मेरे घर में मेरे सोने के कमरे में एक जरा सा रोशनदान है। उससे हवा और रोशनी आती है और वर्षा होने पर फुहार। कमरे का फर्श और कभी-कभी बिस्तर गीला हो जाता है वर्षा के पानी से।
एक बार विचार आया था कि इस गलत डिजाइन हुये रोशनदान को पाट दिया जाये। पर परसों लेटे-लेटे सूरज की रोशनी का एक किरण पुंज छत के पास कमरे में दीखने लगा तो मैं मुग्ध हो गया। मुझे लगा कि प्रकृति को कमरे में आने/झांकने का यह द्वार है छोटा रोशनदान।
सहूलियत के चक्कर में प्रकृति को अनदेखा करना; अपने दरवाजे-खिड़कियां-रोशनदान बन्द कर रखना – प्राइवेसी के लिये; यह सामान्य मानव का व्यवहार है।
प्रकृति को अपने पास निमंत्रित करने को कुछ अलग करना पड़ता है! या कम से कम जो हो चुका है; उसे रहने देना भी सही व्यवहार है। मैने पढ़ा है कि जापानी अपने बगीचे बनाते समय स्थान की मूल संरचना से छेड़-छाड़ नहीं करते। यह सीखा जा सकता है।
यह पोस्ट तो बहुत छोटी हो गयी। मेरे पास अवसर है एक कविता प्रस्तुत करने का। यह श्री शिवमंगल सिन्ह ‘सुमन’ की लिखी है और ‘मिट्टी की बारात में संकलित’ है:
ठहराव
तुम तो यहीं ठहर गये
ठहरे तो किले बान्धो
मीनारें गढ़ो
उतरो चढ़ो
उतरो चढ़ो
कल तक की दूसरों की
आज अपनी रक्षा करों,
मुझको तो चलना है
अन्धेरे में जलना है
समय के साथ-साथ ढलना है
इसलिये मैने कभी
बान्धे नहीं परकोटे
साधी नहीं सरहदें
औ’ गढ़ी नहीं मीनारें
जीवन भर मुक्त बहा सहा
हवा-आग-पानी सा
बचपन जवानी सा।

बहुत बड़िया पोस्ट?हाँ जी वो तो है पर फ़ोटू और भी अच्छी है। बम्बई में तो जी रोशनदान से कबुतरों की मुसीबत चली आती है और फ़िर इतनी गन्दगी और बदबु की खड़े न रह सके। वैसे मुझे अभी अभी एह्सास हुआ कि मेरे घर में तो एक भी रोशनदान नहीं। ओनली फ़्रेंच विन्डोज
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मुझको तो चलना हैअन्धेरे में जलना हैसमय के साथ-साथ ढलना हैइसलिये मैने कभीबान्धे नहीं परकोटेसाधी नहीं सरहदेंऔ’ गढ़ी नहीं मीनारेंजीवन भर मुक्त बहा सहाहवा-आग-पानी साबचपन जवानी सा। वाह क्या बात की है, अगर १० प्रतिशत भी जीवन में उतार सकें तो बडी सन्तुष्टि मिले ।बचपन में झरोंखों से आने वाली रोशनी के बीच धूल के कणों की ब्राउनियन गति देखकर बडा प्रसन्न होता था । आपकी पोस्ट पढकर फ़िर से खिडकी को तनिक सा खोलकर उसी नजारे का आनन्द लेने का सोचा लेकिन पुरानी सी बेतकल्लुफ़ी नहीं मिली ।
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आप निश्चित ही किस्मत वाले है फिर तो। हमारे यहाँ रायपुर मे, कहने को राजधानी है पर स्पांज आयरन का काला धुआँ तलवो को काला कर देता है। सारे पौधे काले हो जाते है। और सप्ताह मे दो दिन पास की डिस्टलरी से जो बदबू आती है उससे उल्टी शुरू हो जाती है। पूरे रायपुर मे इस बदबू को महसूस किया जा सकता है। इसलिये रोशनदान का खुला होना हमारे लिये अभिशाप हो जाता है। अब हम आपके सुख को क्या जाने और आप हमारे दुख को क्या जाने। है तो वही रोशनदान।
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पोस्ट छोटी भले है पर नावक के तीर की तरह गहरे तक उतरनेवाली है। सुमन जी की कविता पर कुछ कहने के लिए और समझदार होना पड़ेगा।
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सुंदर!!
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बहुत खूब ! पर हमें तो इससे विपरीत चाहिये । यह नेट व कम्प्यूटर ही हमारी बाहरी दुनिया, शहरों व देश विदेश की खिड़की है , रोशनदान है या दरवाजा । इस ही से हम अपने जंगल से बाहर झाँक कर शहर देखते हैं । घुघूती बासूती
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