नीलकंठ कुछ कुछ मेरे जैसा है। रुपया में बारह आना। वह भी नौकरशाह रहा। पांच सात हजार कर्मचारियों का नियंता। अब वह करुणेश जी के ‘रामेश्वर धाम’ पर बतौर प्रबंधक आया है। बंगले से डेढ़ कमरे की कॉटेज में शिफ्ट हुआ है। पांच हजार की साइकिल खरीदी है और गांव की सड़कों पर चलाने का अभ्यास कर लिया है।
सवेरे साढ़े चार बजे उठता है नीलकंठ। खुद चाय बनाता है। कॉटेज का दरवाजा गंगा की ओर खुलता है। एक पुरानी रॉकिंग चेयर, जो नीलकंठ के पास बत्तीस साल से है, पर बैठ वह आधा पौना घंटा नदी निहारता है। तब तक, जब तक गंगा के जल में उठते सूरज के दर्शन नहीं हो जाते।
उसके बाद वह साइकिल ले कर आसपास के घाट देखने निकल लेता है। घाट देखना बहुत कुछ मछली पकड़ने की कवायद है। हर रोज नये पात्र, नये चरित्र, नई कथायें तलाशना। गंगा किनारे के पात्रों में गंगा बहती है – कभी स्पष्ट, कभी सूक्ष्म। वे ही तो नीलकंठ की मछलियाँ हैं… किसी किसी दिन बड़ी मछली मिलती है। बड़ा सशक्त चरित्र। कभी कुछ छोटी मछलियां हाथ आती हैं। कभी कोहरा होता है तो बस गंगा होती हैं, साइकिल होती है और नीलकंठ होता है।
रामसूरत पहली बार दिखा — गंगा नहा कर लौट रहा था। कांधे पर गीले कपड़े थे। ऊपर कमीज थी और नीचे गमछा लपेटा था। चप्पल पहने था, हवाई। उम्र कोई साठ पैंसठ की होगी। सीताराम सीताराम कह रहा था।
“रोज आते हो नहाने?”
“जी, बारह साल से रोज आ रहा हूं। पत्नी के जाने के बाद माई का आसरा पकड़ लिया।”
नीलकंठ उसे चाय की चट्टी पर ले कर गया। दो कुल्हड़ चाय पर बातचीत जारी रखी।
रामसूरत समाज की अंतिम पायदान का जीव है। नीलकंठ प्रभुता के शीर्ष पर रह चुका है। दोनो का मेल अजब रहा। नीलकंठ ने परखा कि रामसूरत उसके कई मित्रों से – जो अब भी ऊँचे पदों पर होंगे – रामसूरत की सोच कम नहीं है। अनुभव गहरी किताब होता है। रामसूरत केवल अपना नाम लिख लेता है, पर कहता बहुत पते की है। अपने अनुभव वह नपे तुले शब्दों में रखता है। और उसमें नीचे के पायदान का होने की कोई कटुता नहीं है। प्रारब्ध से कोई शिकवा नहीं जताता।
यह गंगामाई की कृपा है कि दो बेमेल स्तर के लोगों को मिलाया।
“आप यह बताओ कि अपने बचपन से अब तक क्या बदलाव देखा? गरीबी तो कम हुई होगी?” नीलकंठ ने खुला सवाल किया।
रामसूरत थोड़ी देर चुप रहा। फिर कुल्हड़ को सामने मिट्टी में टिका दिया, उत्तर की भूमि तैयार करते हुये।
“हुई है, हाँ… घटी है।”
“कैसे?”
इस पोस्ट को बनाने में चैट जीपीटी से संवाद का योगदान रहा है।
“पहले भूख लगती थी, और कुछ नहीं होता था खाने को।
कभी तो गाय के गोबर में से अन्न के दाने चुनने पड़ते थे। उसे उबाल कर माई ‘भात’ कह कर देती थी।
महुआ के मौसम में ही ठीक से पेट भर पाता था। दिन भर वही बीनते थे।
हफ्ते भर नमक और मिर्च के साथ सूखा रोटी खाई – वो भी बारी-बारी से। दाल और सब्जी तो कम ही मिलती थी।”
“अब?”
रामसूरत आँखों में हल्की हँसी हंसा – “अब घर है, बिजली है। राशन मिलता है। अगली रोटी की चिंता नहीं होती। बच्चे पढ़े नहीं, पर अब पेट भरने को कमा लेते हैं। हाँ, हम गरीब हैं अब भी — पर अब वो ‘भूख वाला डर’ नहीं है।”
चाय के कुल्हड़ खाली हो गये थे, लेकिन हवा कुछ भर गई थी भीतर मन में।
नीलकंठ ने साइकिल की घंटी बजाई और चल पड़ा —
पीछे से रामसूरत की आवाज़ आई —
“हम जैसे गरीबों के लिये गरीबी रेखा नहीं, सिर्फ एक लाइन होती है साहब… कभी उसके ऊपर चल पड़ते हैं, कभी नीचे फिसल जाते हैं। पर अब पैर कुछ मजबूत हो गये हैं। फिसलने का डर कम हो गया है।”
नीलकंठ बहुधा रामसूरत को देखता है। कभी सोचता है कि रामसूरत की पूरी कहानी सुनेगा। एक वीडियो बनायेगा और विश्वनाथ को भेजेगा। विश्वनाथ उसका मित्र है, केलीफोर्निया में रहता है। परदेस में है, पर सोच में नीलकंठ जैसा ही है। अंगरेजी भी, तीन साल अमरीका में रह कर भी, अवधी टोन में बोलता है!
नीलकंठ जानता है कि विश्वनाथ उस वीडियो को देखकर पहले कोंचने पर दो-तीन बार चुप रहेगा, फिर कहेगा – ‘यार, इसे सबको दिखाना चाहिये!’
शायद फिर कभी मिलेगा रामसूरत। या शायद वह गंगाजल की उस बूँद की तरह है जो बस एक बार हथेली पर टिकती है — फिर कहानी में घुल जाती है।


पता नहीं क्यों पर मुझे लगता है की ये नीलकंठ जी भारतीय रेल से जुड़े हुए हैं
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नीलकंठ में बहुत कुछ “मैं” मिलेगा। लिखने में कुछ ज्यादा लिबर्टी होगी उसके पास।
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