अपने ब्लॉग पर जिस विविधता की मैं आशा रखता हूं, वह बुधवासरीय अतिथि पोस्ट में श्री पंकज अवधिया पूरी कर रहे हैं। पिछली पोस्ट में जल-सुराही-प्याऊ-पानी के पाउच को लेकर उन्होने एक रोचक सामाजिक/आर्थिक परिवर्तन पर वर्तनी चलाई थी। आज वे अपशिष्ट पदार्थ के बायो डीग्रेडेशन और उसमें गुबरैले की महत्वपूर्ण भूमिका का विषय हमें स्पष्ट कर रहे हैं। उनके पुराने लेख आप पंकज अवधिया के लेबल सर्च से देख सकते हैं। आप लेख पढ़ें:
पिछले दिनों मै मुम्बई के सितारा होटल मे ठहरा। रात तीन बजे तेज बदबू से मेरी नींद खुल गयी। कारण जानना चाहा तो मुझे बताया गया कि ड्रेनेज की समस्या है। आपके कमरे मे रूम फ्रेशनर डलवा देता हूँ – मैनेजर ने कहा। रुम फ्रेशनर से कुछ ही समय मे गंध दब गयी। पर दिन भर इसका उपयोग करना पड़ा। यह दुर्गन्ध नयी नहीं है। पूरे भारतवर्ष मे इसे सूंघा जा सकता है। चाहे वो साधारण बस्ती हो या बडी हवेली के पिछवाडे हों। रायपुर में तो रात को नाक पर रुमाल रखे बिना कई आधुनिक कालोनियों से गुजरना मुश्किल है। बरसात मे जब नालियाँ भर जाती है तो यही पानी सड़को में आ जाता है और आम लोगों को मजबूरीवश उससे होकर गुजरना पड़ता है। बच्चे भी उसमे खेलते रहते हैं। मानव आबादी जैसे – जैसे बढ़ती जा रही है, यह समस्या भी बढ़ती जा रही है। मानव अपशिष्टों की दुर्गन्ध सहने की आदत अब लोग डालते जा रहे हैं। अब वे नाक पर रुमाल भी नही रखते। हल्ला भी नही मचाते और रुम फ्रेशनर डालकर सो जाते हैं। ये समस्या बहुत तेजी से बढ़ने वाली है। पर क्या इससे निपटने का कोई उपाय है ? देखिये अब सरकारों और योजनाकारों से उम्मीद करना बेकार है। उनके भरोसे तो अब तक हम हैं ही।
आपने गोबर की खाद का नाम तो सुना ही होगा। गोबर अपने आप सड़ता है धीरे – धीरे और अंत मे पूरी तरह सड़कर गन्ध विहीन उपयोगी खाद मे परिवर्तित हो जाता है। यदि इस प्रक्रिया को तेज करना है तो इसमे कुछ ऐसे द्रव डाले जाते है जिनसे सड़ाने वाले सूक्षमजीवो की हलचल बढ जाती है। इससे कुछ ही समय मे सड़न की प्रक्रिया पूरी हो जाती है। कुछ वर्षों पहले जापान के वैज्ञानिको ने ई . एम . ( इफेक्टीव माइक्रोआरगेनिज्म ) नामक तकनीक निकाली थी। उनका दावा था कि आप सूक्ष्मजीवो के घोल को किसी अपशिष्ट में डाल दें तो वह उसे कुछ ही दिनो मे पूरी तरह सड़ा देगा। मानव जनित अपशिष्टों के लिये यह वरदान लगा। पर जापानी सूक्ष्मजीव भारतीय परिस्थितियों मे ज्यादा कारगर नहीं साबित हुये। फिर इस पर भारत मे शोध नहीं हुये और यह तकनीक हाशिये में चली गयी। इस पर आधारित मैने कई प्रयोग किये।
हमारी बदबूदार नालियों मे सूक्ष्मजीव पहले से हैं पर उनकी संख्या इतनी नही है कि वे लगातार आ रहे अपशिष्ट को पूरी तरह सड़ा सकें। मैने बतौर प्रयोग छाछ से लेकर बहुत सी वनस्पतियाँ डालीं जो कि सूक्ष्मजीवों की हलचल को बढाने मे सक्षम थी। इससे उत्साहवर्धक परिणाम मिले। पहले दिन बदबू बहुत बढ गयी पर कुछ ही समय मे इससे निजात मिल गयी। वनस्पतियाँ आस – पास ही उगती हैं अत : उन्हे एकत्र करने मे दिक्कत नही होती है। प्रयोग तो अब भी जारी हैं पर इस लेख के माध्यम से इसे सामने रखकर मैं आप लोगो की राय जानना चाहता हूँ। यह प्रयोग बहुत सस्ता है और प्रभावी तो है ही। चोक हो चुकी नालियों मे यह अधिक उपयोगी है।
गुबरैले के चित्र, जानकारी, वीडियो और ई-कार्ड नेशनल ज्योग्राफिक पर यहां पायें।
मुझे पता नही आपमे से कितने लोगो ने गुबरैले का नाम सुना है या इन्हे देखा है। ये प्रकृति के सफाई कर्मचारी हैं। इनके बारे मे कहा जाता है कि यदि ये न होते तो अफ्रीका के जंगल अब तक जानवरों मे मल की कई परतों मे दब चुके होते। हमने अपने शहर से इन सफाई कर्मचारियों को भगा दिया है। हम इन्हे देखते ही चप्पल उठा लेते हैं और मारने मे देर नही करते हैं। ये गुबरैले ( डंग बीटल ) मल को गेंद की शक्ल देकर लुढ़काते हुये ले जाते हैं और अपनी प्रेमिका को दिखाते हैं। बडी गेंद लाने वाले प्रेमी को पसन्द किया जाता है। मादायें गेंद रुपी उपहार लेकर मिट्टी में दबा देती हैं, फिर उसी मे अंडे देती हैं ताकि बच्चो के बाहर निकलने पर भोजन की कमी न रहे। विश्व के बहुत से देशों मे मानव की गन्दगी से निपटने अब इन मुफ्त के सफाई कर्मचारियो को वापस बुलाया जा रहा है। भारत में भी इनकी जरुरत है। ये मनुष्यों को नुकसान नही पहुँचाते हैं और अपने आप बढ़ते रहते हैं। ये चौबीसों घंटे काम करते हैं – बिना अवकाश के। वेतन बढ़ाने की माँग भी नही करते हैं और किसी तरह की हडताल भी नहीं।
देश को इस बदबू से मुफ्त मे सेवा देने वाले सूक्ष्मजीव और गुबरैले ही मुक्त करा सकते है, ऐसा प्रतीत होता है।
आप गुबरैले का एक स्पष्ट चित्र ईकोपोर्ट पर यहां देख सकते हैं। गुबरैले का जीवन चक्र आपको चित्र के आधार पर ईकोपोर्ट में यहां समझाया गया मिलेगा।
पंकज अवधिया
© इस लेख पर सर्वाधिकार श्री पंकज अवधिया का है।
यू-ट्यूब पर उपलब्ध गुबरैले पर वीडियो:
इसे आप पूरा देखें तो पता चलता है कि कितना मेहनती है गुबरैला। और तब आप इस जीव को सम्मान से देखेंगे।
और प्रकृति में गुबरैले की महत्वपूर्ण भूमिका के विषय में क्वाजुलू, नटाल, दक्षिण अफ्रीका के हाथी अभयारण्य के सन 2002 में खींचे इस चित्र से बेहतर मुझे कोई प्रस्तुति नहीं लगती। यह चित्र एण्डी नामक सज्जन ने खींचा। मैने उन्हे ई-मेल किया चित्र को ब्लॉग पर दिखाने को, पर उत्तर नहीं मिला। सन 2002 के बाद शायद एण्डी मूव कर गये हों। चित्र अपने आप में पूरी बात कहता है। आप चित्र देखें:
(चेतावनी – गुबरैलों को रास्ते पर पहला अधिकार है! )
अब तो लगता है गुबरैले ख़त्म ही होते जा रहे हैं.
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bahut badhiya….jankari ke liye shukriya…
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वाकई एक महती जानकारी, शुक्रिया!!
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प्रकृति में हो रही प्रक्रिया से छेड़खान करके असंतुलित करना तो मनुष्य की आदत रही है… और फिर एक बार असंतुलन हो गया तो उससे बचने का उपाय खोजो… पर ये उपाय कैसे होते हैं ये तो आपके पोस्ट में ही है… रूम फ्रेशनर से रूम फ्रेश कहाँ होता है बस दुर्गन्ध पर परदा डाल दिया जाता है… उसमें केमिकल की खुशबू मिला दी जाती है… पर साथ में हवा में दुर्गन्ध तो होती ही है, जो साँस में भी जाती है बस… एक परदे में छुपकर.
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गुबाइला के विषय में पहली बार जाना, बड़ी रोचक जानकारी दी है. आभार.
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रायपुर की बद्बुओं का तो क्या कहना। मैं भी वहाँ १९९५ में तीन महीने रहा था।
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आप केचुओ को भूल गये ,दोनो मेहनती और साफ़ सुथरे पर्यावरण को देने मे सक्षम है दोनो की मेहनत से के बाद हमे मिलने वाला अन्न भी स्वास्थ वर्धक होता है ,लेकिन हम तो विदेशी दवाओ का प्रयोग बढा कर इनकी हत्याओ मे सहभागी बन रहे है
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गुबरैले के जरुरत सिर्फ कालोनियों में ही नहीं, देश की पालिटिक्स, ब्यूरोक्रेसी को भी इसकी सख्त जरुरत है।
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जानकारी परक और रोचक , एक से बढ़ कर अजूबे भरे पड़े हैं पर हम प्रकृति पर्यवेक्षण करते ही कहा हैं !पंकज जी मान गए उस्ताद आपको ..यह एक पोस्ट कितनों ही हिन्दी ब्लॉग पोस्टों पर भारी है .
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लाइए गुबरैला जल्दी, हिन्दुस्तान को इस की सख्त आवश्यकता है।
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