ज़ारिया से ग़ढ़ बोरियाद

#नर्मदायात्रा के सातवें दिन (दिनांक 22 मई25) ज़ारिया से गढ़ बोरियाद चलना हुआ।

अब तक यात्रा गंगा तीरे तीरे हो रही थी, पर सातवें दिन नर्मदा के ऊपर बने बांध का असर परिक्रमा पर दिखने लगा। बाबाजी अब नर्मदा का किनारा छोड़ उनसे दूर उत्तर की ओर चले। नर्मदा से दूर जाना हुआ तो माई लगता है कुछ रूठ सी गईं। रात में आंधीपानी से हनुमान मंदिर के पुजारी -सदानंद चैतन्य जी, भोजन नहीं बना सके। प्रेम बाबा बिना खाये, पानी पी कर सो रहे। सातवें दिन भोर में एक दुकान पर चाय पी और आगे की यात्रा पर निकल लिये।

प्रेमसागर ने यह विवरण सामान्य तौर पर दिया। मेरे साथ यह हुआ होता तो मैं इसको यात्रा की एक क्राइसिस मान कर चलता और अपनी यात्रा तैयारी को रिव्यू करने बैठ जाता। प्रेमसागर ने वह सब नहीं किया। खेते खेते (पगडंडी वाले रास्ते से) आगे बढ़ लिये। रास्ते में कहीं केले मिले तो वही खा कर अपनी भूख शांत की। दिन में नेटवर्क नहीं मिल रहा था तो उनकी चाल का भी अंदाज नहीं लगा। चित्र भी देरी से, दो चार मिले।

सरदार सरोवर परियोजना से निकली नर्मदा नहर पार हुई। नक्शे के अनुसार तो वे इस नहर के साथ साथ चले, पर प्रेमसागर ने ‘खेते खेते’ शब्द का प्रयोग किया। खेते खेते चल कर भी कुछ खास श्रम नहीं बचा होगा। मेरे ख्याल से उन्हें नर्मदा नहीं तो नर्मदा नहर के साथ साथ यात्रा करनी चाहिये थी।

नर्मदा परिक्रमा करते हुये नर्मदा से दूर जाना प्रगति का अभिशाप ही माना जायेगा। आगे पचास-साठ किलोमीटर की यात्रा नर्मदा से तीस किमी की दूरी बना कर ही होगी। बाँध के जलाशय के कारण नर्मदा की मूल धारा पता नहीं चलती। नक्शे में साफ पता चलता है कि बहुत बड़े इलाके में जंगल, आदिवासी बस्तियाँ और पुराने घाट अब पानी में हैं। इसलिए परिक्रमावासी को मजबूरी में 25-30 किलोमीटर दूर तक घूमकर आना पड़ता है। प्रेमसागर ने वैसा ही किया आज।

प्रेमसागर की प्रवृत्ति का मैं नहीं कह सकता, पर तपस्वी नर्मदा पदयात्री तो नर्मदा तीरे तीरे चलते हुये शरीर के साथ साथ मन से नर्मदा के सानिध्य में रहता होगा। अब शरीर से वह नर्मदा के सानिध्य में नहीं होता तो मन साधने के लिये अतिरिक्त निष्ठा-अनुशासन का परिचय देना होता होगा। प्रेमसागर मन में नर्मदा के पदयात्री शायद उतने गहरे से नहीं हैं। उनके लिये यह डी-टूर केवल तीस किलोमीटर अतिरिक्त चलना भर ही हो शायद।

एक सच्चा परिक्रमा-यात्री कहता है – “अब यह नदी की परिक्रमा नहीं, बाँध की परिक्रमा हो गई है।” शायद स्वर्गीय वेगड़ जी आज परिक्रमा करते तो ऐसा ही कुछ कहते!


करीब 23 किलोमीटर चल कर प्रेमसागर गढ़ बोरियाद के एक और हनुमान मंदिर पंहुचे। बारिश के कारण दिन का ताप ज्यादा नहीं था। प्रेमसागर का कहना था कि ऐसा मौसम रहा तो वे रोज चालीस किलोमीटर चल पायेंगे और यात्रा जल्दी पूरी की जा सकेगी। वे ज्यादा चलने के मोह में पड़े हैं। अपने पैरों की चलने की ताकत का इम्तिहान शायद दे रहे हैं वे पदयात्रा के माध्यम से। वे पिछले सप्ताह भर में यह तय नहीं कर सके हैं कि यह यात्रा एक अलग प्रवृत्ति के साथ होनी चाहिये। इस यात्रा में नर्मदा का सौंदर्य और आध्यात्मिक अनुभूति महत्वपूर्ण है बनिस्पत किलोमीटर धांगने के!

ज्यादा बात नहीं हो पाई प्रेमसागर से। उनके पास एक एयरटेल का ही सिम है जो आदिवासी क्षेत्र में मिलता कम है, खो जादा जाता है। अब वे तलाश में है कि एक जियो का फीचर फोन भी रख लें। दो अलग अलग फोन रहने से नेटवर्क की रिडंडेंसी बढ़ जायेगी और बाहरी दुनिया से बेहतर सम्पर्क हो सकेगा। यह सब तैयारी यात्रा पूर्व होनी थी। पर देर आये, दुरुस्त आये – अब एक दो दिन में वे फीचर फोन ले लें और चना चबैना का इंतजाम कर लें तो बेहतर। उन्हें एक थैले की बजाय पिट्ठू लेना है, जिससे एक ओर ज्यादा वजन न रहे यात्रा के दौरान। यह भी यात्रापूर्व की तैयारी का भाग होना था। … एक सप्ताह की पदयात्रा तो यात्रा का प्रेपरेटरी अंश ही माना जाये।


गढ़ बोरियाद के मंदिर के पुजारी हैं प्रदीप भाई। वे बदायूं के हैं। उनका परिवार भी साथ रहता है। बदायूं यहां से सवा दो सौ किमी दूर है। ज्यादा दूर नहीं है। सेमी-आदिवासी इलाके में उत्तर प्रदेश के बाभन-पण्डित की बहुत इज्जत है। प्रदीप भाई के साथ भी वैसा ही होगा! चित्र में प्रेमसागर के साथ प्रदीपभाई हैं। बगल में शायद उनकी बेटी है। एक दूसरे चित्र में प्रदीप भाई के परिवार के लोग हैं।

गढ़ बोरियाद एक राजपूत रियासत रही थी। खीची चौहानों की रियासत। वंशावली में सबसे पहले नाम आता है राणा भरतसिंह जी ठाकुर साहेब। उनका जन्म 1829 में हुआ था। रियासत का सन 1877 में राजस्व 12700 रुपये था। इस राजस्व में से राणा साहेब की आमदनी अगर पांच हजार रुपया मानी जाये और रुपये की कीमत दस साल में दुगनी होती मानी जाये तो आज रियासत के वंशज को 16-17करोड़ सालाना की आय होगी। और गढ़ बोरियाद तो एक छोटी आदिवासी बहुल रियासत ही रही होगी।

रियासत की वंशावली में ताजा नाम ठकुरानी विजयविजय कुवंर का आता है जिनकी शादी पड़ोस की रियासत नसवाड़ी में हुई है। इलाके की जनता ठकुरानी साहिबा को आज भी डेमी गॉड समझती होगी। प्रेमसागर किसी स्थानीय से इस बारें में बात करते तो मुझे जानकारी पुष्ट करने का अवसर मिलता ब्लॉग-लेखन के लिये। … पर यह होता तो वह होता वाली बात बेकार की है।

वैसे आगे प्रेमसागर पदयात्रियों और आदिवासियों से बेहतर प्रेपरेशन के साथ मिलें लौटानी की नर्मदा के दक्षिण तट की यात्रा के दौरान, इसकी कामना मन में जन्मी है!

कल प्रेमसागर गुजरात के नर्मदा जिले में थे। आज वे छोटा उदयपुर जिले में रात गुजार रहे हैं। आगे पड़ेगा मध्यप्रदेश का अलीराजपुर। अलीराजपुर में प्रेमसागर के जानपहचान वाले हैं। वहां पंहुचने की तीव्रता से प्रतीक्षा है उन्हें।

प्रेमसागर जी की सहायता करने के लिये उनका यूपीआई एड्रेस है – prem199@ptyes

#नर्मदाप्रेम नर्मदे हर!!

गढ़बोरियाद रियासत – एक आना की कोर्ट फीस की रसीद।

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

8 thoughts on “ज़ारिया से ग़ढ़ बोरियाद

  1. नर्मदे हर ! संभवतः चातुर्मास में तो उनकी थम जाएगी

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  2. प्रेमसागर जी की दशा अब शायद उस नौजवान जैसी हो गई है जो बहुत उत्साह के साथ समाज सेवा में डिग्री लेता है की सामाजिक परिवर्तन लाएगा, फिर 2-4 वर्षों में समाज सेवा एक व्यवसाय बन जाता है। फिर वो नई-नई प्रयोजनायें बनाता है सरकारी-गैरसरकारी धन को ‘उचित’ समाजसेवा में लगाने के लिए। मैं शायद ज्यादा नकारात्मक सोच रखता हूँ प्रेमसागर जी की तरह की जीवनशैली के लिए, लेकिन फिर शायद मुझमें ऐसे कर्मों के प्रति उतनी उत्सुक्तता भी नहीं है।

    प्रेमसागर जी को शुभकामनायें।

    R

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    1. आपकी सोच वाज़िब है। मेरे लिये भी प्रेमसागर की उपयोगिता मुझे वर्चुअल भ्रमण के लिये “कच्चा माल” सप्लाई करने के लिये है। उसके बाद तो मेरी अपनी मानसिक हलचल की क्षमता या अक्षमता सामने आती है।
      यह जरूर है कि मुझे मेरे मनमाफिक कच्चा माल वे सप्लाई कर रहे हैं। मैं सोचता हूं कि उनके इस सब के देने से मैं बेहतर नर्मदा यात्रा कर सकूंगा!
      मैं इस हिसाब से निहायत स्वार्थी व्यक्ति हूं!

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      1. आपके इसी ‘स्वार्थ’ के बहाने आप कुछ लिखते हैं और हमें कुछ पढ़ने को मिल जाता है। मेरा ध्येय प्रेमसागर जी के उद्देश्य पर शंका जताने का नहीं था, शायद उनके लिए यही जीवन की सार्थकता हो।

        R

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