"भगवान की बुढ़िया" खतम होने के कगार पर


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बीरबहूटी, रेड वेलवेट माइट या भगवान जी की बुढ़िया

ग्रामीण परिवेश से जुडे पाठको ने तो चित्र देखकर ही इसे पहचान लिया होगा पर शहरी पाठकों के लिये इस जीव को जान पाना मुश्किल है। अभी जैसे ही मानसूनी फुहार आरम्भ होगी नदियों के आस-पास नरम मिट्टी मे लाल मखमली चादर फैल जायेगी। असंख्य छोटे-छोटे जीव जमीन के अन्दर से प्रगट हो जायेंगे। आमतौर पर इस जीव को बीरबहूटी कहा जाता है। इसे रेन इंसेक्ट भी कहा जाता है। तकनीकी रुप से इंसेक्ट या कीट कहलाने के लिये छै पैरो का होना जरुरी है। इसके आठ पैर होते है इसलिये इसे मकोडा या माइट कहा जाता है। इसका अंग्रेजी नाम रेड वेलवेट माइट है। मध्य भारत मे इसे रानी कीड़ा कहा जाता है। बच्चो का यह पसन्दीदा जीव है। वे इसे एकत्रकर डिबियो मे रख लेते हैं फिर उससे खेलते हैं। इसे छूने पर आत्म रक्षा मे यह पैरो को सिकोड लेता है। बच्चे पैर सिकोड़े जीवो को एक घेरे मे रख देते हैं और फिर उनके बीच प्रतियोगिता करवाते हैं। जो पहले पैर बाहर निकालकर भागता है उसे विजेता माना जाता है और उसके मालिक बच्चे को भी यही खिताब मिलता है।

जैसे ये मकोड़े जमीन से बाहर निकलते हैं वैसे ही बडे पैमाने पर इनका एकत्रण आरम्भ हो जाता है। ग्रामीण इसे एकत्र कर पास के व्यापारियों को बेच देते हैं और फिर इसे दवा निर्मात्री कम्पनियो को भेजा जाता है। हमारे यहाँ से इसे बनारस भेज दिया जाता है जहाँ से इसका तेल बनकर वापस राज्य मे बिकने आ जाता है। हमारे प्राचीन ग्रंथो विशेषकर यूनानी चिकित्सा ग्रंथो मे इसे सम्माननीय स्थान प्राप्त है। इसकी तासीर गरम मानी जाती है। पक्षाघात मे इसके तेल की मालिश की जाती है। यह कहा जाता है कि भाग विशेष मे इसका उपयोग उस भाग का स्थूलीकरण कर देता है। आंतरिक दवा के रुप मे यूँ तो ताकत की दवा के रुप मे इसका उपयोग अधिक प्रसिद्ध है पर देश के पारम्परिक चिकित्सक 40 से अधिक प्रकार के रोगो मे इसका उपयोग करते हैं। इनमे मधुमेह भी शामिल है।

pankaj
यह बुधवासरीय अतिथि पोस्ट श्री पंकज अवधिया ने लिखी है। पंकज अवधिया जी के अन्य लेख इस ब्लॉग पर आप पंकज अवधिया लेबल पर सर्च कर देख सकते हैं।

चन्द रुपयों मे रानी कीडे को ग्रामीणों से एकत्र किया जाता है फिर महानगरो तक इसका मूल्य हजारों मे पहुँच जाता है। विदेशों मे यह ट्राँम्बिडियम के नाम से बिकता है। इसकी कीमत दसों गुना अधिक हो जाती है। भारत से ही विश्व को इसकी आपूर्ति होती है। जिस साल सूखा पड़ता उस साल ये कम निकलते हैं। फलस्वरुप इसका दाम आसमान छूने लगता है।

मै 1990 से इस पर नजर गडाये हूँ। मै इसकी घटती संख्या से चिंतित हूँ। एक दशक मे इसकी संख्या बहुत तेजी से घटी है। मैने इस मकोडे को विशेष गुणों से परिपूर्ण पाया है। पूर्ण सूर्यग्रहण के दौरान यह उन जीवों मे से एक था जिन्होने प्रतिक्रिया दिखायी। इसके गुणो से प्रभावित होकर भूकम्प की पूर्व सूचना देने के लिये इसके प्रयोग की सलाह अपने शोध-पत्रो के माध्यम से मैने दी। सम्भवत: आज इस मकोडे पर विश्व मे सबसे अधिक वैज्ञानिक लेख मेरे ही द्वारा तैयार किये गये है। कुछ वर्षो पहले तक श्री धुरु नामक एक ग्रामीण के साथ मै एकत्रण पर फिल्म बनाता रहा। एकत्रण के दौरान 70 से अधिक उम्र का यह शक्स जीवित मकोडे खाता भी जाता था। उसका दावा था कि अब उसे साल भर कोई बीमारी नही होगी। आमतौर पर सूखने के बाद इसे रोगियो को बेहिचक दे दिया जाता है और वे गुलकन्द समझकर इसे खा जाते हैं। कई बार केले के अन्दर या गुड के साथ भी इसे दिया जाता है। होम्योपैथी चिकित्सा मे ट्राँम्बिडियम का प्रयोग आमतौर पर किया जाता है।

इसकी आबादी पर पड़ रहे दबाव को कम करने के लिये विशेषज्ञ प्रयोगशाला परिस्थितियो में इसे बढाने और फिर दवा के रुप मे उपयोग करने की राय देते हैं। पर पारम्परिक चिकित्सकों की बात मुझे ज्यादा सही लगती है। उनका कहना है कि इस मकोड़े से कई गुना अधिक प्रभावी वनस्पतियाँ हमारे आस-पास हैं। इनके उपयोग को बढावा देकर इस मकोड़े की आबादी पर पड़ रहे दबावों को बहुत हद तक कम किया जा सकता है। पर इसके लिये आम लोगों को जागरुक करना जरुरी है। इस पोस्ट के माध्यम से ऐसा ही प्रयास मैने किया है।

समीर लाल जी के क्षेत्र मे इसे ‘भगवान की बुढिया’ कहा जाता है। आम भारतीय भगवान की इस बुढिया को बचाने पहल करेंगे-ऐसी उम्मीद है।

इस मकोडे पर शोध मे मेरा योगदान का लिंक – १

इस मकोडे पर शोध मे मेरा योगदान का लिंक – २

इस मकोडे पर शोध मे मेरा योगदान का लिंक – ३

इस मकोडे पर शोध मे मेरा योगदान का लिंक – ४

पंकज अवधिया

© सर्वाधिकार पंकज अवधिया


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

19 thoughts on “"भगवान की बुढ़िया" खतम होने के कगार पर

  1. बचपन मे मैंने भी से माचिस के डब्बे मे बंद किया है। हम से मखमली कीड़ा कहते थे। मेरी उम्र तब 4/5 साल रही होगी।

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  2. जानकारी के लिए शुक्रिया। लाल तो नहीं, लेकिन ठीक इसी तरह के काले जीव देखे हैं अपने गांव में।

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  3. आप सभी की टिप्पणियो के लिये आभार। टिप्पणियो मे ही इतनी सारी नयी जानकारियाँ है कि एक नयी पोस्ट बन सकती है। आज यह आभास हुआ कि ब्लागिंग टू वे प्रोसेस है। शास्त्री जी, आपके यहाँ यह मकोडा पाया जाता होगा। आप इसे उत्तर से लाकर यहाँ छोडने की बजाय दवा दुकानो मे पता करे। इससे आपको इसके व्यापार का पता चलेगा। फिर इसे रोकने के लिये कदम उठाये, तो बहुत बडी मदद हो जायेगी। आपने सही कहा कि हेबीटेट के नष्ट होने के कारण भी ये कम हो रहे है।

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  4. इस का संस्कृत नाम इंन्द्रगोप है। हमारे यहाँ सावण की डोकरी कहते हैं। इस का चिकित्सकीय महत्व बहुत होने के कारण इस का नाश हो रहा है। प्रोस्टेट की आयुर्वेदिक दवा का मुख्य तत्व है।

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  5. पंकज जी आप वाकई उन चीजो से अवगत कराते है जो शायद आस पास है पर हम उन्हें देख नही पाते

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  6. धर्मवीर भारती जी की ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ में ‘बीरबहूटी’ नामक कीट का जिक्र है (चौथी दोपहर की कहानी में). हमें बिल्कुल पल्ले नहीं पड़ा था कि क्या बला है. अब जाना. जानकारीपूर्ण आलेख है.विभिन्न लाइफ फॉर्म्स का इस तरह नष्ट होते जाना बेहद अफसोसजनक है.

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