नजीर मियाँ की खिचड़ी


यह रीता पाण्डेय की अतिथि पोस्ट है। जब पत्नीजी की पोस्ट है तो उसे अतिथि पोस्ट क्या, पारिवारिक पोस्ट कहा जाये! यह उनकी बचपन में हुई धुनाई का बेबाक विवरण है। रीता पाण्डेय ने इसे कागज पर लिखा है। अत: पोस्ट को मैने उतारा है कीबोर्ड पर। 
आप पोस्ट पढ़ें। आपकी प्रतिक्रियाओं पर निर्भर करेगा की आगे इस प्रकार की पारिवारिक पोस्टें होंगी या नहीं। 


मेरे पति को खिचड़ी बहुत पसंद है। या यूं कहें तो उन्हें खिचड़ी की चर्चा करना बहुत अच्छा लगता है। ऐसी किसी चर्चा पर मुझे नजीर मियां की खिचड़ी की याद आ गयी और उससे जुड़ी बचपन की बहुत सी यादें बादलों की तरह मन में घुमड़ने लगीं।

नजीर मियां मेरे ननिहाल गंगापुर में एक जुलाहा परिवार के थे। गंगापुर बनारस से १५ किलोमीटर दूर इलाहाबाद की ओर जीटी रोड से थोड़ा हट कर है। मेरा बचपन अपनी नानी के साथ बीता है। सो मैं गंगापुर में बहुत रहती थी।

गर्मियों में बच्चों की बड़ी फौज इकठ्ठा होती थी वहां पर। रिश्ते में वे सब मेरे मामा मौसी लगते थे पर थे मेरी उम्र के। उनके साथ समय कैसे बीत जाता था कि पता ही नहीं चलता था। हम बच्चों की कमान मुन्नू मामा के हाथ होती थी, जो मेरे नानाजी के बड़े भाई का सबसे छोटा बेटा था और मुझसे केवल ६ महीने बड़ा था। मैं उनके बीच वी.आई.पी. की तरह रहती थी। हमारा पूरा दिन फार्म (जहां कच्ची चीनी, तेल पिराई और धान कूटने की मशीनें थीं) और लंगड़ा आम के बाग में बीतता था।

नजीर मियां मेरे नाना के लंगड़ा आम के बाग का सीजन का ठेका लेते थे। उनका पूरा परिवार आम की रखवाली के काम में लगा रहता था। जब आम का सीजन नहीं होता था तब नजीर मियां और उनका परिवार साड़ियां बुनता था। औरतें धागे रंगती, सुखाती और चरखी पर चढ़ाती थीं। फिर आदमी लोग उसे करघे पर चढ़ा कर ताना-बाना तैयार करते। बच्चे उनकी मदद करते। चार-पांच करघों पर एक साथ साड़ियां बुनते देखना और करघों की खटर-पटर संगीतमय लगती थी।

जब आम के बौर लगते थे तो बाग का सौदा तय होता था। लगभग ४०० रुपये और दो सैंकड़ा आम पर। नजीर मियां का पूरा परिवार रात में बाग में सोता था। औरतें रात का खाना बना कर घर से ले जाती थीं। उसमें होती थीं मोटी-मोटी रोटियां, लहसुन मिर्च की चटनी और मिर्च मसालों से लाल हुई आलू की सब्जी। दिन में बाग में रहने वाले एक दो आदमी वहीं ईटों का चूल्हा बना, सूखी लकड़ियां बीन, मिट्टी की हांड़ी में खिचड़ी बना लेते थे।

खिचड़ी की सुगंध हम बच्चों को चूल्हे तक खींच लाती थी। पत्तल पर मुन्नू मामा तो अक्सर खिचड़ी खाया करता था। एक आध बार मैने भी स्वाद लिया। पर मुझे सख्त हिदायत के साथ खिचड़ी मिलती थी कि यह दारोगाजी (मेरे नाना – जो पुलीस में अफसर हो गये थे, पर दारोगा ही कहे जाते थे) को पता नहीं चलना चाहिये।

और कभी पता चलता भी नहीं दारोगा जी को; पर एक दिन मेरी और मुन्नू में लड़ाई हो गयी। मुन्नू के मैने बड़े ढ़ेले से मार दिया। घर लौटने पर मुन्नू ने मेरी नानी से शिकायत कर दी। मारने की नहीं। इस बात की कि “चाची बेबी ने नजीर मियां की हंडिया से खिचड़ी खाई है”।

बाप रे बाप! कोहराम मच गया। नानी ने मेरी चोटी पकड़ कर खींचा। दो झापड़ लगाये। और खींच कर आंगन में गड़े हैण्ड पम्प के नीचे मुझे पटक दिया। धाड़ धाड़ कर हैण्ड पम्प चलाने लगीं मुझे नहला कर शुद्ध करने के लिये। चारों तरफ से कई आवाजें आने लगीं – “ननिहाल मे रह कर लड़की बह गयी है। नाक कटवा देगी। इसको तो वापस इसके मां के हवाले कर दो। नहीं तो ससुराल जाने लायक भी नहीं रहेगी!” दूसरी तरफ एक और तूफान खड़ा हुआ। बड़ी नानी मुन्नू मामा को ड़ण्डे से पीटने लगीं – “ये करियवा ही ले कर गया होगा। कलुआ खुद तो आवारा है ही, सब को आवारा कर देगा।“ मुन्नू मामा के दहाड़ दहाड़ कर रोने से घर के बाहर से नानाजी लोग अंदर आये और बीच बचाव किया। पुरुषों के अनुसार तो यह अपराध था ही नहीं।

नजीर के पिताजी, हाजी मियां सम्मानित व्यक्ति थे। हमारे घर में उठना-बैठना था। रात का तूफान रात में ही समाप्त हो गया।

मेरे पास लूडो था और मुन्नू के पास कंचे। सो दोस्ती होने में देर नहीं लगी। अगले ही दिन शाम को हम फिर नजीर मियां के पास बाग में थे। उनकी मोटी रोटी और लहसुन की चटनी की ओर ललचाती नजरों से देखते। … क्या बतायें नजीर मियां की खिचड़ी और लहसुन की चटनी की गंध तो अब भी मन में बसी है।

नजीर मियां ने शिफ़ान की दो साड़ियां मुझे बुन कर दी थीं। उसमें से एक मेरी लड़की वाणी उड़ा ले गयी। एक मेरे पास है। नजीर मियां इस दुनियां में नहीं हैं; पर उनकी बुनी साड़ी और खिचड़ी का स्वाद मन में जरूर है।


रीता पाण्डेय


गांवों में धर्म-जातिगत दीवारें थी और हैं। पर व्यक्ति की अपनी सज्जनता सब पर भारी पड़ती है। और बच्चे तो यह भेद मानते नहीं; अगर उन्हें बारबार मार-पीट कर फण्डामेण्टलिस्ट न बनाया जाये। अच्छा था कि रीता के नाना लोगों में धर्म भेद कट्टर नहीं था। तब से अब तक और भी परिवर्तन हुआ होगा।

हां, अब मुन्नू मामा भी नहीं हैं। दो साल पहले उनका असामयिक निधन हो गया था। रीता तब बहुत दुखी थी। इस पोस्ट से पता चलता है कि कितना गहरा रहा होगा वह दुख।


    

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

28 thoughts on “नजीर मियाँ की खिचड़ी

  1. भाभी जी प्रणाम !अब हप्‍ते में कम से कम एक ठो पोस्‍ट आप स्‍वयं लिखा करें । सामान्‍य शव्‍दों में पूरी एक कहानी सुना दी आपने पूरी लयबद्धता के साथ एक मंजे हुए ब्‍लागर्स की तरह । गांव से जुडी स्‍मृतियों को पढते हुए मन उन भावों को स्‍वयं के रूप में आत्‍मसाध करता है, शायद इसी कारण गॉंव व बचपन की यादें सबको पसंद आती हैं । धन्‍यवाद ।

    Like

  2. Reeta di,aapki post ne mujhey merey nanihaal” KANNAUJ” ke aam ke baagon me pahunchaa diyaa…bahut sundar varnan…shukriyaa

    Like

  3. पहले ही मैच में सेंचुरी….पोस्‍ट बहुत अच्‍छी लगी. नजीर मियां की लहसुन की चटनी और खिचड़ी खाने का मन कर रहा है. आगे भी ऐसी पारिवारिक पोस्‍टें पढ़वाते रहिएगा.

    Like

  4. भैया, आपको खिचडी क्या इसलिए पसंद है कि भाभी को भी पसंद है. और वो भी बचपन से….:-)बहुत ही बढ़िया पोस्ट है. गावों में धर्म और जाति को लेकर ये सबकुछ होता है अभी भी. हमारे दादाजी के एक मित्र थे, जनाब सरवर हुसैन साहब. वे जब भी हमारे घर आते, तो हम उन्हें इतना सम्मान देते कि उनके सामने खटिया पर बैठते भी नहीं थे. ददाजी के सबसे बढ़िया सलाहकार.वे जब भी हमारे घर आते तो हम बच्चे उन्हें घेर कर खड़े हो जाते. उनसे शेर सुनाने की गुजारिश करते. और वे हमें शेर हमेशा सुनाते. एक शेर जो सबसे ज्यादा सुनाते, वो था..फानोश बनकर जिसकी हिफाजत ख़ुद हवा करेआर वो शमा क्या बुझे, जिसे रोशन ख़ुद खुदा करे…हमलोग मुहर्रम में लगने वाले मेले में जब जाते, तो वे हमारी देखभाल करते. हमें मेले में होने वाले ‘गतके’ को नजदीक से दिखाते. मिठाइयां खिलाते. हमलोग आजतक उन्हें नहीं भूल पाये हैं. क्योंकि उतने बढ़िया इंसान मैंने बहुत कम देखे हैं..

    Like

  5. हिन्दी की ” चीं चीं चक्कलस ” मे आप का स्वागत है रीता जी यहाँ सब एक ही परिवार के सदस्य है इसलिये चीं चीं चक्कलस कुछ ज्यादा ही हैं । पड़ोस मे क्या पक रहा है सबको पता होना चाहीये सो आप को भी बताने को प्ररित किया इस परिवार ने । आप गणतंत्र दिवस पर आयी है सो कुछ बदलाव नज़र आने लगा हैं ।प्यार सहित रचना

    Like

  6. सर्व प्रथम गणतंत्र दिवस की बधाई, आपकी परिवारिक पोष्‍ट सुखद रही, अच्‍छा लगा कि लेखन का कीड़ा हर दिल में है। आगे भी इंतजार रहेगा।

    Like

  7. गजब। रीता जी ने क्या शब्द बांधे हैं। मुन्नू मामा से लेकर नज़ीर मियां और पिटाई की सारा वीडियो आंखों में चल गया।शिव कुमार जी ने जिस तरह सरवर हुसैन साहब का किस्सा बयां किया है, वह दिखाता है कि जेहनी फासले हम में नहीं थे। सोचिए, राजनीति वालों ने हमारी प्यार-मोहब्बत का कैसे गला रेता है। मुझे भी अपना दोस्त कलीम बहुत याद आता है जिसकी अम्मी मुझे कलीम से भी ज्यादा मानती थीं। कलीम इस दुनिया में नहीं है। भिवंडी में लूम पर काम करता था। दमा हुआ, फिर टीबी हो गई और तीन साल पहले गांव में जाकर मर गया।

    Like

  8. रीटा जी, आप की लिखी पोस्ट बेहद उम्दा थी…शायद नज़ीर मियां की खिलाई हुई खिचड़ी का असर है। आपने तो चंद ही लफ्ज़ों में अपने सुंदर बचपन का सारा वर्णऩ ही कर डाला। आदरणीय पांडेय जी को कहिएगा कि ऐसी पारिवारिक पोस्टों की हम सब को आगे भी इंतज़ार रहेगी। लेकिन अफसोस यही हो रहा कि काश, हम अपने बच्चों को भी आज किसी ऐसे ही नज़ीर मियां की खिचड़ी खिला पाते। मैडम, हम जान सकते हैं कि आप उस महान आत्मा द्वारा भेंट की गई साड़ी के प्रति कितनी भावुक होंगी….बस और कुछ नहीं, आज गणतंत्र दिवस के दिन जब सुबह सुबह ऐसी उम्दा पोस्ट पढने को मिली है तो यह हमें आपसी भाईचारे के भी कितने पाठ पढ़ा गई। आभाऱ एवं शुभकामनाएं।।।

    Like

Leave a reply to Parul Cancel reply

Discover more from मानसिक हलचल

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading

Design a site like this with WordPress.com
Get started