इण्डियन कॉफी हाउस – बीते जमाने की वर्तमान कड़ी


कई दिन से मुझे लगा कि सिविल लाइंस में कॉफी हाउस देखा जाये. मेरे साथी श्री उपेन्द्र कुमार सिंह ने इलाहाबाद में दोसा रिसर्च कर पाया था कि सबसे कॉस्ट-इफेक्टिव दोसा कॉफी हाऊस में ही मिलता है. अफसरी में पहला विकल्प यह नजर आता है कि “चपरासी पैक करा कर ले आयेगा क्या?” फिर यह लगा कि पैक करा कर लाया दोसा दफ्तर लाते-लाते मुड़-तुड़ कर लत्ता जैसा हो जायेगा. लिहाजा हमने तय किया कि कॉफी हाउस ही जायेंगे; शनिवार को – जिस दिन दफ्तर में रहना वैकल्पिक होता है.

हम दोनो वहां पंहुचे. मैं पहली बार गया था. पर श्री सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रॉडक्ट हैं अत: यह उनका जाना पहचाना स्थान था. आप जरा कॉफी हाउस की इमारत का बाहरी व्यू देखें. वही स्पष्ट कर देगा कि यहां समय जैसे ठहरा हुआ है. पुराना स्ट्रक्चर, पुराना फसाड (facade’). अन्दर का वातावरण भी पुराना था. पुराना पर मजबूत फर्नीचर. दीवारें बदरंग. फाल्स सीलिंग वाली छत. महात्मा गांधी की दीवार पर टंगी एक फोटो. एक लकड़ी का काउण्टर. सफेद यूनिफार्म पहने बेयरे. आराम से बैठे लोग. नौजवानों की बिल्कुल अनुपस्थिति. सभी अधेड़ या वृद्ध.

पूरा वातावरण निहार कर श्री उपेन्द्र कुमार सिंह बड़े टेनटेटिव अन्दाज में बोले – “शायद उस कोने में बैठे वृद्ध फलाने जी हैं – इलाहाबाद विश्वविद्यालय के रिटायर्ड गणित के प्रोफेसर. उनका बैठने का स्थान ही यही है. कई लोग यहां दिख जाते हैं. कभी कभी किसी के बारे में तहकीकात करो तो पता चलता है कि वे चले गये. चले गये का मतलब कभी यह भी होता है कि ऊपर चले गये”. मुझे लगा कि यह स्थान पुरानी प्रतिभाओं को सम्मान के साथ फेड-आउट होने की सुविधा मुहैया कराता है. पता नहीं जब हमें फेड-आउट होना होगा तब यह रहेगा या नहीं. 

मैं जरा उपेन्द्र कुमार सिंह जी का परिचय दे दूं. बगल में उनके दफ्तर में ली गयी उनकी फोटो है. वे उत्तर मध्य रेलवे का माल यातायात परिचालन का काम संभालते हैं – और काम की आवश्यकताओं के अनुसार पर्याप्त व्यस्त रहते हैं. इस चित्र में भी दो फोन लटकाये दिख रहे हैं! उनके पिताजी प्रोफेसर रहे हैं – गोरखपुर विश्वविद्यालय में. आजकल लखनऊ में फेड-आउट पीरियड का अवसाद झेल रहे हैं. हम दोनों मे बहुत वैचारिक साम्य है. सरकारी ताम-झाम से परे हम लगभग रोज लाई-चना-मूंगफली एक साथ बैठ कर सेवन करते हैं!
खैर कॉफी हाउस पर लौटा जाये. हम लोगों ने दोसा लिया. आशानुकूल ठीक था. उसके बाद कॉफी – एक सही ढंग से बनी कॉफी. परिवेश, भोज्य पदार्थ की गुणवत्ता, अपनी रुचि आदि का जोड़-बाकी करने पर हम लोगों को लगा कि इस स्थान को पेट्रोनाइज किया जा सकता है. आगामी सर्दियों में शनिवार को यहां आने की पूरी सम्भावना है हम दोनो की. आखिर हम दोनो बीते हुये वर्तमान को जी रहे हैं! 

मैं यह पोस्ट परिचयात्मक पोस्ट के तौर पर लिख रहा हूं. मुझे लग रहा है कि श्री उपेन्द्र कुमार सिंह और इण्डियन कॉफी हाउस (इलाहाबाद शाखा) के साथ भविष्य की कुछ पोस्टों के जुड़ा रहने की सम्भावना है. आखिर बिना आप अपना और अपने परिवेश का परिचय दिये कैसे जोड़ सकते हैं पाठक को? या शायद जोड़ सकते हों – मैं निश्चयात्मक रूप से नहीं कह सकता.      


 इण्डियन कॉफी हाउस “The Indian Coffee Workers Co-Operative Society” द्वारा संचालित है. यह को-ऑपरेटिव साम्यवादी नेता श्री ए.के. गोपालन ने १९५८ में केरल में बनाई थी. इसके अन्तर्गत देश में लगभग १६० कॉफी हाउस आते हैं. इनका अपना एक अलग अन्दाज और चरित्र है. वर्तमान समय में ये ऐसे लगते हैं कि जैसे समय यहां ठहर गया हो. आप अगर कॉफी के जबरदस्त फेनाटिक नहीं हैं और मात्र अच्छी कॉफी चाहते हैं – केपेचिनो या एस्प्रेसो के झंझट में पड़े बिना, तो कॉफी हाउस आपको जमेगा.

क्या आपके अपने अनुभव हैं कॉफी हाउस के?

यह किया जा सकता है – विभिन्न शहरों के इण्डियन कॉफी हाउस के फोटो आप सब के सौजन्य से एक जगह जुट जायें तो ब्लॉगजीन पर पर पब्लिश किये जायें!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

18 thoughts on “इण्डियन कॉफी हाउस – बीते जमाने की वर्तमान कड़ी

  1. युनुस जी और समीर जी ने बिल्कुल सही कहा जबलपुर के काफी हाउस जग प्रसिध्द है। पिछले साल जब जबलपुर जाना हुआ था तो उनमे से एक तो नयी रंगत मे दिखा। एक बात विस्मित करने वाली है कि सभी काफी हाउस मे डोसा बिल्कुल एक जैसा बनता है। आपने भूख जगा दी अब शाम को तो रायपुर के काफी हाउस जाना ही होगा।

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  2. सात आठ साल हमने भी वहाँ के फेरे खूब लगाए हैं…..मैं वड़ा खाया करता था…..लोक भारती वाले दिनेश जी वहाँ केवल पानी पीने आते हैं……हमने वहाँ जो बैठके की हैं उनमे लक्ष्मीकान्त वर्मा, राम स्वरूप चतुर्वेदी…भैरव प्रसाद गुप्त, राम कमल राय, सत्यप्रकाश मिश्र जैसे स्वर्गीय दिग्गजों के साथ ही मार्कण्डेय जी , दूधनाथ सिंह, शेखर जोशी, सतीश जमाली, रवींद्र कालिया, नीलाभ जैसे लोग या लेखक होते थे…..तब तक वहाँ साहित्यकार फेरे लगाते थे…अब का मैं कह नहीं सकता…सूरदास का एक दोहा याद आता है….अब वै बात उलटि गईं….

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  3. मेरे ख्याल से हर शहर का काफ़ी हाउस बौद्धिक जुगाली का एक बड़ा केंद्र होता है।कुछ साहित्यकार, कुछ “राजनीतिज्ञ”, कुछ छुटभैय्ये नेता, कुछ रिटायर्ड शिक्षाविद, इन्ही सब का जमावड़ा।रायपुर के कॉफ़ी हाउस की तस्वीरें जल्द ही उपलब्ध हो जाएंगी!

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  4. वाह वाह ये हुई पोस्‍ट।। भूपेन, ईष्‍टदेव और न जाने किस किस को कहा कि भई इलाबाबाद के काफी हाऊस पर एक पोस्‍ट लिखो पर आस आप पूरी करेंगे ये न पता था।काफी हाऊस इलाहाबाद की परिमल मंडली और बाद में भी साहित्‍य के इतिहास में एक खास भूमिका रही है- महात्‍मा गांधी विश्‍वविद्यालय सं प्रकाशित हिंदी साहित्‍य का मौखिक इतिहास में इस काफी हाऊस (अगर यह इलाहाबाद का वही काफी हाऊस है तो, हम कभी नहीं गए इलाहाबाद सो कह नहीं सकते) का बड़े इतमीनान से जिक्र है। हमारा शोध राम स्‍वरूप चतुवेंदी पर है जो बड़ी हसरत और गर्व से इस काफफी हाऊस का जिक्र करते थे।

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  5. नयी पीढ़ी भौत अपने टाइम को लेकर बहुत कास्ट-इफेक्टिव है जी। काफी हाऊस में टाइम नहीं गलाती, सो वहां फेडआऊट सा सीन ही दिखता है। काफी हाऊस कल्चर फंडामेंटली बदल गया है, बहस-मुबाहसे के मसले और जरुरतें बदल गयी हं। साहित्यिक चर्चाएं बदल गयी हैं। आपने अच्छा लिखा,बुरा लिखा, ये मसला नहीं है। मसला ये है कि आप हमारे गिरोह में हैं या नहीं। अगर हैं, तो फिर आपको पढ़ने की क्या जरुरत है,आप बेस्ट हैं। और अगर हमारे गिरोह में नहीं हैं, तो फिर आपको पढ़ने की क्या जरुरत है। काफी हाऊस अब इतिहास का हिस्सा बनने वाले हैं।

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  6. ज्ञान जी आप नहीं जानते कि कितनी पुरानी यादों को दोबारा उभार दिया आपने । जबलपुर का जिक्र हमारे उड़न समीर जी कर ही चुके हैं । लेकिन मैं अपनी सुनाए बिना चैन नहीं लूंगा । जबलपुर में इंडियन काफी हाउस की तीन शाखाएं हैं । दो शहर में और एक छावनी में । तीनों जगह हमारे अड्डे हुए करते थे । लेकिन शहर वाली शाखा के पीछे स्‍कूल में जबलपुर इप्‍टा यानी विवेचना का दफ्तर था । जहां हम लोग नाटकों की अपनी खुजाल मिटाने के लिए जमा हुआ करते थे । दरअसल आकाशवाणी में कैजुअल अनाउंसर भी था उन दिनों । माईक का कीड़ा स्‍टेज के कीड़े से बड़ा साबित हो रहा था । इसलिए शाम शाम को हम वहीं अपने ‘नाटकबाज़’ मित्रों के साथ पसरे रहते थे । ना जाने कितनी कॉफियां निपटाईं, कितने दोसे तोड़े । और ना जाने किन विचारों का विरोध सिर्फ विरोध करने के लिए । बौद्धिक जुगाली की इंडियन काफी हाउस से बेहतर जगह कोई नहीं हो सकती थी । ज़रा ग़ौर कीजिए कि जब से इंडियन कॉफी हाउस की गर्दिश शुरू हुई बौद्धिक जुगाली का दौर भी फेड आउट हो गया । हमारे नाटकबाज़ मित्रों में से कुछ मुंबई आये थे शाहरूख बनने के लिए । पर कोई भी बड़े परदे की तो छोडि़ये छोटे परदे पर भी नहीं दिखा । मुंबई में कभी मिल भी लिये तो वो आग क्‍या चिंगारी भी नहीं मिली । एक मित्र आनंद है जो आजकल आनंद का चिट्ठा चलाता है दिल्‍ली से । और सरकारी नौकरी में मगन है । अरे हां एक बात भूल गये । जबलपुर जैसे ‘संस्‍कारधानी’ शहर में प्रेम करना अपराध के समान होता था । आज क्‍या है पता नहीं । तो इस अपराध में संलग्‍न अपराधी इंडियन काफी हाउस में पनाह पाते थे । और काफी उड़ेलते हुए और दोसा तोड़ते हुए गुलाबी गुलाबी सपने बुनते थे । फिर ज्‍यादातर ये होता था कि लड़की अपने मां बाप के दिखाए रास्‍ते पर गैया सरीखी किसी से बांध दी जाती थी और लड़का बैल सरीखा यहां वहां मुंह मारता था जब तक कि कोई उसके नकेल ना डाल दे । इंडियन काफी हाउस के बहाने हमने अपनी पुरानी यादों की काफी चटाई बिछा दी । अब चलते हैं ।

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  7. जबलपुर के सिविल लाईन्स का इंडियन कॉफी हाऊस में हमारे कालेज का जमाने का अड्डा था. उसके फैमली रुम पर हमारा एक छ्त्र राज हुआ करता था जहाँ से हमारे सिगरेट पीने का सफर शुरु हुआ था जो कई वर्षों तक चला.कई यादगार पल वहाँ की कॉफी के कप से जुड़े हैं, आज अनायास ही यह सब पढ़कर याद आ गये. आभार आपका उन दिनों में ले जाने के लिये.कॉफी की कड़वाहट अभी भी जुबान पर महसूस हो रही है.

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  8. बताते हैं कि ये कॉफी हाउस पहले साहित्यकारों और बुद्धजीवियों का अड्डा हुआ करता था। अब तो यहां वकील अपने क्लाएंट पटाने के लिए आया करते हैं। और, यहां समय तो बहुत समय से ठहरा हुआ है। सरकार को कॉफी बोर्ड की चिंता रहती है। लेकिन पुराने कॉफी हाउसों के बारे में उसने कभी सोचा ही नही, जबकि ये सभी हमारे बौद्धिक विमर्श, सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए बेहद ज़रूरी अड्डे हैं।

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