नीलकंठ थोड़ा कष्ट में थे। सर्दी में सांस की तकलीफ पहले हुआ करती थी, फिर स्थान बदलने से खत्म हो गई। तराई के इलाके में नमी की कमी नहीं होती। शायद नमी का असर था। पर अब पंद्रह साल बाद फिर से लगा कि इनहेलर ले लेना चाहिये।
शशि दिल्ली में डाक्टर है। उससे फोन से बात की तो उसने कहा – दिन में थोड़ा देर से साइकिल ले कर निकला करो। और एक थर्मस चाय साथ रखा करो – मौका मिलने पर कुछ देर बाद किसी बेंच पर बैठ कर पी लिया करो, अंकल!
अपने पैक सामान में खोज कर निकाला मिल्टन वाला 400 मिलीलीटर का थर्मस। चाय भर कर जब निकले तब हल्का कोहरा था। सूरज और कोहरे की कशमकश में सूरज जीतने वाले थे। बीस मिनट साइकिल चलाने के बाद हनुमान जी के मंदिर के सामने बरगद के चबूतरे पर चाय पीने बैठ गये नीलकंठ। तभी एक हल्की खांसी की आवाज आई। बरगद के नीचे एक छोटे कद का आदमी बैठा था।
एक थैला, एक बंडल बना कम्बल और चादर लिये वह आदमी साधू जैसी दाढ़ी रखे था और एक शॉल ओढे था।
इस पोस्ट को बनाने में चैट जीपीटी से संवाद का योगदान रहा है।
नीलकंठ ने पूछा – चाय पियेंगे?
उसने कोई जवाब नहीं दिया। देखा इस तरह जैसे चाय का ग्लास ऑफर किये जाने की प्रतीक्षा हो। दो कप चाय थी थर्मस में। और दो पेपर कप भी थे। उस आदमी को चाय दी तो उसने फिर कुछ नहीं कहा, सिर्फ आंखें कृतज्ञता दर्शाती लगी।
उससे बात नीलकंठ ने ही शुरू की। साधारण सवाल – कहां से आ रहे हैं आप?
उसने बताया – नाम है उमादास। मूल नाम है जटाशंकर शुक्ला। पर गुरूजी ने उमादास नाम दिया तो उमादास हो गया। सुपौली का रहने वाला है। अपने माता पिता की स्मृति में एक बार पैदल गया जी हो आया था, तब से पैदल चलना रुचने लगा। अब गुरूजी ने कहा कि चित्रकूट जा कर आओ, सो वहीं जा रहा है।
उमादास के पास कोई नक्शा नहीं था, पर वह तीक्ष्णबुद्धि लगा नीलकंठ को। उसने बताया कि साढ़े तीन सौ किलोमीटर है उसके घर से चित्रकूट। वह 125 दिन में यात्रा पूरी कर गुरूजी के पास वापस जायेगा। उसका घर परिवार नहीं है। एक गीता का गुटका संस्करण थैले में रखा है जिसमें गुरुजी का नाम लिखा है और उनका मोबाइल नम्बर भी। यह भी लिखा है कि कुछ भी हो, सूचना इन्हें दी जाये।
गांव के ही एक सज्जन ने मोबाइल दिया था, पर उसमें बैलेंस नहीं है तो बस साथ में बोझा है वह।
एक पुराना घिसा हुआ फीचर फोन दिखाया उमादास ने। “वैसे मुझे फोन की जरूरत ही नहीं है। गुरूजी और उमानाथ (शिव जी) के अलावा कोई नहीं है जिसे फोन करना हो। “
सवेरे गंगाजी में नहा लिया था उमादास। पूजा भी कर चुका था, जब नीलकंठ पेड़ के नीचे आये और उसे चाय का कप दिया। रात उसने हनुमान मंदिर की खाली कोठरी में गुजारी थी। अब वह निकल लेगा।
खाना कहां खाओगे?
उसके पास पैसे नहीं हैं। गुरूजी ने एक भोजन के जरूरी पैसे से ज्यादा रखने को मना किया है। थैले में आटा है। “अगर कहीं भोजन न मिले तो दो टिक्कड़ सेंक लेता हूं।”
नीलकंठ ने ध्यान से देखा – वह गंजेड़ी या कोई और नशा करने वाला नहीं लगता था। शरीर दुबला था, पर मरियल नहीं। उसकी आंखें जिज्ञासु की आंखें थीं। वह श्रद्धालु लगता था, पर मूर्ख जड़ नहीं। नीलकंठ ने 100 रुपये देने चाहे पर उसने बीस ही लिये। “गुरूजी ने अधिक लेने को मना किया है।” अपने आचरण की शुचिता वह गुरू महराज को अर्पित करता चल रहा है।
चलते चलते नीलकंठ ने उमादास का मोबाइल नम्बर लिया और उसपर वहीं तीन महीने का एक रीचार्ज कर दिया। उमादास भले ही किसी से सम्पर्क का इच्छुक न हो, नीलकण्ठ कभी मन होगा तो फोन कर पता करेगा – कहां और कैसे है उमादास!
आज की मछली रहा उमादास। नीलकंठ आकलन नहीं कर पाया कि आज की मछली किस आकार की रही? छोटी या बड़ी या बहुत बड़ी। अपनी कॉटेज पर आ कर एक पैराग्राफ उमादास पर लिख लिया और रोज के काम में उसे भूल गया!


शुभ संध्या सर , नीलकंठ को समझने की कोशिश करता हूं , अभी पहली बार पढ़ा है
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नीलकंठ मेरा वह हिस्सा है जो यथार्थ के इर्दगिर्द भी घूम लेता है। उसमें मेरा आदर्शवाद है, पर वह कभी कभी नये दृष्टिकोण से भी लोग, परिस्थिति, घटनायें और प्रसन्नता-विषाद को देखेगा।
मैने एक दशक में पर्याप्त अनुभव लिया है, अब उस अनुभव को नीलकंठ के माध्यम से मांजना और अभिव्यक्त करना है।
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