पुलियाबाज़ी की पुलिया गांव की नहीं है

Puliyabazee

कभी-कभी जीवन में ऐसा होता है कि कोई नई आवाज़ कानों में पड़ती है और लगता है—हाँ, यही तो सुनना चाह रहा था मैं! मेरे साथ यह अनुभव तब हुआ जब मैंने पहली बार, दो तीन साल पहले पुलियाबाज़ी पॉडकास्ट सुना। इसमें तीन लोग – प्रणय कोटस्थाने, सौरभ चंद्र और ख्याति पाठक – बतकही की शैली में ऐसे विषयों पर चर्चा कर रहे थे जिन्हें आम तौर पर अंग्रेज़ी की दुनिया तक सीमित माना जाता है। संविधान, अर्थशास्त्र, अंतरराष्ट्रीय राजनीति, तकनीकी बदलाव—सब कुछ एक चुटकी हँसी, एक पोटली विद्वता और बोरा भर सहज बातचीत के साथ।

वे लोग तो अपनी बतकही में “मजा आया” शब्द का प्रयोग करते हैं, पर मुझे उससे दो पायदान ऊपर – आनंद आ गया।

वे लोग 300 एपीसोड कर चुके हैं, पर मैं अब अपने घरपरिसर में साइकिल चलाते हुये उन्हें नियमित सुन कर उनके सारे एपीसोड सुनने में लगा हूं। पिछले चार सप्ताह में मेरे ऑडीबल के आंकड़ों के अनुसार करीब 25 घंटे उन्हें सुना है!

हिंदी की ताज़गी
यहाँ सबसे पहले तो उनकी तारीफ़ बनती है – पुलियाबाज़ी ने साबित किया है कि हिंदी में भी गंभीर और गहरे विचारों पर बातचीत हो सकती है। यह छोटी बात नहीं है। बरसों से हमारे बौद्धिक विमर्श का एक बड़ा हिस्सा अंग्रेज़ी की दीवार के पीछे कैद था (या अब भी है)। जब मैंने पहली बार हिंदी में public policy और geopolitics जैसी बहसें सुनीं, तो सच कहूँ, लगा कि जैसे कोई खिड़की खुल गई हो और हवा का एक नया झोंका भीतर आया हो। यह भाषाई लोकतंत्र की दिशा में बड़ा कदम है।

इस पुलियाबाज़ी ने मुझे वैसा ही आनंद दिया, जैसा मुझे अपना हिंदी में ब्लॉग – मानसिक हलचल – बनाते और हिंदी लिखते हुये आया था! तब तक तीन दशक फाइलों पर अंगरेजी मैं सरकारी नोटिंग छाप अंगरेजी लिखते मैं उकता चुका था।

शहरी सोच की छाया
लेकिन जैसे-जैसे मैं पुलियाबाज़ी सुनता गया, एक कमी भी महसूस होने लगी।

इसके तीनों मेज़बान अपने-अपने क्षेत्र में निपुण हैं।

प्रणय कोटस्थाने तकनीक और नागरिक नीतियों की बारीकियों में जाते हैं। उनका कथन विद्वान टाइप होता है, पर लगता है जैसे वे अप्रोचेबल विद्वान हों। उनकी भाषा में अगर कुछ देशज शब्द होते तो अद्वितीय लगता मुझे!
सौरभ चंद्र का नज़रिया टेक उद्यमिता और आधुनिक समाज की ओर झुका है। सन 2018 से अब तक वे तीन चार बार एआई के प्रयोग और बदलाव पर अपना कथ्य ठेल चुके हैं पॉडकास्ट में। और शुरुआत से अब तक के कथ्य में आया अंतर भी रोचक है। भले ही मुझ इस विषय के अनपढ़ को बहुत बुझाया नहीं!
ख्याति पाठक कला और लेखन में प्रयोग करती हैं। वे और बाकी मिल कर एक पत्रिका निकालने जा रहे हैं। वे चर्चाओं को अपनी हल्की मुस्कान से भर देती हैं। उनका पॉडकास्ट में पदार्पण काफी बाद में हुआ, पर कोई यह अध्ययन भी कर सकता है कि ख्याति के साथ पॉडकास्ट में कितना निखार आया।

मगर, और मेरे हिसाब से यह बहुत बड़ा मगर है; इनके अनुभवों की जड़ें अधिकतर शहरी जीवन और वैश्विक विमर्श में हैं। इसीलिए चर्चा का दायरा भी वहीं घूमता दिखाई देता है—कभी संविधान की धाराएँ, कभी विश्व राजनीति की खींचतान, कभी शहरी डिज़ाइन और भविष्य की तकनीक। इनके लिये भारत प्रगति करेगा अगर उसके शहर, मेट्रो सुविधायें, टाइप टू/थ्री के शहर आदि बेहतर हो सकें।

उनके विमर्श में मेरे (गांवदेहात के) आसपड़ोस की झलक बहुत कम ही होती है।

गाँव की कमी
मेरे कान बार-बार ढूँढते रहे—कहाँ है गाँव? कहाँ हैं खेत, तालाब, टूटी-फूटी सड़कें, और पंचायती चुनाव की बातें? वे पॉडकास्टकगण तो लोकल सेल्फ गवर्नेंस की बात खूब करते हैं, जीएसटी का दो परसेंट नगरपालिका को देने की बात करते हैं पर उन्हें कहां मालुम कि पंचायती राज ने गांव को छुद्र राजनीति और लोकल भ्रष्टाचार खूब सिखाया है। पंचायती लीडरशिप और माहौल का कचरापन इन्हें छू नहीं पाया है।

भारत का आधा समाज तो अब भी गाँवों और कस्बों में सांस लेता है, लेकिन पुलियाबाज़ी की बतकही में उसकी आहट कम सुनाई देती है। हाँ, कभी-कभार कृषि पर एक “सतही” चर्चा या लैंड पूलिंग जैसा विषय आता है, पर वह भी नीति के काग़ज़ी फ्रेम से जुड़ा होता है, न कि खेत की मिट्टी की सुगंध या बजबजाती गांव की गड़ही से।

मेरा मानना है कि गाँव की असलियत को छुए बिना, बहस अधूरी रह जाती है।

शिक्षा पर चर्चा तब तक पूरी नहीं, जब तक गाँव के स्कूल की टूटी छत और खाली पड़ी अध्यापक की कुर्सी या छठी कक्षा के 100 तक गिनती न कर सकने वाले विद्यार्थी सामने न आए।
स्वास्थ्य नीति का कोई मतलब नहीं, अगर उप-स्वास्थ्य केंद्र की जर्जर इमारत में रहती बकरियां और दवा रहित अलमारी की तस्वीर आँखों के सामने न हो।
कृषि विमर्श खोखला लगता है, जब तक मंडी तक जाते किसान के फटे जूतों की आवाज़ उसमें न गूँजे। या तकनीकी कसावट के बावजूद भी राशन बांटने वाला 10-20 परसेंट की डंडी न मारता नजर आये या उसका कोई समाधान न झलके।
गांव का इंफ्रास्ट्रक्चर जिसपर खूब खर्च हुआ पर जो कार्यस्तर पर चला ही नहीं, बिखरा है। वह पॉडकास्ट बंधुओं की चर्चा में कभी आया नहीं शायद।

पुल पर बैठने का अवसर
मैं यह नहीं कहता कि पुलियाबाज़ी इस कमी को पूरा नहीं कर सकता। बल्कि, मुझे तो लगता है कि यही इसकी सबसे बड़ी ताक़त हो सकती है। पुल पर बैठा आदमी नदी के दोनों किनारे देख सकता है। उसी तरह यह पॉडकास्ट शहर और गाँव, दोनों की विवेचना कर समाधान सुझाने वाला बन सकता है।

इसके लिये शायद जरूरी हो –

अगर ये तीनों होस्ट कभी गाँव की वास्तविकता सुनाने वाले मेहमान बुलाएँ। उस विषय पर पुस्तकें तो शायद कम ही होंगी जिनके लेखक पॉडकास्ट में अपना कथ्य रखें।

अगर वे प्राथमिक शिक्षा, ग्रामीण महिला सशक्तिकरण या किसान आंदोलनों जैसे विषयों पर गांवदेहात का परिवेश समझते हुये गहराई से एपिसोड करेंं।

तब, मेरे अंदाज से, पुलियाबाज़ी का असर और भी व्यापक होगा। तब पुलियाबाज़ी की पुलिया को वे गांव की नहर की पुलिया का एम्बियेंस दे सकते हैं।

मेरा निष्कर्ष
मेरे लिए पुलियाबाज़ी सुनना एक सुखद अनुभव है—क्योंकि इसने दिखाया कि हिंदी में भी गहन विमर्श संभव है। लेकिन साथ ही यह अधूरा भी लगता है—क्योंकि गाँव की कीचड़ की पिचपिच या मिट्टी की खुशबू इसमें अब तक नहीं घुल पाई है।

मैं उम्मीद करता हूँ कि आने वाले दिनों में यह पॉडकास्ट शहर और गाँव, दोनों की आवाज़ों को साथ लेकर चलेगा। तभी यह सचमुच भारत की पूरी कहानी कह पाएगा। और शायद तभी मेरी तरह का श्रोता यह कह पाएगा—हाँ, अब यह हुई यह सही मायने में पुलियाबाज़ी।

पुलियाबाज़ी पोडकास्ट का लिंक – https://www.puliyabaazi.in/
(चित्र चैट जीपीटी का बनाया है)

PuliyaBazee
गांवदेहात की पुलियाबाज़ी

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

2 thoughts on “पुलियाबाज़ी की पुलिया गांव की नहीं है

  1. हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे. सत्य यही है और यही रहेगा. भारत में भ्रष्टाचार प्राणवायु जैसा है, जिस दिन भ्रष्टाचार न रहेगा उस दिन भारत में कैसा परिदृश्य होगा, कहना मुहाल है. सरकारी हो या गैर सरकारी कर्मचारी, घटतौली करने वाला हो या मिलावट करने वाला, सब हैं तो इसी समाज के. भ्रष्टाचार स्वीकार्य है और ग्राह्य है. बस यही सच है.

    Liked by 1 person

    1. पुलियाबाज़ी पर शायद वे भ्रष्टता के नैराश्य पर ज्यादा चर्चा न करना चाहें। शायद

      Like

आपकी टिप्पणी के लिये खांचा:

Discover more from मानसिक हलचल

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading

Design a site like this with WordPress.com
Get started