बदलते समय में संत लाल

संतलाल की हार्डवेयर और बिल्डिंग मेटीरियल की दुकान है। पहले पहल, सन 1980 में महराजगंज बजरिया में उनकी मिठाई की दुकान थी। फिर पास में हार्डवेयर की खोली। चलती दोनो थी। मिठाई की दुकान में तो शाम तक होते होते दिन भर का नफा नुक्सान पता चल जाता था। सवेरे चार हजार का माल लगाया तो शाम तक बिक्री और बचा सामान सामने होता था। हार्डवेयर में तो शुरू में पैसा लगता गया, लगता गया। दुकान में ढेरों आईटम थे, उनका हिसाब किताब रखना और नफा-नुक्सान का आकलन करना ज्यादा माथापच्ची का काम था। हर दिन के हिसाब से आकलन सम्भव भी न था। फिर भी, लगता है, संतलाल जी की हार्डवेयर की दुकान मिठाई की दुकान से ज्यादा चल निकली।

बजरिया में जगह कम पड़ी होगी। इसलिये एक दशक पहले उन्होने यहां हाईवे के किनारे जमीन ले कर यह नई दुकान डाली। इसको भी अब काफी साल हो गये। … चार दशक से महराजगंज और उसके आसपास के विकास के साक्षी रहे हैं संतलाल।

अब नई तकनीक के प्रयोग से अपने आप को उत्तरोत्तर अप्रासंगिक होता पाते हैं वे। उनकी उम्र साठ साल की है। पर बात बात में स्वीकार करते हैं कि काम धाम लड़के देखते हैं। वे तो ‘रिटायर’ जैसे हो गये हैं।

मैं उनसे उनका स्मार्टफोन देख कर कहता हूं कि उसके जरीये वे अपने दुकान का हिसाब-किताब, लेन देन और पुताई के रंग-मिक्सिंग का काम आदि बखूबी कर सकते हैं। पर संतलाल का कहना है कि वह उन्हें समझ नहीं आता। दो लड़के हैं, वही सम्भालते हैं। फोन पर किसी की कॉल को वे अटेण्ड भर कर सकते हैं। बातचीत कर सकते हैं। पर दो दिन बाद कॉल रिकार्ड को खंगाल कर यह पता करना कि किसने फोन किया था, और उस व्यक्ति को फोन कर पाना उनके लिये बड़ा झंझट है। कोई यूपीआई के जरीये पेमेंट करे तो वे जान सकते हैं कि पेमेंट मिला। “काहे कि ई मशीनिया बोलथ (फोन पे की मशीन बोल कर बताती है कि पेमेण्ट आया है।)” – संतलाल जी ने मशीन का स्पीकर दिखा कर कहा। पर वे मोबाइल पर फोन पे एप्प का लेन देन का रिकार्ड नहीं देखते। वह काम लड़कों के जिम्मे है।

दुकान पर वे बैठते हैं। ग्राहकों से डील करते हैं। मेरे जैसे को बिठा कर एक कुल्हड़ चाय पिलाते हैं। ग्राहक को परखना वे बखूबी करते हैं। पर तकनीकी विकास ने उन्हे उत्तरोत्तर अप्रासंगिक बनाया है। अब तो किसिम किसिम के पेण्ट आने लगे हैं। घर के अंदर का अलग और बाहर का अलग। हर रंग की शेड के हिसाब से मिक्सिंग कर बेचना होता है। उनका लड़का पेम्फलेट पर बताये रंग के कोड के हिसाब से नेरोलेक की मशीन को कलर मिक्सिंग का निर्देश मोबाइल के माध्यम से देता है। मोबाइल पर उस एप्प को खोलना और उसमें निर्देश भरना, ब्ल्यू-टूथ के जरीये मोबाइल-मशीन का सम्पर्क बनाना – यह सब संतलाल नहीं कर सकते। लड़का अगर दुकान पर न हो तो पेंट की बिक्री हो ही नहीं सकती। कुछ दिनों के लिये लड़के बाहर गये थे और तब पेंट का यह लेन देन लगभग ठप रहा था।

मेरे घर पर पुताई का काम चल रहा है। घर के अंदर और बाहर की पुताई के अलग अलग रंग है। उनकी तासीर अलग है और शेड भी अलहदा हैं। उसके अलावा पंद्रह बीस प्रकार के और इम्प्लीमेंट्स इस्तेमाल हो रहे हैं। आये दिन कोई न कोई चीज घट जाती है और संतलाल जी की दुकान पर जाना होता है। हर बार संतलाल जी मुझे, मेरी पत्नीजी और मेरे वाहन चालक को कुल्हड़ वाली चाय पिलाते हैं। हल्की-फुल्की बातचीत होती है। अब तक इतनी बातचीत हो चुकी है कि अपनापा हो गया है। मैं उनसे पूछता हूं कि बिना काम के अगर उनकी दुकान पर आ कर बैठूं तो क्या वे चाय पिलायेंगे? उनका तपाक से उत्तर मिलता है – काहे नहीं पिलायेंगे! … फिर भी, उनकी आत्मीयता बिजनेस रिलेशनशिप है या व्यक्तिगत, मैं उसे जांच नहीं पाता। यह तो है कि मैं संतलाल जी की स्पष्टवादिता और सहजता से प्रभावित हूं।

जो बात मुझे खटकती है, वह तकनीकी विकास का संतलाल जी जैसे जीवंत व्यक्तित्व को उत्तरोत्तर हाशिये पर धकेलना। उनके दो लड़के हैं जो मोबाइल और कम्प्यूटर प्रयोग में ‘छटपट’ हैं, इसलिये काम बखूबी सम्भाल ले रहे हैं। अगर वे न होते तो दुकान कैसे चलती? क्या तब संतलाल जी रो-पीट कर तकनीकी प्रयोग की कामचलाऊ दक्षता अपने में विकसित करते? या किसी जानकार को नौकरी पर रखते और सतत उसपर निगरानी रखने और शक करने का मर्ज पाल लेते?

दुकान की गद्दी पर बैठे संतलाल और हिसाब करता उनका लड़का

संतलाल दुकान पर बैठते हैं, ग्राहक से बोलते, बतियाते और डील करते हैं। उस हिसाब से वे ‘चलन’ में हैं। पर आगे हर मशीन, हर गैजेट में एआई घुस जायेगा। तकनीकी के प्रति निस्पृहता कितनी और कैसे कायम रख कर भी वे प्रासंगिक बने रहेंगे?

मैं यह बातचीत संतलाल जी के बारे में कर रहा हूं, पर किसी न किसी स्तर पर यह बड़े सवाल मेरी (और मेरे जैसे अन्य लोगों की) जिंदगी में उठते ही हैं। अभी तो मैं मार-तोड़ कर तकनीकी विकास के साथ चलना हो जा रहा हैं। पर दस-पंद्रह दिन के लिये भी मैं अपने को तकनीकी-इंस्युलेट कर लूं तो झंझट होने लगता है। मोबाइल पर ही कई एप्प अपडेट हो कर अपनी चालढाल बदल लेते हैं। केबल टीवी की बजाय इंटरनेट पर चलने वाला सेट-टॉप-बाक्स बहुत झंझट वाला लगता है। दुकानों और मॉल पर सामानों की बेशुमार वेराइटी इतना भ्रमित कर देती है कि खरीद-बाजार करना प्रसन्नता नहीं आतंक उपजाने लगा है।

मैं संतलाल जी के साथ आत्मीयता के साथ साथ सहानुभूति भी रखता हूं। समय के साथ हमारी दशा भी वैसी हो जाये। एक काल्पनिक भविष्य बुनने लगता हूं, एक एआई असिस्टेंट सृजित होना चाहिये जो तकनीकी चैलेंज्ड लोगों को समय के साथ जीने के योग्य बनाये। आखिर संतलाल जी के लड़के जो कर रहे हैं वह एक एआई सहायक कर ही सकता है?!

मैं मार्क ब्वॉयल की पुस्तक ‘द वे होम – टेल्स फ्राम अ लाइफ विदाउट टेक्नॉलॉजी’ का चयन करता हूं, पढ़ने के लिये। पर मेरे मन में शंका है – मार्क की यह किताब भी तो मेरे पास तकनीकी विकास के माध्यम से आई है? ये सज्जन गार्डियन में लिखते हैं। कम्प्यूटर और इंटरनेट से दूर थोड़े ही होंगे? उनकी यह किताब भी तो मेरे पास बरास्ते इंटरनेट-अमेजन और किंडल मेरे पास पहुंची है। मैं इसकी हार्ड-कॉपी भी लेता तो भी बिना अमेजन-फ्लिपकार्ट, गिग-इकॉनमी, और मोबाइल-क्रेडिट कार्ड आदि के तो वह सम्भव नहीं होता? भले ही गांव में रह रहा हूं, पर तकनीकी विकास तो यहां भी मुझे उत्तरोत्तर ‘दबोच’ ही रहा है।

संतलाल सिंड्रॉम का उपाय क्या है? तकनीकी विकास के मकड़जाल का उपाय भी शायद एक संतलालीय वातावरण के लिये एक्लेमेटाइज्ड एआई है। धीरज रखो जीडी, वह भी बन जायेगा!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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