा। मेरी उम्र का आकलन किया और आश्चर्य व्यक्त किया। अच्छा लगा उनका यह भाव! 🙂

दस रुपये में लिये ये डिजाइनर कुल्हड़। कुल छ।

मौसम सुधरे, साइकिल चलाना आनंद देने लगे तो ऐसे में यूंही राह चलते एक ढाबे पर रुक कर चाय पीना कितना सुखद अनुभव है। मैंने चाय पी कर बीस रुपये का नोट दिया। दस चाय के और दस रुपये के कुल्हड़ खरीद लिये। डिजाइनर कुल्हड़ मुझे बहुत बढ़िया लगे। जब राधे सिंह उसमें चाय पकड़ा रहे थे तो मुझे लग रहा था कि कहीं वह प्लास्टिक की ग्लास न हो! हाथ में आने पर आश्चर्य भी हुआ और अच्छा भी लगा।

पता नहीं यह डिजाइनर कुल्हड़ कुम्हार चाक पर बनाता होगा या किसी सांचे में ढाल कर निकालता होगा। अगर सांचे में बनता हो तो कुम्हार के काम की प्रवृत्ति बदल गयी है। अन्यथा इस इलाके में सभी कुम्हार चाक पर ही दियली, घरिया, कुल्हड़ बनाते हैं। मन में यह नोट कर लिया कि डिजाइनर कुल्हड़ की तकनीक भी कभी पता करूंगा।

राधे सिंह जी की चाय बढ़िया थी। दूध थोड़ा ज्यादा था सो जीभ पर लग रहा था। मैंने सोचा कि आगे अगर उनके यहां रुका तो चाय में अदरक न डालने के साथ दूध भी कुछ कम डालने का निर्देश दूंगा। सवेरे घूमते हुये कोई आपके निर्देश अनुसार चाय बना कर पिलाये तो दिन बन गया समझो। मेरा दिन भी बन गया था। खुशी खुशी घर लौटा मैं।


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Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

5 thoughts on “राधे सिंह के ढाबे पर चाय

  1. सुप्रभात, बड़ा अच्छा लगा आपका पोस्ट देखकर। १४ किमी साइकिल चलाना रिटायरोपरांत, प्रेरणादायक है। मैंने भी साइकिल से काम पर जाना शुरु कर दिया है।
    डिजायनर कुल्हड़ ठीक है कुछ खास नहीं, और आज का शब्द रहा, ‘भगौना’

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    1. आपकी टिप्पणी पढ़ कर अच्छा लगा! ब्लॉग पर आने और टिप्पणी करने के लिए धन्यवाद 🙏🏼

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