गरीब और विपन्न हैं। छ दिन पैदल चलने पर शरीर और मन टूट गया है। पर फिर भी अपने जेठ का आदर और किसी बाहरी के देखने पर मुंंह छिपा लेने का शिष्टाचार अभी उनमें बरकरार है।
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उन्होने लॉकडाउन में हजारों घर लौटते श्रमिकों को भोजन कराया
सुशील ने जितना बताया उससे यह तो स्पष्ट हुआ कि गांव में भी उत्साही और रचनात्मक लोगों की कमी नहीं है। वर्ना मेरा सोचना था कि यह गांव बड़बोले और अकर्मण्य निठल्लों का गांव है। गांव के प्रति मेरी धारणा बदल गयी।
माणिक सेठ कहते हैं जिंदगी गोलों में बंध गयी है
“अब बस यही गोले हैं, और गोलों में खड़े ग्राहक। जिंदगी गोलों में बंध गयी है। पता नहीं कितने दिन चलेगा। शायद लम्बा ही चलेगा!” – माणिक कहते हैं।
