तीन लड़के हैं विश्वनाथ के। अलग अलग हो गये हैं। यहीं पास पास तीनो ने घर बनाये हैं। सबसे छोटे कट्टू के यहां रहता है विश्वनाथ। एक कमरे का घर है कट्टू का और उसके टीन के ओसारे में विश्वनाथ का तख्त बिछा है। बारहों महीने मैं विश्वनाथ को उसी तख्त पर रहते पाता हूं। कभी कभी यहां और भगवानपुर के बीच आते जाते देखता हूं। शायद अरहर के खेत में निपटान के लिये जाता है। उसके अलावा, निन्यानबे प्रतिशत सम्भावना होती है, कि वह अपने तख्ते के आसपास दिखेगा।
ओसारे में रहता है। तीन तरफ से खुली जगह है। सिर्फ पीछे की दीवार है और ऊपर टीन की छत। उसके तख्त के आसपास घर गृहस्ती का सामान रखा हुआ है। आज तो उसके तख्ते पर गद्दा बिछा दिखा वर्ना पहले पुआल भी दिखता था। ऊपर एक मसहरी थी जिसे विश्वनाथ ने समेट रखा था। रात में वह मच्छरों से बचने के लिये मसहरी लगा कर सोता है। मसहरी शायद अगहन-पूस की ठण्डी हवा से भी बचाती होगी।
अपनी उम्र वह अस्सी साल बताता है, पर मेरे ख्याल से वह छिहत्तर-सतहत्तर का होगा। एक दो साल पहले तक वह फिट था। अब घुटने के दर्द से परेशान है। चलना फिरना कठिन हो गया है।
नौ साल पहले जब मैं रीवर्स माइग्रेट कर गांव आया था तो विश्वनाथ देवेंद्र भाई की गायों का दूध ले कर रोज बनारस जाता था। देवेंद्र भाई के दो लड़के सपरिवार बनारस रहते थे और उनके लिये दूध वे रोजाना गांव में अपनी गायों का भिजवाते थे। विश्वनाथ रोज जाता था तो मैने उससे अंगरेजी का अखबार बनारस से मंगवाना शुरू किया था। पर वह सिस्टम ज्यादा चला नहीं। विश्वनाथ देवेंद्र भाई की ‘प्रजा’ था और उसका एलीजियेंस मेरे प्रति नहीं ही था। वह अखबार लाना भूल जाया करता था। वह बात पुरानी हो गई और उसे मैने कभी दिल पर लिया नहीं।
आज सवेरे विश्वनाथ अपने तख्ते पर बैठा दिखा। मुझे देख वह खड़ा हो गया और प्रणाम किया। अपनी बीमारी की दयनीयता उसने ओढ़ रखी थी। कराह कर बोल रहा था, यद्यपि सिवाय घुटनों की तकलीफ के, मुझे वह ठीक ही लगा। एक तहमद और कमीज पहने था। पूरब से आती धूप का सेवन कर रहा था। दाढ़ी बनी हुई थी और वह मैला कुचैला तो नहीं ही था। धूप में मैने उसका चित्र लिया। उसके बाद अपने तख्ते पर बैठ कर चित्र खिंचवाने के लिये उसने अपना गमछे का साफा उतार दिया।
विश्वनाथ बताता है कि वह किसी जमाने में सम्पन्न हुआ करता था। उसके पास कारपेट बुनाई का कारखाना था। कारपेट इतने होते थे कि हर आठवें दिन ट्रक लोड हो कर जाया करता था। यहां गांव में भी उसका कारखाना था और महराजगंज में भी। पर आज से तीस-पैंतीस साल पहले उसके यहां चोरी हो गई। तीन लाख का माल चोरी गया। चोर का पता नहीं चला। चोरी इतनी बड़ी थी कि उसके बाद वह जमीन पर आ गया। पूंजी नहीं थी, वह पढ़ा लिखा भी नहीं था। परिवार पालने के लिये मेहनत मजूरी, किसानी पर आश्रित हो गया विश्वनाथ।
पैंतीस साल। सम्पन्नता से विपन्नता। मेहनत-किसानी-मजूरी। बुढ़ापा और बेटों की अलगौझी। मेरे स्वसुर जी और साले लोगों की प्रजा के रूप में देखे गांव के परिवर्तन का भागी और साक्षी है विश्वनाथ। उसकी याददाश्त लगभग ठीक है और बोलने में कोई स्लरिंग, कोई लटपटाहट नहीं है। अपनी उम्र और अशक्तता के अलावा कोई और दैन्यभाव नहीं है विश्वनाथ में। उससे बातचीत गांव के परिवर्तन के बारे में बहुत इनसाइट दे सकती है।
कल मुझे एक सज्जन @Ashutos17165403 आशुतोष सिंह ने ट्विटर पर गांव के लिये ‘मुर्दाप्राय’ शब्द का प्रयोग किया। तब से मेरा मन गांव के मृतप्राय या जीवंत चरित्र के बिम्ब खंगालने की तलाश में रम रहा है। शुरुआत कहां से की जाये? मेरे बगल में रहता विश्वनाथ शायद शुरुआती कड़ी हो। मैने विश्वनाथ को कहा है कि उससे गांव के बारे में बातचीत करने फिर बैठूंगा उसके पास।
ट्वीट का लिंक –
https://twitter.com/GYANDUTT/status/1864333495004483995
गांव की बभनौटी में तो बहुत छद्म है। शुरुआत पास की केवट बस्ती – केवटान से की जाये। करीब एक दर्जन परिवार हैं केवटों के मेरे घर के समीप। वे सभी अपनी आजीविका के लिये मेहनत मशक्कत करने वाले लोग हैं। उनका जीवन भी श्रमिक से मध्यवर्ग की ओर आने की जद्दोजहद वाला है। उनसे इंटरेक्शन गांव के बारे में बेहतर इनसाइट देगा। और विश्वनाथ केवट है।
शुरुआत केवटान से की जाये!

