वैसे तो हम सभी चिन्दियाँ बीनने वाले हैं – विजुअल रैगपिकर (visual rag picker)। किसी भी दृष्य को समग्रता से ग्रहण और आत्मसात नहीं करते। उतना ही ग्रहण करते हैं जितने से काम चल जाये। बार-बार देखने पर भी किसी विषय के सभी पक्षों को देखते-परखते नहीं। हमारा एकाग्रता का समय और काल इतना छोटा होता है कि कोई भी बात पूर्णरूपेण समझ ही नहीं पाते। पर फिर भी हम बुद्धिजीवी की जमात में बैठने की हसरत रखते हैं।
इसके उलट भौतिक जगत में चिन्दियां बीनने वाला जो कूड़े-कचरे की रीसाइकल इण्डस्ट्री का मुख्य तत्व है; हम सब की हिकारत और दुरदुराहट का पात्र है।
मेरी सवेरे की सैर में चिन्दियाँ बीनने वाले का अवलोकन एक अनिवार्य अंग है। सवेरे सवेरे चिन्दियाँ बीनने वाले को ज्यादा कीमती चीजें मिलती होंगी। जैसे कहावत है – अर्ली बर्ड गेट्स द वॉर्म; उसी तरह जल्दी चिन्दियाँ-बीनक को भी लॉटरी लगती होगी। सवेरे-सवेरे सफेद रंग के बड़े पॉली प्रॉपीलीन के थैले बायें हाथ में लिये और दायें हाथ से पॉलीथीन, शीशी, प्लॉस्टिक, गत्ता, धातु आदि बीनते हर गली-नुक्कड़ पर ये दिख जाते हैं। कूड़े के ढ़ेर को खुदियाते कुरेदते बहुत सारे चिन्दियाँ बीनने वाले मिलते हैं। एक आध से बात करने का यत्न किया। पर ये बहुत शर्मीले और जल्दी में रहते हैं।
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चिन्दियाँ बीनने वाला बच्चा
आप मुझे देख रहे हैं; क्या देख रहे हैं? मेरे चिथड़े कपड़े, मेरे सिर में जुयें? मेरा शरीर समय की मार से दोहरा है। मेरे पैर नंगे हैं। पर, मेरे पास भी दिल है। और मुझे भी प्यार की तलाश है। अर्सा गुजर गया, मेरी भी माँ थी; पिता, बहन और भाई थे। अब कहाँ हैं वे? मैया रे, कितनी सर्दी है। हर सवेरे जब लोग चहल-पहल करने लगते हैं, घरों में आग जलती है; पर मैं सर्दी से कांपता हूं। सर्दी जो मेरी हड्डियों में घुस जाती है; ओह, कोई मुझे प्यार करे, कोई तो छुये। अगर मैं बहुत सवेरे उठूं, तो चिन्दियाँ बेहतर मिलती हैं; पर तब मुझे रात के चौकीदार और चूहों से लुकाछिपी खेलनी पड़ती है। देखो, मैं एक बच्चा ही हूं; पर मेरा शरीर जर्जर हो गया है; और समय की मार ने, बना दिया है मुझे, समय से पहले अकलमन्द।——-
—- केरोल एजकॉक्स की कविता के अंश का भावानुवाद
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दीपावली के बाद ये चिन्दियाँ बीनने वाले सामान्य से ज्यादा सक्रिय नजर आये। बाकी लोग अलसाये थे। सवेरे घूमने वालों की भीड़ जरा भी न थी सामान्य की तुलना में। पर चिन्दियाँ बीनने वाले सामान्य से ज्यादा सक्रिय नजर आ रहे थे। ध्यान से देखने पर पता चला कि वे फुलझड़ी के तार में रुचि रख रहे हैं। तार का धात्वीय तत्व – शायद अच्छे भाव बिकता हो कबाड़ में। दीपावली के तीन दिन बाद एक भी चिन्दियाँ बीनने वाला न दिखा। सारी फुलझड़ी के तार जो बीन लिये जा चुके!
चिन्दियाँ बीनने वाले 10-18 साल के लगते हैं। कई दिनों से बिना नहाये। सवेरे जल्दी उठने वाले। आर्थिक रूप से इतने दयनीय लगते हैं कि कबाड़ी जरूर इनका शोषण करता होगा। औने-पौने भाव पर कबाड़ इनसे लेता होगा। और शायद पूरे पैसे भी एक मुश्त न देता होगा – जिससे कि वह अगली बार भी कबाड़ ले कर उसी के पास आये।
मेरा अन्दाज यह है कि जो पैसे इन्हें मिलते भी होंगे, उसका बड़ा हिस्सा जुआ और नशे में चला जाता होगा। बहुत कम पैसा और बहुत अधिक समय शायद इनके सबसे बड़े दुश्मन हैं। फिर भी इनको मैं सम्मान की दृष्टि से देखता हूं। ये भिखारी नहीं हैं और पर्यावरण साफ रखने में इनकी अपनी भूमिका है।
क्या विचार है आपका?
चना जोर गरम की पोस्ट के बाद
पंकज अवधिया जी चाहते थे कुछ मीठा। पर मुझे दुख है कि मैं यह अभावग्रस्त पोस्ट दे रहा हूं, जो पर्व के माहौल के अनुरूप नहीं है। पर मानसिक हलचल पर मेरा पूर्ण नियंत्रण तो नहीं कहा जा सकता।
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Published by Gyan Dutt Pandey
Exploring rural India with a curious lens and a calm heart.
Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges.
Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh.
Writing at - gyandutt.com
— reflections from a life “Beyond Seventy”.
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“इनको मैं सम्मान की दृष्टि से देखता हूं। ये भिखारी नहीं हैं और पर्यावरण साफ रखने में इनकी अपनी भूमिका है।”मैं भी. ये लोग न होते तो आज कूडा और अधिक होता. ये न केवल कचरे की मात्रा कम करते है, बल्कि साधनों के पुन: उपयोग के द्वारा पृथ्वी के संसाधनों का दोहन कम कर रहे हैं — शास्त्री हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.इस काम के लिये मेरा और आपका योगदान कितना है?
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मार्मिक लेख लिखा आपने. बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता लेख है ये. भगवान् से यही प्रार्थना है रघुराज जी की बात जितनी जल्द सच हो वही अच्छा.
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ज्ञान जी, मैंने अंकुर जी का ट्रिक पढा.. उनका ट्रिक तो बहुत बढिया है लेकिन बहुत पुराना भी.. मैं अभी विंडोज विस्टा पर काम कर रहा हूं और शायद आप भी विस्टा पर ही काम कर रहे हैं, तभी वो फ़ोल्डर डिलीट नहीं हो रहा है.. ये एक तरह का कीड़ा(BUG) है जो विंडोज 98,2000, ME और विस्टा के साथ है..विंडोज XP के साथ ये बिलकुल सही काम कर रहा है.. मुझे अभी तक जो अनुभव प्राप्त हुये हैं उससे मैं ये कह सकता हूं कि विस्टा में अभी बहुत सारी त्रुटियां है जो इसके अगले वर्सन में ही सही हो सकता है.. सो इसके अगले वर्सन का इंतजार करें(जैसा XP के सेकेण्ड एडिसन में सब कुछ ठीक था पर पहला वर्सन उतना सही नहीं था) या फिर ओपेन सोर्स के किसी ओपेरेटिंग सिस्टम पर भरोसा करें..
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ज्ञान भैय्या “किसी भी दृष्य को समग्रता से ग्रहण और आत्मसात नहीं करते। उतना ही ग्रहण करते हैं जितने से काम चल जाये। बार-बार देखने पर भी किसी विषय के सभी पक्षों को देखते-परखते नहीं”कितनी सच्ची बात लिखी है आपने. मैं आप के कथ्य और शब्दों के चयन का कायल हूँ. सरल भाषा में आप जो कह जाते हैं उसके लिए लोग ग्रन्थ रच डालते हैं. भावपूर्ण लेख और उसके साथ दी गई कविता के लिए मेरी दिली बधाई. आप को पढने के बाद ख़ुद को संयत रख पाना आसान नहीं होता.नीरज
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अच्छा लिखा है !
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आजकल तो आप कुछ अलग ही अंदाज मे लिख रहे है। और आपकी ये पोस्ट बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है.
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रघुराज भाई मै आपसे सहमत नही हूँ, जब तक भारत में गंदगी रहेगी ये कबाड़ बिनने वाले कबाड़ी खत्म होने वाले नही है। भले ही आज भारत का एक आदमी विश्व का सबसे अमीर आदमी है किन्तु 1/3 जनता आज भी भोजन पानी से महरूम है। बिडम्बना है कि हम जिसे खराब/घृणित समझ कर फेक देते है वही किसी के जीवन यापन का साधन है। यही इण्डिया की तस्वीर है, इण्डिया को इण्डिया ही पढ़े भारत नही।
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आप इसे माहौल के अनुरूप नही मान रहे जबकि मुझे आपकी यह पोस्ट एकदम प्रासंगिक लगाती है।
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हमारा एकाग्रता का समय और काल इतना छोटा होता है कि कोई भी बात पूर्णरूपेण समझ ही नहीं पाते। पर फिर भी हम बुद्धिजीवी की जमात में बैठने की हसरत रखते हैं। ज्ञान जी क्या जबरदस्त ज्ञान की बात कही है, विकास के साथ शायद इन्हें भी एक दिन कुछ ओर काम देखना पड़े।
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विकास के साथ ये चिंदिंयां बटोरनेवाले भी एक दिन विलुप्त हो जाएंगे। बस 10-15 सालों की बात है।
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