वैसे तो हम सभी चिन्दियाँ बीनने वाले हैं – विजुअल रैगपिकर (visual rag picker)। किसी भी दृष्य को समग्रता से ग्रहण और आत्मसात नहीं करते। उतना ही ग्रहण करते हैं जितने से काम चल जाये। बार-बार देखने पर भी किसी विषय के सभी पक्षों को देखते-परखते नहीं। हमारा एकाग्रता का समय और काल इतना छोटा होता है कि कोई भी बात पूर्णरूपेण समझ ही नहीं पाते। पर फिर भी हम बुद्धिजीवी की जमात में बैठने की हसरत रखते हैं।

इसके उलट भौतिक जगत में चिन्दियां बीनने वाला जो कूड़े-कचरे की रीसाइकल इण्डस्ट्री का मुख्य तत्व है; हम सब की हिकारत और दुरदुराहट का पात्र है।
चिन्दियाँ बीनने वाला बच्चा
—- केरोल एजकॉक्स की कविता के अंश का भावानुवाद |
दीपावली के बाद ये चिन्दियाँ बीनने वाले सामान्य से ज्यादा सक्रिय नजर आये। बाकी लोग अलसाये थे। सवेरे घूमने वालों की भीड़ जरा भी न थी सामान्य की तुलना में। पर चिन्दियाँ बीनने वाले सामान्य से ज्यादा सक्रिय नजर आ रहे थे। ध्यान से देखने पर पता चला कि वे फुलझड़ी के तार में रुचि रख रहे हैं। तार का धात्वीय तत्व – शायद अच्छे भाव बिकता हो कबाड़ में। दीपावली के तीन दिन बाद एक भी चिन्दियाँ बीनने वाला न दिखा। सारी फुलझड़ी के तार जो बीन लिये जा चुके!
चिन्दियाँ बीनने वाले 10-18 साल के लगते हैं। कई दिनों से बिना नहाये। सवेरे जल्दी उठने वाले। आर्थिक रूप से इतने दयनीय लगते हैं कि कबाड़ी जरूर इनका शोषण करता होगा। औने-पौने भाव पर कबाड़ इनसे लेता होगा। और शायद पूरे पैसे भी एक मुश्त न देता होगा – जिससे कि वह अगली बार भी कबाड़ ले कर उसी के पास आये।
मेरा अन्दाज यह है कि जो पैसे इन्हें मिलते भी होंगे, उसका बड़ा हिस्सा जुआ और नशे में चला जाता होगा। बहुत कम पैसा और बहुत अधिक समय शायद इनके सबसे बड़े दुश्मन हैं। फिर भी इनको मैं सम्मान की दृष्टि से देखता हूं। ये भिखारी नहीं हैं और पर्यावरण साफ रखने में इनकी अपनी भूमिका है।
क्या विचार है आपका?
माफ़ करियेगा पिछली बार यह लिंक देना भूल गया था!http://en.wikipedia.org/wiki/Windows_Alt_keycodes
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लेख में आपकी संवेदनशीलता उभर आई है .. इससे पहले कि मैं अपराध भाव से ग्रस्त हूँ – निकल लो !बाकी बात रही वह फोल्डर डिलीट वाली.. यह ट्रिक हम कॉलेज मैं अपनाया करते थे – किसलिए यह मैं आपकी कल्पना पर छोड़ता हूँ 😉 दरअसल (alt + 4 digit number) दबाने से एक स्पेशल चेरेक्टेर पैदा होता है उदाहरण के लिए alt + 0169 दबाने पर कॉपीराइट वाला संकेताक्षर उत्पन्न होता है. इसी तरह से alt + 0160 से स्पेस ‘ ‘ पैदा हुआ जो कि अब दिख नहीं रहा . जानने के लिए देखिये .रही बात उसे डिलीट करने की तो यदि आपको याद है की आपने वह फोल्डर कहाँ पर बनाया था तो वहाँ जा कर F5 (refresh) का बटन दबाइए – इससे वह फोल्डर एक क्षण के लिए दिखाई देगा. फ़िर आप उसे डिलीट कर सकते हैं ! अभी तो मुझे यह छुट्टन सा तरीका ही याद आ रहा है अगर काम नहीं करता है तो बताइए फ़िर कुछ सोचना पड़ेगा.
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ज्ञान जी , पहले तनाव की बोगी न चलने का वचन दे चुके हैं इसलिए बस यही कहेंगे कि समय न मिलने के कारण बाल दिवस और आपके जन्म दिवस पर यह मार्मिक रचना पढ़ने का अवसर मिला. आपकी पैनी नज़र हर दिशा को छू लेती है. आपको नतमस्तक प्रणाम !
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“किसी भी दृष्य को समग्रता से ग्रहण और आत्मसात नहीं करते। उतना ही ग्रहण करते हैं जितने से काम चल जाये। बार-बार देखने पर भी किसी विषय के सभी पक्षों को देखते-परखते नहीं। हमारा एकाग्रता का समय और काल इतना छोटा होता है कि कोई भी बात पूर्णरूपेण समझ ही नहीं पाते। “लगता है मेरे मनोविज्ञान के लेक्चर का हिन्दी अनुवाद हो रहा है। कितने क्षेत्रों में महारत हासिल की है जी। और इस बार तो कविता भी है, फ़ोटू, कविता, पूरे मसाले हैं। वैसे दाद देनी पड़ेगी आप साधारण सी चीजों को भी अपनी पारखी नजर से बीन लेते है फ़िर असाधाराण संवेदना की पॉलिश लगा कर ऐसा चमका देते है कि कहना ही पड़ता है- वाह्…।जहां तक बहुत कम पैसा और बहुत अधिक समय की बात है, बम्बई का अनुभव ये है कि ये बच्चे इतने हौशियार होते हैं कि कबाड़ी इन्हें उल्लु नहीं बना सकता। खूब कमाते है और खूब खर्च करते है क्योंकि इनके पास कोई सुरक्षित जगह नहीं होती पैसा जमा करने की।ज्यादातर पैसा दवाइयों में जाता है (सफ़ाई के अभाव में त्वचा रोग से अकसर पीड़ीत रहते है),रोटी का जुगाड़ तो हॉटेलों के बचे हुए खाने से, ठेले वालों से नहीं तो यहां का प्रसिद्ध वड़ा पाव खा के कर लेते हैं।
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बढ़िया है। सबेरे पढ़ा था। अभी सबेरे के पहले टिपिया रहे हैं। आलोक पुराणिक की बाद काबिले गौर है जी। हम सब कबाड़ी हैं जी। बचपन से एकाध साल गर्मी की छुट्टियों में अपने एक दोस्त के साथ बिजली की बंद दुकानों के बाहर हम तांबे का के तार बटोर के बेचते थे और बेंच के कम्पट,टाफ़ी खाते थे। 🙂
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ज्ञानदत्त जी, दिल को छू गयी आपकी बातें. देखते तो सभी हैं उनको पर कभी कभार चाह कर भी उनके लिए कुछ नहीं कर पाते सिर्फ़ ये सोच कर की ये सब कुछ जो दिख रहा है किसी एक बड़े से सिस्टम का हिस्सा है… व्यक्तिगत अनुभव मेरा इतना बुरा है की आपसे क्या कहू.. काफी पहले ऐसा ही एक बच्चा हमारे घर अक्सर आ जाया करता था और हम उसे शाम के वक्त कुछ ना कुछ खाने को दे दिया करते थे. एकदिन उसका मालिक आया और हम सभी को धमकाते हुए बोला की खबरदार जो आज के बाद इस्सकी तरफ़ देखा भी. हमारी वजह से साला काम नहीं करता है आजकल ठीक से. फ़िर लगभग उसे पीटते घसीटते ले गया.
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आपकी सम्वेदनशीलता वाक़ई क़ाबिले-तारीफ़ है। वरना मुझे अक्सर कूड़ा बीनने वाले दिखते ही नहीं हैं। या यह भी हो सकता है कि ये सब देखने के लिए सुबह-सुबह आँख ही नहीं खुलती है।
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भई भौत बढिया। हम सब कबाड़ी ही हैं जी। कहीं से अनुभव कबाड़ते हैं, कहीं से भाषा। फिर लिख देते हैं। आदरणीय परसाईजी की एक रचना जेबकटी पर है। जिसमें उन्होने जेबकट के प्रति बहुत ही संवेदना दरशाते हुए लिखा है कि लेखक और जेबकट में कई समानताएं होती हैं। लेखक और कबाड़ी में भी कई समानता होती हैं।अब तो आप धुरंधर कोटि के लेखक हो लिये जी। जब कबाड़े से भी बंदा पोस्ट कबाड़ ले, तो क्या कहना।
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कोई माने या न माने, कहे या न कहे, सहे या न सहे पर यह दिख रहा है कि आपके लेखन मे पैनापन आ रहा है। पाठको का कहना गलत नही है। शुभकामनाए। निश्चय ही दूसरो की मेहनत पर वाहवाही लूट्ने का स्वप्न देखने वाले ब्लागर इससे प्रेरणा लेंगे। और अपना कुछ लिखेंगे।
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आपकी मानसिक हलचल ऐसी ही बनी रहे और उस पर आपका पूर्णरुपेण नियंत्रण कभी न हो ताकि आप डिमांड के आधार पर न लिखे, बल्कि वही लिखें जो आप की मानसिक हलचल लिखना चाहे!!आपकी यह पोस्ट पढ़ने से कुछ देर पहले ही मैने स्थानीय अखबार में नक्सली इलाके बस्तर के नारायणपुर की एक खबर पढ़ी। खबर के मुताबिक–” एक महिला के पति का निधन सरकारी अस्पताल में हो गया, गरीबी इतनी कि शव जलाने के पैसे नही, दिन भर जुगाड़ करने के बाद रात आठ बजे कहीं से हाथठेला लाई और शव ले गई, दूसरे दिन सुबह से दोपहर तक फ़िर जुगाड़ करने पे एक ठेकेदार ने 500 रुपए दिए, जिससे वनविभाग के डिपो से शव जलाने की लकड़ियां खरीदी जो कि गीली और नाकाफ़ी थी, और पैसे का जुगाड़ नही हुआ, अंतत: उस महिला ने शम्शान घाट पर अन्य चिताओं में पड़ी अधजली लकड़ियों को बटोरा और फ़िर एक कबाड़ी ने कुछ दया दिखाते हुए मिट्टी तेल ( केरोसिन) दे दिया, तब जाकर उस महिला ने अपने पति का अंतिम संस्कार किया!!
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