सवेरे साइकिल ले कर घूमने निकलते रेलवे लाइन के आसपास ताजा निपटान देखने की अब आदत पड़ गई है। पहले जेब से रुमाल निकाल कर नाक पर दबाता था। अब दूर से ही सांस रोक पैडल तेज मारता हुआ वह इलाका पार करता हूं। आंकड़े में गांव ओपन डीफेकेशन फ्री चार पांच साल पहले ही हो चुका है। पर सीन जस का तस है।
मेरे घर के पीछे का खेत भी हमारा है। उसमें हमने कंटीली बाड़ भी लगा रखी है। घर की आड़ और कंटीली बाड़ ने नीलगाय और अन्य जानवर भले ही रोके हों पर भोर में गांव की महिलायें बाड़ ऊपर नीचे कर अंदर घुस आती हैं निपटान के लिये। उस ओर देखने से उन्हें कोई फर्क पड़ता हो या नहीं (पड़ता नहीं होगा, अन्यथा वे आती ही नहीं) पर हमें शर्म जरूर आती है। सवेरे उस ओर ताकते भी नहीं।
औरतें, बच्चे, आदमी – सभी खुले में शौच की आदत छोड़ नहीं सके हैं। अधिकांश घरों में सरकारी मदद से बने शौचालय या तो खराब हो चुके हैं या उनके दरवाजे तक गायब हो गये हैं। और उनका न होना कोई सामाजिक अप्रियता का कारण भी नहीं बनता।
अप्रियता? सामाजिक स्वीकृति की बात तो एक ओर रख दी जाये; महिलाओं को निपटान के लिये घर के बाहर निकलना, खेत फसलें कटने पर खाली हो जाने से आड़ वाली जगह तलाशना प्रिय तो कदापि नहीं हो सकता। रात में या भोर में तो फिर भी वे बाहर जा सकती हैं, पर दिन में अगर पेट खराब हो जाये तो निपटान मानसिक तनाव उपजाता ही होगा। और बहुत सी महिलाओं को वह असुरक्षित भी लगता होगा। … वह समाज जो पर्दा प्रथा अभी भी पूरी तरह खत्म नहीं कर सका है; खुले में शौच कैसे सही ठहराता है?

सरकार के नेशनल पब्लिक हेल्थ सर्वे (NPHS-5) के अनुसार ग्रामीण भारत में 25 प्रतिशत खुले में शौच की प्रथा है। यहां अपने गांव में तो यह मुझे नब्बे प्रतिशत लगता है।
बहुत दिनों बाद मैं साइकिल ले गंगा किनारे के लिये निकला। गंगा के तट पर भी चलते हुये मुझे नीचे देखना पड़ रहा था कि कहीं कोई वहां खुले में शौच न कर गया हो। सामान्यत: तट के आसपास के ग्रामीण प्लास्टिक पन्नी भले ही फैलायें नदी के आसपास और नहाने में साबुन भले ही लगायें, तट पर शौच नहीं ही करते। पर भोर के अंधेरे में कोई लिबर्टी ले ही सकता है। एक दो बार देखा भी है। गंगा तट पर तो नहीं बाकी सब जगह लोग प्लास्टिक की बोतल लिये शौच के लिये जाते या निपट कर आते जरूर दिखे।

अब तो सरकार भी लगता है थक चुकी। अब ओपन डीफेकेशन के खिलाफ कोई बात भी नहीं होती। हो भी कैसे? प्रधानमंत्री जी भारत के ओपन डीफेकेशन मुक्त होने का क्रेडिट जो ले चुके हैं। अब लोगों की आदतों का वे क्या कर सकते हैं!
अगले पच्चीस साल में भारत विकसित देश बन जायेगा। तब भी लोग प्लास्टिक की बोतल ले कर दिशा-मैदान के लिये जाते-आते दिख जायेंगे। शर्त लगाई जा सकती है!

मेरा मानना है कि जब तक गाँव में छत के ऊपर पानी के टैंक नहीं रखे होंगे, ये सारे के सारे शौचालय बेकार हैं. शौचालय बनाने के साथ या उससे पहले हर घर जल जैसी व्यवस्था करनी चाहिए थी. बाकी नैलवाल जी ने लिखा ही है, ये किसी चाय बीड़ी की दुकान पर इकट्ठे होने जैसा ही है. और मेरे अपने व्यक्तिगत मामले में तो कम से कम अंदर ही हाथ पैर धोने की व्यवस्था हो तभी मुझे सहजता महसूस होती है. बाकी सबके अपने नियम. जाड़ों में कमर से नीचे और गर्मियों में पूरा स्नान करके निकलना मुझे भाता है.
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मुझे लगता है कि ये खुले में शौच करना शौच से कम जुड़ा है और सामाजिकता से अधिक। ऐसा इसलिए कह रहा हूँ कि अक्सर खुले में शौच करने लोग समूह में जाते ही दिखते हैं। जब हम वीरार में रहते थे तो उधर एक छोटी पहाड़ी थी वहाँ भी लोग दिख जाते थे ये काम करते हुए लेकिन अक्सर समूह में ही रहते हैं। पंद्रह बीस साल पहले मैं जब अपने ऐसी रिश्तेदार के यहाँ जाता था जहाँ बाथरूम नहीं होता था तो उधर भी हम सब कजिन साथ ही जाते थे। इस दौरान गप्पे वगैरह भी लगती थीं तो मुझे थोड़ा असहज ही लगता था। पर उनके लिए यह नॉर्मल बात थी। इधर आपके लेख से भी लग रहा है आपके इधर भी समूह ही जाता है।
अब घरों के बाथरूम में तो व्यक्ति अकेले ही जाता है इस काम के लिए। ऐसे में क्या ये लोग अकेले में यह कार्य करते हुए असहज महसूस करते होंगे? जैसे हम समूह में करते हुए असहज महसूस करेंगे?
तो क्या इस आदत के न छूटने के पीछे एक कारण ये भी हो सकता है? क्या लगता है???
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