मोर्गन हाउसेल ने अपनी किताब The Art of Spending Money में एक प्रसंग लिखा है —
फ्रेंच लेखक मार्सेल प्राउस्ट (1871-1922) ने एक युवक को; जो अपनी विपन्नता से दुखी रहा करता था; सलाह दी थी कि वह महलों और विलासिता की वस्तुओं से ईर्ष्या करने के बजाय चित्रकार जीन सिमोन चार्दें की कलाओं को देखे। चार्दें साधारण जीवन — रसोई, भोजन और प्रकृति — में सुंदरता खोजते थे।
प्राउस्ट का कहना था, “(जीवन) यात्रा का अर्थ नए दृश्य खोजना नहीं, बल्कि नई आँखें पाना है।”
यह पंक्ति मुझे बार-बार याद आती है — खासकर जब प्रेमसागर की यात्रा के चित्र देखता हूँ।
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प्रेमसागर अपनी नर्मदा यात्रा के चित्र मुझे रोज भेजते हैं। आज कहा – भईया, दो लोग मिले। एक बाबाजी जो चौदह साल से केवल नर्मदा माई के जल पी कर ही साधना कर रहे हैं। एक किन्नर माताजी जो तीन साल से केवल दूध पर जिंदा हैं। उनके साथ फोटो खिंचा कर प्रेमसागर और अन्य लोग प्रसन्न/गदगद हैं।
पर मुझे वह आकर्षित नहीं करता। यात्रा के ये चमत्कारी पक्ष मुझे रुचते नहीं। पर जब गांव के जीवन के चित्र प्रेमसागर ने भेजे – एक ग्रामीण महिला की रसोई और कोदों-कुटकी को कूटने के लिये ओखल – तो मुझे वे जीवंत लगे।
प्रेमसागर का यह बताना कि बरगी बांध के कारण विशाल जलराशि होने के बावजूद भी जमीन में बोरवेल से पानी नहीं मिल रहा और लोग दूर से पानी भर कर मीलों चल रहे हैं – इसमें मुझे वे आंखें नजर आईं जिसकी बात प्राउस्ट करते हैं।
प्रेमसागर मुझे रोज यात्रा विवरण दे रहे हैं। पर वह लिखना अभी मुझे रुच नहीं रहा। शायद मेरा स्वास्थ्य उसके आड़े आ रहा है। पर यह भी है कि प्रेमसागर के दूरियां नापने में मुझे कोई नई खोज नहीं लगती।
वन विभाग के लोग उन्हें रहने के लिये रेस्ट हाउस देते हैं – प्रेमसागर को लोग रहने के लिये जगह दे रहे हैं या भोजन दे रहे हैं – अब मन वहां नहीं ठहरता।
पर जहां वे प्रकृति के चित्र देते हैं, जहां केवट या गोंड महिला की रसोई दिखाते हैं – वहां मन आकर्षित होता है। जो रसोई में सुंदरता देख ले, वही नर्मदा की गहराई समझेगा।
वे गरीब पर उदार हृदय लोग प्रेमसागर की मेहमान नवाजी करते हैं, यह मुझे विलक्षण लगता है। पर उसके बदले प्रेमसागर का कोई प्रतिदान न करना और इस मेहमान नवाजी पर सतत निर्भरता मुझे अजीब लगने लगा है।
प्रेमसागर की निगाह सामान्य को निहारने में एक नयापन रखने वाली होनी चाहिये। पर उसकी अपेक्षा करना शायद प्रेमसागर में मार्सेल्स प्राउस्ट की सोच तलाशना होगा।
मेरा मन होता है कि प्रेमसागर को कहूं – वे सामान्य जनमानस देखें, आसपास बिखरी प्रकृति देखें। नर्मदा की जलराशि निहारें। पर वे अपनी आवाभगत और चमत्कारी बाबाओं की कथा में सार्थकता समझ रहे हैं अपनी यात्रा की। यह सही में घुमक्कड्डी नहीं है। यह “ओवर डिपेंडेंस ऑन सोसाइटी फॉर योर कम्फर्ट” है।
घुमक्कड़ी का अर्थ रास्ते नापना नहीं, दृष्टि को विस्तृत करना है। मुझे लगता है, प्रेमसागर को अपनी दृष्टि को थोड़ा और भीतर मोड़ना चाहिये।
मैं प्रेमसागर में अमृतलाल वेगड़ की कलात्मक नज़र तलाश रहा हूं, पर वह मिलेगी नहीं। शायद मुझे प्रेमसागर की यात्रा को अपनी नज़र से देखना चाहिये। वह फिलहाल नहीं हो रहा। … शायद प्रेमसागर के इनपुट्स को यात्रा विवरण का ‘कच्चा माल’ मान कर मुझे संजोना चाहिये अपने नोट्स में और फिर मन का उच्चाटन दूर होने पर अपनी निगाह से यात्रा करनी चाहिये।

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अब प्रेमसागर जी सही मायने में ‘बाबा’ हो गये हैं। वैसे मेरी सोच के अनुसार वो हमेशा से ही ‘बाबा’ थे।
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आप सही हैं। वे मेरा और मैं उनका अपने अपने ध्येय अनुसार उपयोग करते रहे हैं। उनको अपने बाबत्व साधने के लिये मेरी सहायता की आवश्यकता थी। मुझे वे स्थान जो मैं स्वयम नहीं देख पा रहा था, उनके दिये इनपुट्स से देखने समझने का लाभ हो रहा था। और मैं उनके इस उपयोग के प्रति सदा से स्पष्ट रहा।
अब उनके इनपुट्स टाइप्ड अधिक हो गये हैं। या उनकी सार्थकता/नवीनता उत्तरोत्तर कम हो गई है। उनसे ज्यादा रोचकता और जानकारी तो चैट जीपीटी कभी कभी दे देता है।
कुल मिला कर सब ठहर सा गया है।
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