जब से शिवकुमार मिश्र की सेतुसमुद्रम पर चिठ्ठी वाली पोस्ट चमकी है, तबसे हमें अपनी दुकानदारी पर खतरा लगने लगा है. उस पोस्ट पर आलोक पुराणिक ने टिप्पणी कर कह ही दिया है कि व्यंगकारों की ***टोली में जन संख्या बढ़ रही है और शिवकुमार को हमारे कुसंग से प्रभावित नहीं होना चाहिये.
शिवकुमार मिश्र ने हमारा ज्वाइण्ट ब्लॉग वैसे ही 90% हथिया लिया है – अब मन हो रहा है कि एक दिन चुपके से उसका नाम “शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पाण्डेय का ब्लॉग” कर दें [ :-) ]. शिवकुमार ने फोटो-सोटो लगाने का जिम्मा अभी मुझे दे रखा है. वह तो शायद मेरे ही पास रहे. पर कुल मिला कर हमें लग रहा है कि हमारी ब्लॉगरी खतरे में है. हमसे बाद में आये ब्लॉगर हमसे आगे निकल गये हैं. सुकुल ने जब नामवर सिन्ह का नाम लेकर अपनी व्यथा बयान की थी तब मुझे कष्ट का अहसास नहीं था, अब वह पूरी गम्भीरता से महसूस कर रहा हूं. :-)
सुकुल जैसे तो फिर भी मस्त (या अंग्रेजी का सुपरलेटिव प्रयोग करें तो मस्तेस्ट) लिखते हैं. उनके जोड़ीदार जीतेद्र चौधरी भी एफर्टलेसली गदर ब्राण्ड पोस्ट ठोक कर मारते हैँ बाउण्डरी के पार. समीर लाल जी का तो ब्लॉग छपने पर टिप्पणियों को अर्पित करने वालों की लाइन लगी रहती है. सो मित्रों, उन जैसे रीयल सीनियर ब्लॉगरों को रीयल खतरा नहीं है.
Good friends, good books and a sleepy conscience: this is the ideal life.
– Mark Twain
खतरा प्रतीक पांड़े को भी नहीं है. वो तो मजे में सोते हैं (?) और यदाकदा उठकर अथर्ववेद की कोई ऑब्स्क्योर (obscure) सी ऋचा पकड़कर चुनमुनिया पोस्ट लिख मारते हैँ. खतरा अज़दक जैसों को भी नहीं है जो दिन में कई-कई बार मुखारी कर पॉपकार्न की तरह पोस्टें फुटफुटाते रहते हैं. खतरा सिर्फ हमें है. हमने जबरी सवेरे सवेरे पोस्ट ठेलने का नियम बना लिया है. उसका उल्लंघन करें तो पुराणिक या संजीत के एक दो ई-मेल या फुरसतिया सुकुल का फोन आ जाता है कि तबियत तो ठीक है!? तबियत की देखें या पोस्ट की क्वालिटी को. दर्द हिन्दुस्तानी वैसे भी बता चुके हैं कि हमारे रोज रोज लिखने का मतलब यूंही छाप लेखन हो जाता है. (यह अलग बात है कि ब्लॉग अगर बहुत सेंसिबल लेखन का माध्यम होता तो हम इस ओर रुख ही क्यों करते?)
एक अनिल रघुराज हैं – जो बुद्धिमानी भरी हिन्दुस्तानी की डायरी लिखते हैं. पर उनके साथ हमारी समस्या सेंसिबल टिप्पणी (वह भी रोज-रोज और कभी दिन में दो बार) उनके ब्लॉग पर करने की है. लगभग यही समस्या यूनुस के साथ है. उनके प्रस्तुत गानों पर टिप्पणी करने से पहले बाकी लोगों की टिप्पणी पढ़नी पड़ती हैं, जिससे समझ आ जाये कि कैसा लिखना है टिप्पणी में.
खैर, असली प्रॉबलम व्यंगकारों की ***टोली से है. यह हमने समझ लिया है कि हिन्दी ब्लॉग जगत में जो ज्यादा बिकता है, वह व्यंग ही है. किसी को हिट होना हो तो मस्त व्यंग लिखना ही होगा. अब देखिये हमें तो बहुत समय बाद समझ में आया पर नीरज गोस्वामी तो तीन गज़ल ठोकने के बाद ही “मैं हूं डॉन” वाला शुद्ध मुम्बइया-हिन्दी में सटायर लिख गये.
हमारे लिये सतत व्यंग में स्थितप्रज्ञ रहना कठिन है. दफ्तर में काम के जो झमेले हैं वे विकट करुणा पैदा करते हैं. करुणा न भी हो तो उच्चाटन एक स्थाई भाव की तरह जुड़ा रहता है. ऐसे में व्यंगकारों की ***टोली की मेम्बरशिप कैसे पायी जाये – यह समझ नहीं आता.
कुल मिला कर ब्लॉगरी करना उत्तरोत्तर कठिन लग रहा है. (यह कहने का शुद्ध हिन्दी में अर्थ होता है कि एक टिप्पणी का सवाल है भैया!)

काश हममें से कोई अगर साम्भा होता तो मैं सविनय उससे निवेदन करके पूछ सकता कि- “हे साम्भा भाई, क्रपया आप गिन कर बतायें कि कितने आदमी हैं यहाँ पर हास्य-ब्लॉगरी में।” भैये आप सब भाई लोग आपस में एक हो लिये मुझ अकेले निरीह को भगवान के सहारे छोड़ कर।
LikeLike
‘यह हमने समझ लिया है कि हिन्दी ब्लॉग जगत में जो ज्यादा बिकता है, वह व्यंग ही है. किसी को हिट होना हो तो मस्त व्यंग लिखना ही होगा.’ भैया,’हिट’ से आपका मतलब क्या है, इसपर प्रकाश डालिये……व्यंगकार लोग पहले भी ‘हिट’ हो चुके हैं…सुनते हैं परसाई जी को एक बार किसी ने ‘हिट’ कर दिया था…:-) व्यंगकार औरों को हिट करने के लिए लिखते हैं….लेकिन व्यंगकारों के लेखन को लोग ‘फनी थिंग्स’ बताते हैं और उनके लेखन को बन्दर का नाच समझ कर ताली बजाते हैं….हिट होने की वजह ये भी हो सकती है कि ‘बन्दर का नाच’ देखने को मिलता है…..ऊपर से शिकायत ये कि आपने ये लिखा तो ठीक किया लेकिन फलाने के बारे में भी लिखिए… और एक बात….आलोक पुराणिक जी, आप और काकेश जी के जितना अच्छा व्यंग शायद ही कोई और ब्लॉगर लिखता है….
LikeLike
आलोक पुराणिक> और जी हम सुंदरियों का बात सलीके से कर रहे हैं, सो हमरे फोकस के गड़बड़ायमान का आरोप आप हम पे लगा रहे हैं, और ये जो आपके ब्लाग पर सीक्रेट लव लैटर्स के इश्तिहार आ रहे हैं, सो………..।———————–जाकी रही भावना जैसी! जब हमने देखने की कोशिश की तो गूगल ने विज्ञापन बदल दिया था. गूगल भी जानता है किसे क्या दिखाना है! :-)
LikeLike
और जी हम सुंदरियों का बात सलीके से कर रहे हैं, सो हमरे फोकस के गड़बड़ायमान का आरोप आप हम पे लगा रहे हैं, और ये जो आपके ब्लाग पर सीक्रेट लव लैटर्स के इश्तिहार आ रहे हैं, सो………..।
LikeLike
जी सरजी, व्यंग्यकारों की टोली बढ़कर रहेगी। सरजी जरा सा आसपास सिर घुमाकर देख लें, व्यंग्य के सिवाय ससुर और हो ही क्या रहा है। व्यंग्य से ज्यादा आसान काम कुछ नहीं है-अगर बंदा दूसरों की ऐसी-तैसी करना सीख जाये, पर दूसरों की ऐसी-तैसी करने से पहले अपनी ही ऐसी-तैसी करना सीख ले। जो व्यंग्यकार अपना ही कार्टून बनाना ना सीखे, अपनी ही लंपटगिरी को उजागर ना करे, वो दूसरों के खेल क्या समझेगा। दूसरों की ऐसी-तैसी करना बहुत आसान होता है, सब कर सकते हैं, बस अपनी करने का हुनर प्रेक्टिस कर लें। आपका ज्ञानदत्त-शिवकुमार वाला ब्लाग टेकओवर टारगेट है, किसी भी दिन आपका बोर्ड उतर लेगा। फोटू-ओटू लगाने का काम करना चाहें, तो आनरेरी बेसिस पर कर सकते हैं।
LikeLike
व्यंग्य लिखना वाकई बड़ा कठिन है। लेकिन ज्ञान जी, आप तो मजे लेकर लिखते हैं। व्यंग्य तो आपके बाएं हाथ का खेल है। वैसे आपकी ये लाइनें जबरदस्त हैं कि, “सतत व्यंग में स्थितप्रज्ञ रहना कठिन है. दफ्तर में काम के जो झमेले हैं वे विकट करुणा पैदा करते हैं. करुणा न भी हो तो उच्चाटन एक स्थाई भाव की तरह जुड़ा रहता है.”
LikeLike
अरे अब क्या! इस पोस्ट से आप इस टोली में तो शामिल हो ही गए.
LikeLike
मस्त लिखा है। अगर दफ़्तर में करुणा है तो लेख में व्यंग्य आराम से आ सकता है। परसाईजी कहते थे कि व्यंग्य में करुणा की अंतर्धारा बहती है। सो दफ़्तरी करुणा को बहा दीजिये ब्लाग के व्यंग्य में। :)
LikeLike
आप भी व्य़ंग्य पर हाथ आजमायें और डेली व्य़ंग्य को अपना रुटीन बनायें. ताकि जब भी आपके द्वारे आयें हंसते हुए जायें केवल सोचते हुए नहीं.
LikeLike
शुद्ध भाषा में:अलविदा मित्र….अरे, मजाक कर रहा हूँ…अरे, आप तो खुद टोली हैं जिसमें हम ज्वाईनिंग की राह तक रहे हैं और आप न जाने कौन सी टोली की बात ले आये.सही कहें तो असल ब्लॉगिंग को आप ही सार्थक कर रहे हैं. शुद्ध और शब्दशः अर्थों में.
LikeLike