पानी की सुराही बनाम पानी का माफिया


पानी के पुराने प्रबन्धन के तरीके विलुप्त होते जा रहे हैं। नये तरीकों में जल और जीवों के प्रति प्रेम कम; पैसा कमाने की प्रवृत्ति ज्यादा है। प्रकृति के यह स्रोत जैसे जैसे विरल होते जायेंगे, वैसे वैसे उनका व्यवसायीकरण बढ़ता जायेगा। आज पानी के साथ है; कल हवा के साथ होगा।

और जल पर यह चर्चा आज की श्री पंकज अवधिया की बुधवासरीय अतिथि पोस्ट का विषय है। आप पोस्ट पढ़ें:


पिछले साल मेरे एक मित्र ने पहली बार हवाई यात्रा करने का मन बनाया। सामान लेकर हवाई अड्डे पहुँचे तो बखेडा खडा हो गया। सुरक्षा कर्मी आ गये। गर्मी के दिन थे इसलिये रेल यात्रा करने वाले मित्र ने सुराही रख ली थी। अब विमान कम्पनी वाले यात्री केबिन मे इसकी अनुमति दे तो कैसे दें। उनकी नियमावली मे भी सुराही का जिक्र नही था। मित्र ने पूछा ये भारत ही है न? यदि हाँ, तो सुराही मे पानी रखने मे भला क्या आपत्ति? सुरक्षा कर्मियो ने खूब जाँच की और विमर्श भी किया। आखिर उनसे उनकी सुराही ले ली गयी। मित्र बोतल का पानी नही पीते हैं। इसलिये उन्हे बडी परेशानी हुयी। यह बडा ही अजीबोगरीब वाक्या लगा सभी को। दूसरे यात्री उन्हे देहाती समझते रहे पर आप इस पर गहनता से विचार करेंगे तो इस तथाकथित देहाती को ही सही पायेंगे।

मैने बचपन मे सुराही के साथ यात्रा की, पर पता नही कब देखते-देखते यह हमारे बीच से गायब हो गयी। अब तो रेलो मे भी इक्का-दुक्का लोगो के पास ही यह दिखती है। गर्मी पहले भी पडती थी। तो क्या पहले हम मजबूत थे और अब नाजुक हो गये हैं? सुराही का पानी ठंडा होता था और प्यास को बुझाता था। एक पूरी पीढी हमारे सामने है जिसने घड़े और सुराही का पानी पीया है गर्मियो में। उनके अभी भी बाल हैं, वे अच्छी सेहत वाले हैं और बीमारियाँ उनसे दूर है पर युवा पीढी सुराही और घड़े से दूर होती जा रही है और नये-नये रोगो के पास।

अभी कुछ ही वर्षो पहले तक अखबारो मे छपता था कि फलाँ क्लब ने प्याऊ खुलवाया जिससे राहगीरो को सड़क चलते पानी मिल सके। पर अब ऐसी खबरे और प्याऊ दोनो ही कम होते जा रहे है। पिछले वर्ष जब हमने अपने घर के सामने प्याऊ खोलने का मन बनाया तो इसकी भनक लगते ही एक व्यक्ति आ धमका और कहा कि आप प्याऊ खोलेंगे तो हमसे पानी का पाउच कौन खरीदेगा? हम अपनी जिद पर अड़े रहे तो वह नगर निगम के कर्मचारियों को ले आया और वे नियम का हवाला देने लगे। यहाँ तक कह दिया कि यदि कोई पानी पीने से मर गया तो आप पर केस बनेगा। बाद मे पता चला कि पूरे शहर मे पानी माफिया का राज है और कहीं प्याऊ खोल पाना मुश्किल है। एक रास्ता है यदि आप प्याऊ मे घड़े की जगह उसके पाउच रखेंगे तो फिर कोई परेशानी नही है।

मै दूरस्थ क्षेत्रो मे जाता हूँ तो वनवासियो की सहृदयता देखकर अभिभूत हो जाता हूँ। पानी तो पिलाते ही हैं साथ ही पुदीने का शरबत भी पेश करते हैं। देखते हैं कि भरी दोपहरी मे जंगल जा रहे हैं तो तेन्दु के कुछ फल भी दे देते है ताकि प्यास न लगे। वे अपने घरों मे मिट्टी के बर्तन लटका कर उसमे पानी भर देते हैं। दिन भार नाना प्रकार के पंछी आकर पानी पीते रहते हैं। कुछ दाने चावल के भी डाल देते हैं। शहर के लोग टीवी वाले बाबाओं के पास जिन्दगी भर जाकर जो पुण्य कमाते हैं ग्रामीण उसे एक पल मे ही प्राप्त कर लेते हैं। गाँव के बुजुर्ग कहते हैं कि हम दूसरो को पानी देंगे तो संकट मे हमे भी पानी मिलेगा अपने आप। सही भी है। जो पंछी पानी पीकर जीवित रहते है वे ही फल खाकर बीजों को फैलाते हैं और फिर नये वन तैयार होते हैं। ये वन ही बादलो को बुलाते हैं और गाँव वालो के लिये पानी बरसाते हैं। शहर का आदमी तो अपने तक सीमित रह गया है। दूसरों को कुछ देता नही तो उसे दूसरो से भला क्या मिलेगा? कल ही पानी वाले व्यक्ति अपने बच्चे के साथ आया। बच्चे को कम उम्र में कैसर हो गया है। लाखो खर्च कर चुके है और कुछ भी करने को तैयार है वह। मुझसे पारम्परिक चिकित्सकों का पता पूछने आया था। मैने उसकी मदद की और यही सोचता रहा कि आम लोगो की दुआए साथ होती तो हो सकता है कि बच्चा बीमार ही नही होता। उसने खूब पैसे कमाये और साथ मे “आहें” भी। आज सब कुछ पाकर भी वह सबसे गरीब हो गया है।

मैने विश्व साहित्य खंगाला कि शायद कही ऐसा वैज्ञानिक शोध मिल जाये जो बताये कि सुराही और घड़े का पानी अच्छी सेहत के लिये जरुरी है पर निराशा ही हाथ लगी। किसी ने इस पर शोध करने के रुचि नही दिखायी। आज की युवा पीढ़ी को वैज्ञानिक अनुमोदन चाहिये किसी भी पुरानी चीज को अपनाने से पहले। घर के बुजुर्गों की बात उन्हे नही सुननी है। घडे और सुराही के पानी के साथ देशी औषधियों के सेवन पर मेरे शोध आलेखो को पढने के बाद अब कई विदेशी संस्थाओं ने इस मूल्यवान पानी के बारे मे विचारना शुरु किया है। हमारे वैज्ञानिक अभी भी सो रहे हैं। शायद वे तब जागे जब बाजार मे चीनी और अमेरिकी घड़े बिकने लगें।

पंकज अवधिया
© इस लेख का सर्वाधिकार श्री पंकज अवधिया का है।


इलाहाबाद में घड़े-सुराही के चित्र के लिये बाजार देखा तो अच्छा लगा कि बहुत स्थानों पर कुम्हार लोग इनका ढ़ेर लगाये सड़कों के किनारे उपलब्ध थे। इसके अलावा गर्मी के सामान – ककड़ी-खीरा, गन्ने के रस के ठेले आदि विधिवत अपनी अपनी जगहें बना चुके थे। हां, कोई प्याऊ नहीं लगती दिखी। शायद कुछ समय बाद लगें।

मुझे अपने रतलाम के दिनों की याद है – जहां गर्मियों में स्टेशनों पर प्याऊ लगाने के लिये 25-50 आवेदन आया करते थे। यहां, पूर्वांचल की दशा के बारे में पता करूंगा।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

19 thoughts on “पानी की सुराही बनाम पानी का माफिया

  1. फ़्रिज के पानी से तृप्ति नही होती और ्कल 9 घंटे बिजली न होने की वजह से aquaguard भी जवाब दे चुका था ,घर का सारा पीने का पानी खत्म हुआ — हम रात मे जाकर एक बड़ा सा घड़ा खरीद लाये–छोटा पुत्र जिसने पहली बार ये पात्र देखा था खुशी के मारे उसे कुआँ -कुआँ कहने लगा । आज ही घड़े पे पोस्ट पढ़ कर अच्छा लगा ।

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  2. मैं भी सुराही और मटके घनघोर समर्थक हूंफ्रिज का पानी इत्ता ठंडा होता है कि तबीयत से पिया नहीं जाता। सुराही मध्यममार्ग है। सुराही और मटका एसोसियेशन को कुछ विज्ञापन वगैरह पर खर्च करना चाहिए। करीना कपूर को सुराही का पानी पीता दिखाना पड़ेगा, तब जाकर नयी पीढ़ी सुराही की ओर उन्मुख होगी।

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  3. घड़े और सुराही की बात निराली है। मिट्टी के इन बरतनों को उपयोग करने में थोड़ी सावधानी बरतें तो ये स्वस्थ बनाए रखते हैं। इन्हें झूठे और सकरे (किसी भी पदार्थ लगे। हाथों से बचाएं तो बहुत अच्छा। सफर के लिए सुराही ठीक क्यों कि इस में हाथ लगता ही नहीं। जब इस में पानी भरना हो तब ताजा पानी से इसे खंगाल कर भर लें कभी खराब नहीं होती। पानी के लवण से इस के छिद्र बंद हो जाएं तो बदल ड़ालें। हम तो घर पर मटके का पानी साल भर पीते हैं। अस्वास्थ्यकर बिलकुल नहीं है। हमारे यहाँ परांड़ी(पानी की मटकियां रखने का स्थान) की पूजा सबसे पहले होती है वहाँ देवताओं का निवास माना जाता है। दुल्हा दुल्हन से पहली बार उसी की पूजा कराई जाती है। नए घर में जाने पर या दीवाली और होली पर नयी मटकियों की पूजा सबसे पहले कर उन में पानी भरा जाता है। वे स्वास्थ्य के साथ साथ समृद्धि की भी प्रतीक हैं। घर से निकलते ही अथवा घर में प्रवेश के पहले पानी भरी मटकी लिए कोई मिल जाए तो उसे शुभ शकुन माना जाता है। और खाली मिले तो अशुभ। ऐसी अनेक बातें हैं। अनेक बातें हमें स्मरण ही नहीं आ रही हैं। शोभा से पूछ कर पोस्ट लिखी जा सकती है। ज्ञान भाई भी इस मामले में माताजी और रीता भाभी से पूछ कर हमारा ज्ञानवर्धन कर सकते हैं।

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  4. फ्रिज को कभी ठंडे पानी के लिए कभी इस्‍तेमाल नहीं किया । मटके जैसा स्‍वाद कहीं और नहीं ।

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  5. हम तो कई वर्ष पहले ही फ्रिज के पानी को बाय बाय कह कर मटके और सुराही पर लौट आए हैं. पंकज जी की सभी बातें सही हैं और कहीं कहीं चौंकाती भी हैं. वास्तव में पानी के पाउच ही सभी जगह नजर आने लगे हैं, इसके पीछे कोई माफिया हो सकता है कभी इस तरह से नहीं सोचा था.

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  6. मैंने कल ही सुराही खरीदी और आज ही सुराही पर यह बेहतरीन पोस्ट आ गयी -अच्छा संयोग !अब कौन यह बताएगा कि इसका नाम सुराही क्यों पडा और सौंदर्यशास्त्र मे इसका उल्लेख कब ,कहाँ और कैसे शुरू हुआ ?अगर किसी और ने नही तो कम से कम ज्ञान जी को तो बताना ही होगा .क्योंकि यह पन्ना तो उन्ही के द्वारा योजित है ?

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  7. बहुत अच्छा लेख है। पानी के प्याऊ जगह-जगह बनते थे। अब घरों से सुराहियां और घड़े गायब हो गये। फ़्रिज में बोतले आ गयीं हैं।

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  8. बेहतरीन लेख, पढ़ कर मुन्नाव्वर राना की ये पंक्तियाँ याद आ गयीं,उन घरों में जहाँ मिटटी के घडे रहते हैं,कद में छोटे हों मगर लोग बड़े रहते हैं,जो भी दौलत थी वो बच्चों के हवाले कर दी,जब तलक मैं नहीं बैठूं ये खड़े रहते हैं.पंकज अवधिया साहब को इतना सार्थक लेख लिखने के लिए बधाई और आपको धन्यवाद.

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