मैं रोज सवेरे शाम दफ्तर आते जाते अनेक पशु-पक्षियों को देखता हूं। लोहे की जाली में या पगहे में बन्धे। उन सबका लोगों की मांग या इच्छा पर वध होना है। आज या कल। उन्होने जब जन्म लिया तो नेचुरल डेथ तक उनका जीने का अधिकार है – या नहीं? अगर है तो उनके साथ जस्टिस क्यों नहीं होता। प्रकृति जस्टिस क्यों नहीं करती?
और जिन लोगों की डिमाण्ड पर उनका वध होना है – उनमें से कई ह्यूमन जस्टिस के प्रबल समर्थक होंगे। वे लोग अपने अधिकारों की बात करते हैं। और न मिलने पर कहते हैं कि उनके साथ इंजस्टिस हो रहा है। बड़े-बड़े लिक्खाड़ और तथाकथित समाजवादी। उनके अनुसार मार्केट इकॉनमी गरीब और उनको दबा रही है। बहुत गलत बात। उनके साथ अन्याय है। पर मुर्गे या बकरे के साथ अन्याय कोई नहीं देखता।
एक छोटे अपराध के लिये एक छोटा आदमी जेल में सड़ता है लम्बे समय तक। पर सक्षम और धनी-कुलीनों को कुछ नहीं होता। यह आज की बात नहीं है और एक देश की बात नहीं है। सब प्रकार की व्यवस्थाओं में ऐसा होता है। इतिहास में अनेक उदाहरण हैं कि कोई राजा बना, अपने अनेक प्रतिस्पर्धियों को छल से मार कर। और फिर उसने न्याय की स्थापना की!
साफ-साफ बात हो ले। जस्टिस नेचर का कॉंसेप्ट नहीं है। जीव जीवस्य भोजनम। बड़ी मछली छोटी को खाती है। सबल निर्बल को दबेड़ता है। अपने आस-पास यह प्रचुर मात्रा में दीखता है। जो रिसीविंग एण्ड पर होता है – वह जस्टिस की बात करता है। इंसानियत की बात करता है। पर उसी निर्बल का जब अपर हैण्ड होता है, तब वह ऐसी बात पर नहीं सोचता।
हम अपनी निराशा या खिन्नता को जस्टीफाई भी इसी आधार पर करते हैं। समाज में जस्टिस की मांग करना मानसिक रुग्णता नहीं है। पर जब वह जस्टिस नहीं मिलता, या नहीं मिलता दीखता तो खिन्न/अप्रसन्न/अवसाद-ग्रस्त होना मानसिक रुग्णता है। यह मानसिक रुग्णता बहुत व्यापक है और औरों की क्या कहूं – मै बहुधा इसका मरीज हो जाता हूं। इंसाफ और इंसानियत के लिये औरों से अत्यधिक अपेक्षा रखना और तदानुसार परिणाम न मिलने पर सतत विलाप करना बड़मनई या बुद्धिमान के नहीं, संकुचित मनस्थिति वाले व्यक्ति लक्षण हैं।
अन्याय और अत्याचार व्यापक है। आप उसके खिलाफ बोलने या लड़ने का पुनीत संकल्प कर सकते हैं। आप उसके लिये सार्थक काम भी कर सकते हैं। पर आप उस आधार अपनी हताशा, निराशा और अवसाद को सही नहीं ठहरा सकते।
इसलिये कल आपको लगे कि आपके साथ अन्याय हो रहा है, आपके पुण्यात्मा होने पर भी भगवान आपको ही कष्ट दे रहे हैं; तो याद कीजिये – नेचुरल जस्टिस, माइ फुटµ (अर्थात न्याय, वह तो होता ही नहीं)। बस सिर झटकिये और काम पर लगिये!
क्षमा करें, मैं यह प्रवचन या आस्था चैनल के चक्कर में नहीं लिख रहा। मैं अपनी परेशानियों पर चिंतन कर रहा हूं तो उससे यह निकल कर आ रहा है। और जरूरी नहीं कि यह मेरे अंतिम विचार हों।
पर सोचा जाये – क्राइस्ट को कितना जस्टिस मिला? राम को कितना जस्टिस मिला? कारागार में जन्म लेने वाले कृष्ण को कितना जस्टिस मिला? और ये लोग केवल “नॉट फेयर; प्रारब्ध हमसे कितना अन्याय कर रहा है; यह तो हमारे साथ क्रूरता है नेचर की” कहते रहते तो आज कौन इनका नाम लेता! ऐसे ही रोते पीटते मर मरा जाते!
µ. My foot – something that you say after repeating something someone has just said, in order to show that you do not believe it. (Cambridge International Dictionary of Idioms © Cambridge University Press 1998)

आज का कडवा सच बयान किया है आपने। पर मुझे नही लगता कि मोटी चमडी वालो पर इससे कोई खास पडेगा। उन्हे अपना हित दिखेगा उसी पर बोलेंगे। बाकी सच से पर्दा किये रहेंगे।
LikeLike
ज्ञानदत्त जी ये प्रकति का नियम नही है ,ये इंसानों के बनाये हुए नियम है …वैसे भी अब हर आदमी छोटे मोटे अन्याय सहने का आदी हो गया है …यही खतरे की बात है ,अपनी न्याय प्रणाली से उम्मीद खोना यही खतरे की बात है……उठिए ओर मार भगायिये ,लतायिये इन साले गमो को …कृष्ण ,ईसा…बरसों बाद भी जिंदा तो है आपके मन मे,बाकि किस का नाम याद है आपको…..
LikeLike
न्याय की जगह अन्याय दुखी करता ही रहा है, इसीलिए क्रइस्ट, राम क्रष्ण जन्मे और आम इन्सान की तरह सब सहा यह जानने के लिए कि दुनियां कैसे कैसे लोगों से पटी है और फिर लगाम अपने हाथ लिया ,और हम सब उन्हीं के भरोसे है देर ही सही फिर जिसके पास सहने की ताकत है वह ईश्वर के करीब है ,यही कह सकती हूँ, खिन्नता के बावजूद ।
LikeLike
I empathize with you. What else we can do besides living what we believe. मन में काफी कुछ उफन रहा है पर कहने का कोई मतलब नहीं. बहरों की दुनिया में बज रहे नक्कारों के बीच हमारी तूती किसी को सुने नहीं देगी.
LikeLike
प्रक्रति हमेश न्याय करती है. प्रक़ति के ऐसे कार्य जो हमारे पक्ष में नहीं होते हैं, वे हमें अन्याय लगते है. कौन जीव किसके लिए भोजन है,प्रक्रत- संतुलन के लिए प्रक्रति ने ही निर्धारित किए हैं. इसलिए इस विषय में मेनकायी चिंता नहीं करनी चाहिए. इससे बड़ा चिंता का कारण सामाजिक न्याय है. वह भी अभी प्राप्त नहीं है.
LikeLike
आपने आज मेरी पसंद का विषय ऊठाया है ,मुझे अकसर यही लगता है ,कदम कदम पर जब भी मै किसी भी मसले को देखता हू तो यही समझ मे आता है कि सत्य भी हर एक का अपना होता है और न्याय भी,एक वो जो आपका सत्य है एक वो जो मेरा सत्य है और एक अंतिम सत्य जो वाकई मे सत्य होता है पर मेरे और आपके सत्य के बीच कही दम तोड देता है ,ठीक इसी तरह न्याय भी है वो चाहे मानव द्वारा किया गया हो या प्रकृती द्वारा,एक वो जो आप के लिये आपकी नजर मे न्याय है एक वो जो मेरॊ लिये मेरी नजर मे न्याय है और असली न्याय जो होना था जो नही हुआ उसकी हत्या हो चुकी होती है. लेकिन फ़िर भी जीवन चलता रहता है नया रास्ता ढूढ कर दो लाईने मेरी बहुत प्रिया है आपको भी सुना देता हू”तसवीर जिंदगी की बनाते है सब यहाजैसी जो चाहता हैमिलती है लेकिन कहाहर आरजू पूरी होहोता ऐसा अगर कांटो के साथ ना होता जीवन का ये सफ़र ” इसी लिये मै अब बहुत मुश्किल से गंभीर होता हू और अकसर आप लोगो के उठये गंभीर विषयो को हसी मे उडा कर चल देता हू,काहे सोचे ,हम कर भी क्या लेगे सिवाय अपना खून जलाने के :)
LikeLike
वैसे कई बार यही लगता है कि न्याय व्याय की जीत नहीं होती, ताकत की जीत होती है। ताकत कभी न्याय के साथ खड़ी हो सकती है, कभी अन्याय के साथ। पशु पक्षी ताकतवर थे, तब आदमी उनसे डरता था। अब तो शेरों को आदमियों से बचाने की चिंताएं हैं। ताकत के अलावा इस धरती पर दूसरा सत्य दिखायी नहीं पड़ता। करुणा, दया नैतिकता प्रवचन हैं, मन करें, तो ले लें, ना करे तो ना लें।
LikeLike
लगता है आप कनफुजिया-कम-सेंटिया गए हैं . मजबूत कमजोर को, अमीर गरीब को, बड़ी मछली छोटी को सदा से खाती आई है और खाती रहेगी. यही प्राकृतिक न्याय है. फर्क सिर्फ़ इस बात का है की आप नाचुरल डेथ किसको मानते हैं . क्या बूढे होकर मरना ही नाचुरल डेथ है ? समाजवादी और कम्युनिस्टों की मत सुनिए वे इस नेचुरल आर्डर के दुश्मन हैं अर्थात प्रकृति के दुश्मन ;)सौरभ
LikeLike
अच्छी पोस्ट। सोचने के लिए नया विषय मिला है।-आनंद
LikeLike
ज्ञान जी की मानसिक हलचलें अब सुनामी का रूप ले रही हैं -ब्लागर भाईयों सावधान हो जाईये ,यह पोस्ट सचमुच एक एक मिनी सुनामी ही है बिल्कुल उनके ब्लॉग शीर्षक के ही अनुरूप .ऐसे विचार महान लोगों के मन मे उपजते ही हैं -लेकिन उन्हें व्यथित भी करते हैं -बाबा तुलसी ने इसलिए ही कहा था की ‘सबसे भले वे मूढ़ जिन्हें न व्यापाहि जगत गति …ज्ञान जी ऐसे विचारों को मन से झट्किए और काम पर चलिए .नैसर्गिक न्याय ?एक मुगालता ही है .प्रकृति निष्ठुर और अति क्रूर है .उसे अपनी लीलाओं से फुरसत नही ,वह जबरा मारे और रोवे न दे की ही हैसियत मे है .उसे गरीब अमीर ,सुखी दुखी ,पागल -बुद्धिमान से कुछ लेना देना नही है ,वह बस प्रयोग परीक्षणों मे जुटी रहती है ,हम सब क्षुद्र जीव हैं उसके सैडिस्तिक खिलवाड़ के .अब जब कुदरत के ये हाल हैं तो आदमी -बन्दे को क्या कहें ?
LikeLike